सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata

 सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata

सिन्धु घाटी सभ्यता
indus valley civilization

     सिंधु घाटी सभ्यता ( Indus Valley Civilization ) - बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक अधिकांश विद्वान यही मानते थे कि वैदिक सभ्यता भारत की सर्वप्राचीन सभ्यता है और भारत का इतिहास वैदिक काल से ही प्रारंभ माना जाता था। परंतु बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक में इस भ्रामक धारणा का निराकरण हो गया। जब दो प्रसिद्ध पुरातत्वशास्त्रियों--- दयाराम साहनी तथा राखल दास बनर्जी ने हड़प्पा (पंजाब के मांटगोमरी जिले में स्थित) तथा मोहनजोदड़ो (सिंध के लरकाना जिले में स्थित) के प्राचीन स्थलों से प्राचीन वस्तुएं प्राप्त करके यह सिद्ध कर दिया कि  परस्पर 600 किलोमीटर की दूरी पर बसे हुए ये दोनों ही नगर कभी एक ही सभ्यता के दो केंद्र थे।

 

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         हड़प्पा सभ्यता की खोज कैसे हुई?

    सिंध में (अब पाकिस्तान में स्थित) जब रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी कि खुदाई के दौरान धरती के गर्भ से एक अज्ञात सभ्यता के अवशेष प्रकाश में आए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शल तथा उनके सहयोगियों विशेष रुप से एम. एस. वत्स ने सिंधु घाटी की सभ्यता और उसके दो पड़ोसी स्थलों-हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो नगरों की जो विस्मयकारी खोज की, उसने भारतीय इतिहास एवं उसके प्रति हमारी जिज्ञासा को कुछ सहस्त्राब्दी पीछे पहुंचा दिया। इसके साथ यह विस्मयकारी ऐतिहासिक रहस्योद्घाटन हुआ।

 हड़प्पा कालीन सभ्यता के अनुसंधान के आठ दशक

  •  1826 में सी. मैस्सन ने (1842 में प्रकाशित अपने लेख में) हड़प्पा में किसी प्राचीन स्थल के विद्यमान होने का सबसे पहले उल्लेख किया।
  • 1834 में बर्नेस ने नदी के किनारे किसी ध्वस्त किले के विद्यमान होने की संभावना व्यक्त की।
  • अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1853 एवं पुनः 1856 में दो बार हड़प्पा की यात्रा की और वहां अनेक टीलों के गर्भ में किसी प्राचीन सभ्यता के दबे होने की संभावना व्यक्त की।
  • कनिंघम ने उक्त स्थल में सीमित उत्खनन किए और तदुपरांत वहां से प्राप्त प्राप्त पुरावशेषों (जैसे की मुद्राओं)  एवं उत्खनन स्थल के मानचित्र का प्रकाशन किया। उन्होंने हड़प्पा की पहचान चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा अपनी भारत यात्रा के दौरान देखे गए पो-फा-तो या पो-फा-तो-दो के साथ की।
  • 1886 में एम. एल. डेम्स एवं 1912 में जे. एफ. फ्लिट ने कुछ हड़प्पा कालीन मुद्राऍं प्रकाशित कीं।
  • हड़प्पा- इसकी खोज 1921 में दयाराम साहनी द्वारा की गई।
  • मोहनजोदड़ो- इस स्थल की खोज 1922 में रखलदास बनर्जी द्वारा की गई।
  • एम. एस. वत्स-- इन्होंने हड़प्पा (1920 21) का व्यापक उत्खनन का कार्य पूरा किया।
  • एस. जे. मार्शल -- इन्होनें मोहनजोदड़ो (1922-27) में व्यापक उत्खनन का कार्य पूरा किया।

  हड़प्पा सभ्यता का विस्तार क्षेत्र

सबसे  पश्चिमी स्थल

सुतकागेंडोर, बलूचिस्तान (पाकिस्तान)

सबसे  पूर्वी स्थल

आलमगीरपुर मेरठ उत्तर प्रदेश 

सबसे  उत्तरी स्थल

मांडा जम्मू कश्मीर 

सबसे  दक्षिणी स्थल

दैमाबाद महाराष्ट्र



हड़प्पा सभ्यता का कुल क्षेत्रफल कितना है?

