महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण
महमूद गजनवी के भारत पर 17 आक्रमण
महमूद गजनवी जन्म 2 नवम्बर 971 गजनी अफगानिस्तान, शासनावधि 997 -1030, पिता- सुबुक्तगीन, राज्याभिषेक -1002, गजनी अफगानिस्तान, मृत्य 30 अप्रैल 1030 गजनी अफगानिस्तान। |
यह सत्य है की की भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद-बिन-कासिम था। जिसने 711 ईस्वी में भारत पर आक्रमण किया। उसके आक्रमण का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह भारत की पश्चिमी सीमा तक ही आया था। परंतु उसके आक्रमण के लगभग 300 वर्ष पश्चात एक और दुर्दांत आक्रमणकारी भारत में आया जिसने भारत पर लगभग 17 बार आक्रमण किए और भारत को बुरी तरह लूटा। उसने विभिन्न मंदिरों को लूटा और लोगों कीहत्याएं कीं। उस दुर्दांत आक्रमणकारी का नाम महमूद गजनबी था। अरबों का आरंभ किया हुआ कार्य तुर्कों ने पूर्ण कर दिया। आठवीं और नवीं शताब्दियों में तुर्कों ने बगदाद के खलीफा की शक्ति हथिया ली। तुर्कों और अरबों में असमानता थी तुर्क, अरबों से अधिक क्रूर थे और उन्होंने बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार किया। वे योद्धा थे और उनमें अपार साहस था। उनका दृष्टिकोण पूर्णतः भौतिक था। वे महत्वकांक्षी भी थे। पूर्व में सैनिक साम्राज्य की स्थापना के लिए सब गुण उनमें विद्यमान थे। डॉ० लेनपूल ने तुर्कों के प्रसार को "10वीं और 11वीं शताब्दियों में मुसलमानों के साम्राज्य के लिए अद्वितीय आंदोलन का रूप दिया है।"
गजनी वंश का संस्थापक
अलप्तगीन--- अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था जिसका संबंध मुसलमानों की भारत विजय की
कहानी से है। वह असाधारण योग्यता और साहस का स्वामी था वह बुखारा के समानी
शासक अब्दुल मलिक का दास था। अपने परिश्रम से वह हजीब-उल-हज्जाब के पद पर
नियुक्त हुआ। 956 ईसवी में उसे खुरासान का शासन भार सौंप दिया गया। 962 ईसवी में अब्दुल मलिक के देहांत के पश्चात उसके भाई और चाचा में सिंहासन के लिए
युद्ध हुआ। अलप्तगीन ने उसके चाचा की सहायता की परंतु अब्दुल मलिक का भाई
मंसूर सिंहासन पाने में सफल हुआ। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन
ने अपने 800 व्यक्तिगत सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी नगर में निवास
किया। उसने मंसूर के प्रयासों को उसे गजनी से बाहर निकालने के लिए असफल
किया और इस शहर और उसके पड़ोसी भागों पर अधिकार स्थापित रखा।
महमूद गजनबी का पिता
सुबुक्तगीन द्वारा भारत पर आक्रमण--
सुबुक्तगीन एक महत्वाकांक्षी
शासक था इसलिए उसने अपना सारा ध्यान धन और मूर्ति-पूजकों से परिपूर्ण भारत की
विजय की ओर लगाया। उसकी शाही वंश के राजा जयपाल,
जिसका राज्य सरहिंद से लमगान (जलालाबाद)
और कश्मीर से मुल्तान तक था, से सबसे पहले भेंट हुई। शाही शासकों की राजधानियां क्रमशः ओंड, लाहौर और भटिंडा थीं। 986-87 ईसवी में सुबुक्तगीन ने प्रथम बार भारत की सीमा में आक्रमण किया और उसने अनेक किलों अथवा नगरों को विजय किया
"जिसमें इससे पहले विधर्मियों (हिन्दुओं) के अतिरिक्त और कोई न रहता था और जिन्हें मुसलमानों
के घोड़ों और ऊंटों ने कभी भी पददलित नहीं किया था। जयपाल यह सहन न कर
सका