  • हड़प्पा सभ्यता का समूचा क्षेत्रफल त्रिभुजाकार है और इसका क्षेत्रफल लगभग 1,299,66 वर्ग कि. मी. है।
  • उत्तर से दक्षिण तक 1,100 किलोमीटर तथा पश्चिम से पूर्व तक 15,50 किलोमीटर दूरी है।
  • सिंधु सभ्यता का कालक्रम क्या है?
  • मार्शल ने सिंधु सभ्यता का समय 3250-2750 ईसा पूर्व के बीच माना है।
  • मैके ने इस सभ्यता का समय 2800 ईसा पूर्व से लेकर 2800 ईसा पूर्व तक निर्धारित किया है।
  • एम. एस. वत्स के अनुसार सिंधु सभ्यता का काल लगभग 3500-2500 ईसा पूर्व के बीच माना है।
  • रेडियो कार्बन पद्धति से इस सभ्यता का समय 2300 से 1750 ईसा पूर्व निश्चित किया गया है।
  • ह्वीलर ने हड़प्पा सभ्यता का समय 2500-1500 ई०
  • पू० निश्चित किया है जो अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।
  • अतः विद्वानों में इस सभ्यता के समय को लेकर पर्याप्त मतभेद हैं।


सिंधु सभ्यता का नामकरण


  • प्राचीन भारत में नगरीकरण के प्रथम चरण के लिए दो नामों हड़प्पा कालीन सभ्यता और सिंधु सभ्यता का प्रयोग किया जाता है।
  • आधुनिक हड़प्पा गांव (पाकिस्तान में) के समीपवर्ती टीले ऐसी पहली बस्ती थे जहां से इस सभ्यता के अवशेषों की सबसे पहले पहचान हुई, अतः समकालीन सभ्यता को हड़प्पा कालीन नाम देना पूर्णता उचित समझा गया।
  • चूँकि यह सभ्यता सिंधु नदी की घाटी से फैली और इस सभ्यता से जुड़े स्थलों में से सबसे अधिक बस्तियाँ इसी नदी के प्रवाह क्षेत्र में स्थित हैं इसलिए इसे सिंधु सभ्यता भी कहा गया।
  • सर जॉन मार्शल सिंधु सभ्यता नाम का प्रयोग करने वाले प्रथम व्यक्ति थे।
  • सिंधु सभ्यता अथवा हड़प्पा सभ्यता के लोग कांसा नामक धातु का बड़े पैमाने पर प्रयोग करते थे, इसलिए इस सभ्यता को कांस्य युग की सभ्यता भी कहा जाता है।
  • यद्यपि मानव द्वारा प्रयुक्त प्रथम धातु तॉंबा थी।
  • सिंधु घाटी सभ्यता आद्य-ऐतिहासिक काल से संबंधित है क्योंकि यह ऐसे कालखंड का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें लोगों ने लिपि का विकास कर लिया था और जिसके लिखित अभिलेख उपलब्ध है। किंतु सिंधु सभ्यता की लिपि को निरंतर प्रयासों के पश्चात भी पढ़ा नहीं जा सका है।


हड़प्पा सभ्यता के प्रवर्तक (निर्माता ) कौन थे?


मोहनजोदड़ो की जनसंख्या मिश्रित और कम से कम चार विभिन्न प्रजातियां समूह जैसे प्रोटो-ऑस्ट्रेलाइड, मेडीटेरैनियन (भूमध्यसागरीयग), अल्पानायड (अल्पाइन),  (आर्मेनायड शाखा) और मंगोलायड से संबंधित थे।

अधिकांश विद्वान इस सभ्यता के संस्थापकों को  द्रविड़ भाषी मानते हैं।


सिंधु सभ्यता के प्रमुख नगर कौन-कौन से हैं?


सिंधु घाटी के जिन नगरों की खुदाई (उत्खनन) किया गया है उनका सम्यक वर्णन करने के लिए उन्हें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर सकते हैं---
(1) केंद्रीय नगर
(2) नगर और पत्तन (बंदरगाह) तथा
(3)अन्य नगर एवं कस्बे।


1--- केंद्रीय नगर- सिंधु सभ्यता के तीन केंद्रीय नगर हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और धौलावीर समकालीन बड़ी बस्तियां थीं।

हड़प्पा- 

  • डॉ. दयाराम साहनी ने 1921 में सिंधु सभ्यता के अवशेषों की खोज सर्वप्रथम हड़प्पा में की थी।
  • हड़प्पा में दो विशाल ध्वस्त टीले थे जो जिला मुख्यालय मोंटगोमरी, पंजाब (पाकिस्तान) के दक्षिण-पश्चिम में करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।
  • हड़प्पा के अवशेषों में दुर्ग, रक्षा-प्राचीर, निवास-गृह, चबूतरे तथा अन्नागार महत्वपूर्ण है।
  • नगर की रक्षा के लिए पश्चिम की ओर एक दुर्ग का निर्माण किया गया था।
  • दुर्ग के चारों ओर एक सुरक्षा दीवार बनी थी जो अपने आधार पर 13.5 मीटर चौड़ी थी।
  • हड़प्पा से जौ के दाने, जले गेहूं तथा भूसी पाई गई है।
  • हड़प्पा से अन्नागार मिले हैं। अन्ना कारों की दो पंक्तियां मिली हैं, प्रत्येक में छः छः अन्नागार हैं। प्रत्येक 15.24×6.10 मीटर के आकार का है। सभी के दरवाजे उत्तर दिशा में नदी की ओर थे इनसे जलमार्ग द्वारा विभिन्न स्थानों में आसानी से आनाज भेजा जा सकता था।
  • हड़प्पा में मृतक संस्कार संबंधी रोचक प्रमाण मिले हैं यह किले के दक्षिण में पाए गए हैं। जिन्हें पुरातत्वविदों ने R-37 नाम दिया है।खुदाई में विभिन्न प्रकार के 57 शवाधान भी पाए गए हैं। इन शवाधानों में कंकालों को मृतक के उपयोग की वस्तुओं के साथ गड्ढों में दफना दिया जाता था। 12 शवाधानों से कांस्य दर्पण भी पाए गए हैं। एक से सुरमा लगाने की सलाई, एक से सीपी की करछुल, तथा कुछ अन्य से पत्थर के फलक (ब्लेड) पाए गए हैं।
  • हड़प्पा से मिट्टी के बर्तन, श्रृंग पत्थर के फलक (ब्लेड), तांबे और कांस्य के औजार, पकाई हुई मिट्टी की आकृतियां तथा छोटी एवं बड़ी मोहरे प्राप्त हुई हैं।
  • हड़प्पा से कुल 891 मोहरें प्राप्त हुई हैं।
  • यहां से पत्थर की दो ऐसी मूर्तियां भी मिली है जो किसी भी अन्य समकालीन अगर से प्राप्त नहीं हुई हैं। दोनों मूर्तियों में छेद किए कोटर हैं, जिनसे मेख कील के जरिए सिर को अन्य अंगों से जोड़ा जाता था।
  • पहली मूर्ति लाल बलुआ पत्थर की निर्वस्त्र पुरुष धड़ (9.3 सें.मी. ऊंची) की है जिसका पेट उभरा हुआ (तोंद) है। मार्शल के अनुसार इसकी मुख्य विशेषता मांसल हिस्सों की परिष्कृत और आश्चर्यजनक रूप से हूबहू गढ़न है। कुछ ने इस मूर्ति को जिन्न या यक्ष की मूर्ति का आदिप्रारूप माना है।
  • दूसरी पुरुष मूर्ति (10 सें.मी.) धूसर पत्थर की बनी हुई और नृत्य मुद्रा (मुड़े कंधे और एक टांग उठी) में है। सिर, जो अब लापता है, को जोड़ने के लिए मेख कील का इस्तेमाल किया जाता था। मार्शल ने इस मूर्ति की तुलना नृत्य के प्रवर्तक नटराज के रूप में शिव के साथ की है।
  • मोहनजोदड़ो से हाथी दांत की मुहर तथा तीन ताँबे के उपकरण भी मिले हैं। नॉकवाला सुआ, दोधारी चाकू और चिमटी, जो संभवत शल्य चिकित्सा के उपकरण थे भी मिले हैं।
  • हड़प्पा में निर्मित घरों में मोहनजोदड़ो की भांति कुऐं नहीं मिलते।

 

मोहनजोदड़ो


  • मोहनजोदड़ो का अर्थ है मुर्दों का टीला।
  • मोहनजोदड़ो हड़प्पा से लगभग 483 किलोमीटर दक्षिण में सिंध के लरकाना जिले में स्थित है।
  • मोहनजोदड़ो से भी दो टीले मिले हैं पश्चिमी टीला कम ऊंचा एक नगर-दुर्ग (200×400 मीटर) था और पूर्वी विशाल टीले के नीचे मोहनजोदड़ो के निचले नगर (400×800 मीटर) के अवशेष दबे हुए थे।
  • पहले टीले के ऊपर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का एक बौद्ध स्तूप बना हुआ था।
  • इन तीनों टीलों का उत्खनन राखल दास बनर्जी (1922),  सर जॉन मार्शल (1922-30),  ई. जे. एच. मैके (1927-31), एस.एम. ह्वीलर (1930-47) और जी.एफ. डेल्स (1964-66) ने किया।
  • मोहनजोदड़ो को हड़प्पा के साथ इसकी जुड़वा राजधानी कहा जाता है।
  • मोहनजोदड़ो से निम्नलिखित अवशेष मिले हैं---
  • 1- विशाल स्नानागार-- यह मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक उल्लेखनीय स्मारक है जो उत्तर से दक्षिण तक 180 (54.86 मीटर) तथा पूर्व से पश्चिम तक की 108 (लगभग 33 मीटर) है।
  • इसके केंद्रीय खुले प्रांगण के बीच जलकुंड या जलाशय बना है यह लगभग 12 मीटर लंबा,  7 मीटर चौड़ा,  तथा 3 मीटर गहरा है।
  • जलाशय की फर्स पक्की ईंटों की बनी है। फर्श  तथा दीवार की जुड़ाई जिप्सम से की गई है। बाहरी दीवार पर बिटूमेन का 1 इंच मोटा प्लस्तर लगाया गया है। जिप्सम तथा बिटूमेन जलाशय को मजबूत बनाते हैं।
  • वृहत्स्नानागार का उपयोग धार्मिक समारोह के अवसर पर किया जाता था। मार्शल ने इसे तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण बताया है।
  • 2- अन्नागार- स्नानागार के पश्चिम में  1.52 मीटर ऊंचे चबूतरे पर निर्मित एक भवन मिला है जो पूर्व से पश्चिम में 45.72 मीटर लंबा तथा उत्तर से दक्षिण में 22.46 मीटर चौड़ा है। विद्वानों ने इसे राजकीय भंडारागार या जनता से कर के रूप में वसूल किया हुआ अनाज रखा जाने वाला अन्नागार बताया है।
  • 3- पुरोहित आवास- वृहत्स्नानागार के उत्तर-पूर्व में 70.1× 23.77 मीटर के आकार के एक विशाल भवन के अवशेष मिले हैं। इसमें 10 मीटर का वर्गाकार प्रांगण,  तीन बरामदे तथा कई कमरे बने थे। कुछ की फर्श पक्की ईंटों की बनाई गई थी। यहां संभवत: प्रधान पुरोहित अपने सहयोगियों के साथ निवास करता था।
  • 4- सभा भवन-- दुर्ग के दक्षिण की ओर 27×27 मीटर के आकार का एक वर्गाकार भवन मिलता है जिसे 'सभा भवन' कहा गया है। इसमें ईटों के 20 चौकोर स्तंभों के अवशेष मिले हैं। इनके चार कतारे हैं, प्रत्येक में पांच-पांच स्तंभ है। मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर की ओर था। संभवत: इन स्तंभों पर भवन की छत टिकी हुई थी। इस प्रकार यह स्तम्भों बाला भवन था। भवन के भीतर बैठने के लिए चौकियां बनाई गई थी।
  •     मोहनजोदड़ो के मकानों की नींव पक्की ईंटों से भरी जाती थी जिनके पर सीधी दीवार खड़ी होती थी।
  • मोहनजोदड़ो से ताम्र-कांस्य के कुछ बर्तन एवं मिट्टी के कई बर्तन प्राप्त हुए हैं। मोहरों पर हुए चित्रणों से पशु-बलि, मातृ देवी की उपासना, पशु एवं वृक्ष पूजा तथा शिव पशुपति आदि के रूप में आस्था के बारे में जानकारी मिलती है।
  • मोहनजोदड़ो से 1398 मोहरें मिली हैं।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त महत्वपूर्ण अवशेष इस प्रकार हैं---
  • पत्थर की मोहर पर जहाज का चित्रण
  •  नदी में चलने वाली नौका का पत्थर पर शिल्पन
  •  पक्की मिट्टी के ताबीज पर जहाज का चित्रण
  •  मृण-गाड़़ी
  • ताम्र एवं कांस्य उपकरण और बर्तन
  • दाढ़ी युक्त चेहरे (19 से.मी.) की चूने के पत्थर की मूर्ति
  •  मिश्रित पशु
  •  हाथी की सूंड एवं मेढ़े के सींगवाला सांड
  • हिलते सिर वाला खिलौना सांड
  •  मोहर पर सांड
  •  हाथी एवं व्याघ्र के अंगोंवाले मिश्रित पशु का चित्रण
  • प्रस्तर लिंगम
  • बैठी हुई महिला की मृणमूर्ति, शायदआटा गूंधती हुई (हड़प्पा एवं चन्हुदड़ो में भी थी)
  •  मृण बंदर (3.5 मी.) जिसमें रस्सी से चढ़ने के लिए छेद बने हैं
  • अज्ञात उद्गमवाला प्रस्तर मेढ़ा, अधिकतम लंबाई 49 से.मी. और ऊंचाई 27 से.मी. (सभी हड़प्पा मूर्तियों में से यह शायद सबसे बड़ी और सबसे अच्छी तरह से संरक्षित वस्तु है)
  • बैठी हुई गिलहरी की चीनी-मिट्टी की लघु आकृति (2.5 से.मी.)
  • भारतीय गैंडे की सेलखड़ी मुहर
  •  अपने बच्चे को दूध पिलाती महिला आकृतियां (हड़प्पा में भी)
  •  हाथ में रोटी ले जाती नारी की आकृति (हड़प्पा एवं  चन्हुदड़ो में भी)
  •  दो चेहरे वाली मानव आकृति
  • मानव के चेहरे वाला व्याघ्र (हड़प्पा में भी)
  • कुत्ते के शरीर पर दाढ़ी युक्त मानव सिर
  •  बिल्ली के सिरवाली गर्भवती महिला की मूर्ति (हड़प्पा में भी मानव शरीरवाली बिल्ली की आकृति पाई गई)
  •  लोमड़ी के सिर वाली मानव आकृति
  • केश-पिन पर दो सिरवाले पशु आकृति आदि।

 धौलावीर-- 

  •  यह स्थल गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुक में स्थित है।धौलावीर का स्थानीय नाम कोटडा है। इस हड़प्पाकालीन नगर के अवशेष मंदसर और मनहर बरसाती नदियों के बीच खादिर में स्थित है।
  • इस स्थल का उत्खनन आर. एस. बिष्ट के नेतृत्व में 1990-91 में किया गया था।
  • धौलावीर की मुख्य विशेषता इसकी विशालता, व्यापक दुर्ग बंदी या सुरक्षा व्यवस्था से युक्त प्रभावशाली नगर-योजना, उत्कृष्ट स्थापत्य, सुंदर जल-प्रणाली और एक सहस्त्राब्दी से अधिक समय तक स्थाई रहने वाली क्रमिक बस्तियॉं थीं।
  • धौलावीर की मुख्य विशेषता यह है कि यहां बस्तियों के तीन भाग मिले हैं, जिनमें से दो भाग आयताकार दुर्गबंदी या प्राचीरों द्वारा पूरी तरह सुरक्षित थे।
  • धौलावीर से एक बहुत प्रभावशाली जलापूर्ति एवं जल-निकास संबंधी निर्माण सामग्री मिली है।
  • धौलावीर से एक खेल का मैदान (स्टेडियम) मिला है।
  • यहां से प्राप्त अन्य सामग्री में घोड़े के अवशेष, पशु की छोटी कांस्य आकृति सहित कई ताम्र वस्तुएं, ताम्र-कार्य, मनका-कार्य तथा अन्य दस्तकारी गतिविधियों के साक्ष्य मिले हैं।
  • धौलावीर से एक नेवले की पत्थर की मूर्ति (37 से. मी.)भी पाई गई है।
  • धौलावीर से नगर के बाहर मुख्य द्वार पर एक साइन बोर्ड मिला है जिस पर दूधिया सफेद पदार्थ के टुकड़ों से 9 वर्ण लिखे हुए थे।
  • धौलावीर के लोग वर्षा के जल को संरक्षित करना जानते थे। यहां से एक ऐसा जलाशय मिला है (जो 80.4 मी. × 12 मी. था और गहराई 7.5 मी. थी ), जिसमें वर्षा का जल संग्रह (2,50,000 घन मी.) किया जाता था।
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राखीगढ़ी

  •  राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार जिले में है। यह भी एक केंद्रीय नगर था, जो हड़प्पा सभ्यता की प्रांतीय राजधानी माना जाता है।
  • राखीगढ़ी से मिट्टी की ईंटों के बने अन्नागारों से जौ, गेहूं एवं चावल के दाने मिले हैं।
  • राखीगढ़ी से प्राप्त शवाधान में मृतकों को उत्तर-दक्षिण की स्थिति में लिटा कर लंबे गड्ढे में दफनाया जाता था। शवाधान में रखी जाने वाली वस्तुओं में आमतौर पर मृतक के सिर के पीछे रखे बर्तन होते थे। दो महिलाओं के शवों के बाएं हाथ में सीपी की चूड़ियां पाई गई है जबकि एक अन्य के पास सोने की छोटी पट्टीका मिली है।

2-- सिंधु सभ्यता के तटीय नगर और बंदरगाह


सुत्कागेनडोर

  •     यह सिंधु सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल है। पाकिस्तान के कराची के पश्चिम में लगभग 500 किलोमीटर दूर ईरान से लगी सीमा के पास दश्त नदी पर स्थित सुत्कागेनडोर सिंधु सभ्यता का महत्वपूर्ण केंद्र था। इसकी खोज 1931 में सर ऑरेल स्टाइन ने की थी।
  • यह यह एक बंदरगाह था।
  • यहां यहां से मिट्टी की चूड़ियों के अवशेष मिले हैं।, ताम्रनिर्मित
  •  ब्लेड के टुकड़े, एक ताम्रनिर्मित बाणाग्र आदि मिले हैं।

सुत्काकोह- सुत्कागेनडोर के पूर्व में स्थित सुत्काकोह स्थल है जिसकी खोज 1962 में डेल्स द्वारा की गयी।


बालाकोट-- 

  • यह स्थल कराची से 98 कि. मी. उत्तर-पश्चिम में लासबेला घाटी और सोमानी खाड़ी के दक्षिण-पूर्व में खुटकेड़ा के कछारी मैदान के लगभग मध्य में स्थित था।
  • यहाँ  1963-1979 के दौरान जॉर्ज एफ. डेल्स ने उत्खनन कराया।
  • यह भी एक बन्दरगाह था, तथा सीप उद्योग का प्रमुख केंद्र था , यहाँ से सीपियाँ निर्यात की जाती थीं।
  • यहां भवन कच्ची ईंटों के बने थे तथा नालियां पक्की बनी थी,
  • अल्लाहदीनों-- यह स्थल कराची से 40 किलोमीटर पूर्व में स्थित है। 1982 में यहां फेयर सर्विस ने उत्खनन का कार्य करवाया था।
  • यह भी एक बंदरगाह था।
  • यहां से प्राप्त अवशेषों में तांबे की वस्तुएं, सोने चांदी के आभूषण, माणिक्य के मनके तथा सैंधव प्रकार की मोहरे उल्लेखनीय हैं।
  • मिट्टी की बनी एक खिलौना गाड़ी भी यहां से प्राप्त हुई है।

लोथल--- 

  • गुजरात में अहमदाबाद से करीब 80 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में धोलका तालुक के सरगवाला ग्राम के पास भगवा एवं साबरमती नदियों के बीच के स्थित मैदान मैं खंभात की खाड़ी से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित लोथल सिंधु सभ्यता का एक महत्वपूर्ण व्यापार एवं उत्पादन केंद्र था।
  • लोथल का उत्खनन कार्य 1954-62 के दौरान एस.आर. राव ने कराया यहां से सभ्यता के पांच स्तर पाए गए हैं।
  • यहां से एक 'जहाजों की गोदी' (Dock-Yard) (214×36×4.5) मिला है जो पक्की ईंटों से बनाया गया था।
  • लोथल से धान की खेती के प्रमाण मिले हैं 
 
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                                                लोथल स्थित खंडहर

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                                                         लोथल स्थित गोदी (बंदरगाह)

कुंतासी---- 

  • पश्चिमी सौराष्ट्र में फुलकी नदी के दाहिने तट पर स्थित कुंतासी में विकसित हड़प्पाकालीन पत्तन बस्ती मिली है। इस टीले को स्थानीय तौर पर बीबी-नो-टिम्बो कहा जाता है।
  • यहां से प्राप्त अवशेषों में सुराहियाँ, दोहत्थे कटोरे, मिट्टी की खिलौना गाड़ी, कांचली मिट्टी तथा सेलखड़ी के मनके आदि मिले हैं। एक मकान के कमरे से सेलखड़ी के हजारों छोटे मनके तथा ताँबे की चूड़ियां एवं दो अंगूठियां मिली है।

सिंधु सभ्यता का अन्य महत्वपूर्ण नगर एवं कस्बे

चन्हुदड़ो-- 

  • मोहनजोदड़ो के लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित इस स्थल की खोज में से 1934 ई० में एन.जी. मजूमदार ने की थी। 1943 समय के द्वारा यहां उत्खनन का कार्य करवाया गया।
  • यह एक औद्योगिक केंद्र था। जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार-माप के बटखरे बनाने का काम होता था।
  • मैके ने यहां से मनका बनाने का कारखाना तथा भट्टी की खोज की।
  • यहां से मिट्टी की बैलगाड़ी का नमूना और कांस्य खिलौना गाड़ी भी मिली।
  • कोटदीजी-- पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित इस स्थल की खुदाई फजल अहमद खाँ द्वारा 1955 तथा 1957 में करवाई गई थी।
  • यहां से प्राप्त अवशेषों में विशिष्ट प्रकार के चित्रित मृदभांड, सादी तथा रंगीन चूड़ियां, बाणाग्र, ठीकरे, मातृदेवी की मूर्तियां, पत्थर की चाकी, मनके, कांसे की अंगूठियां तथा सेलखड़ी की बनी दो मुहरें महत्वपूर्ण है।
  • पकी मिट्टी का साँड, मयूर बारहसिंगे, सूर्य प्रतीक नक्काशी वाली आकृतियाँ आदि मिली हैं।

  सुरकोटडा---

  •  गुजरात के कच्छ जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई से नियमित आवास के साक्ष्य मिले हैं।
  • यह यह एक महत्वपूर्ण प्राचीरयुक्त सिंधुकालीन बस्ती है।
  • 1972 में जे.पी. जोशी ने इस स्थल की खुदाई कराई थी।
  • इस इस स्थल अंतिम चरण में घोड़े की हड्डियां मिली हैं जो किसी भी अन्य हड़प्पाकालीन नगर से प्राप्त नहीं हुई है।
  • चार बर्तन बाला एक शवाधान भी पाया गया है जिसमें मानव की कुछ हड्डियां मिली हैं। यह कुलश शवाधान (Pot Burial) का उदाहरण है।

देसलपुर-- भुज जिले (गुजरात) के नखत्राण तालुका में गुंथाली के पास भादर नदी के किनारे स्थित देसलपुर में सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसकी खुदाई सबसे पहले पी.पी. पांडेय और एम. ए.  ढाके  तथा बाद में के.वी. सौंदरराजन द्वारा कराई गई।

रोजदी-- गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित इस स्थल की खुदाई के दौरान प्राक् सैन्धव, सैन्धव तथा उत्तर सैन्धव संस्कृति के स्तर उद्घाटित होते हैं। यहां से प्राप्त मृदभांड लाल, काले और चमकदार हैं बस्ती के चारों और बड़े-बड़े पत्थरों की बनी सुरक्षा दीवार मिली है।

यहां से हाथी के अवशेष भी मिले है।

मांडा-- जम्मू से करीब 80 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में सिंधु नदी की एक सहायक नदी चेनाव के दाहिने तट पर पीरपंजाल पर्वत श्रंखला की तराई में स्थित मांडा हड़प्पा कालीन सभ्यता का सबसे उत्तरी स्थल है।

रोपड़ -- पंजाब प्रांत में सतलज नदी के बाएं तट पर स्थित यह भारत का ऐसा सैन्धव स्थल है जहां स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वप्रथम उत्खनन कार्य किया गया था।

1950 में इसकी खोज बी.बी. लाल ने की तथा 1953-55 के दौरान यज्ञदत्त शर्मा ने उत्खनन कार्य करवाया।

 यहां से एक ऐसा कब्रिस्तान मिला है जिसमें मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता भी दफनाया गया है।

यहां से एक कांसे की बनी कुल्हाड़ी भी प्राप्त हुई है।

कालीबंगन--

  •  कालीबंगन का शाब्दिक अर्थ होता है काली चूड़ियां।
  • यह यह स्थल राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित है।
  • विद्वानों विद्वानों ने इसे सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी बताया है।
  •   उत्खनन में यहां से हल से भूमि की जुताई, एक दूसरे से समकोण बनाती हल रेखा वाली भूमि मिली है।
  • यहां से ताँबा गलाने की भट्टियां भी प्राप्त हुई हैं।
  •  यहां सरसों एवं चने खेती होती थी। 
  •  एक ही पंक्ति में बनी सात अग्निवेदियॉं भी यहां से प्राप्त हुई हैं।
  •  अग्निवेदियो से पशुओं एवं हिरणों की हड्डियां मिली हैं जिससे पशु बलि प्रथा के प्रचलन का पता चलता है।
  •  यहां से भूकंप के सर्वप्रथम साक्ष्य मिलते हैं।
  •  यहां से कुछ कंकालों के अध्ययन से, मृतकों के रोगों के बारे में भी रोचक तथ्य प्रकाश में आए हैं। एक बच्चे के कपाल के विश्लेषण से जलशीर्ष या मस्तिक शोध की बीमारी का पता चलता है। जिसके इलाज के लिए कपाल में तीन छेद किए गए थे तथा किसी औजार को गर्म करके कपाल को दागा गया था। चिकित्सा की इस आदिम पद्धति, जिसे ट्रेफीनेशन (कपाल में छेद करना) कहा जाता है, का लोथल एवं बुर्जाहोम में सिरदर्द की चिकित्सा के लिए उपयोग किया जाता था। एक कंकाल के बाएं घुटने पर किसी धारदार औजार संभवतः कुल्हाड़ी से काटने का निशान है।

बनवाली--- हरियाणा के हिसार जिले में स्थित इस स्थल का उत्खनन 1973-74 में आर. एस. बिष्ट द्वारा करवाया गया था।

  • यहां से मिट्टी का बना एक हल, लघु नारी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
  •  यहां से जौ के दाने भारी मात्रा में प्राप्त हुए हैं।
  •  ताँबे से निर्मित वस्तुओं में तीरों के अग्रभाग, भाले का अग्रभाग, हँसिए का टूटा हुआ फलक, उस्तरा, छैनी, अंगूठियाँ, दोहरे चक्राकार एवं साधारण शलाकाएँ ( पिन ), कान व नाक की बालियां और मछली पकड़ने के कांटे शामिल हैं।

  कुणाल-- कुणाल हरियाणा में हिसार जिले की रतिया तहसील में सरस्वती नदी (अब विलुप्त) के तट पर स्थित था। 3 हेक्टेयर में फैले 3.10 मीटर ऊंचे टीले की खुदाई 1986 के बाद जे.एस. खत्री और एम. आचार्य ने कराई।

भगवानपुरा -- हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में सरस्वती (अब विलुप्त) नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित इस स्थल से सैन्धव सभ्यता के पतनोन्मुख काल के अवशेष मिले हैं। इसका उत्खनन जे.पी. जोशी द्वारा करवाया गया था। यहां के प्रमुख अवशेष सफेद, काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियां,  ताँबे की चूड़ियां, कांच की मिट्टी के चित्रित मनके आदि हैं।

दैमाबाद - महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बाएं किनारे पर स्थित इस स्थल की खुदाई से सैन्धव सभ्यता के कुछ साक्ष्य प्राप्त होते हैं। दैमाबाद सैंधव सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है।

हुलास-- उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है यहां के टीले की खुदाई से संस्कृति के विभिन्न चरणों का पता चलता है। यहां से कांचली मिट्टी के मनके, चूड़ियां, ठीकरे, खिलौना गाड़ी आदि मिले हैं। सैन्धव लिपि युक्त एक ठप्पा भी प्रकाश में आया है।

अलमगीरपुर-- उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित यहां के टीले की खुदाई से सैन्धव सभ्यता के अवशेष मिलते हैं। यह संस्कृति के उत्तरकालीन स्तर का द्योतक।

सिंधु सभ्यता महत्वपूर्ण एक नज़र में 

              सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल और उनके खोजकर्ता 

खोजकर्ता

स्थल

खोज वर्ष 

दयाराम साहनी

            हड़प्पा       

 1921

राखलदास बनर्जी

            मोहनजोदड़ो 

 1922

 बी.बी.लाल, अमलानंद घोष

      कालीबंगन

 1953

ए. आर. राव

लोथल

 1954

यज्ञदत्त शर्मा

रोपड़

 1953

 ऑरेल स्टाइन, जार्ज एफ डेल्स

             सुतकागेंडोर

 1927

 रंगनाथ राव, माधोस्वरूप वत्स

      रंगपुर

 1931-1953

फजल अहमद खां

     कोटदीजी

 1953

एन. गोपाल मजूमदार

      चन्हूदड़ो

 1931

यज्ञदत्त शर्मा

        आलमगीरपुर

 1958

रवींद्र सिंह विष्ट

          बनावली

 1973

जगपति जोशी

     सुरकोटड़ा

 1964

 फेयर सर्विस 

           आल्हादीनों

 1982 

 

 नदियों के किनारे बसे प्रमुख नगर 

 

प्रमुख  नगर 

  नदी /समुद्र

 हड़प्पा 

 रावी नदी 

 मोहनजोदड़ो 

 सिंधु नदी 

 रोपड़ 

 सतलुज नदी 

 लोथल 

 भोगवा नदी 

 सुतकागेंडोर 

 दश्त नदी 

 कालीबंगन 

 घघ्घर नदी 

कोटदीजी

 सिंधु नदी 

सुत्काकोह

 अरब सागर 

 बालाकोट 

 अरब सागर 

 आलमगीरपुर 

हिंडन नदी

 रांगपुर 

 मादर नदी 



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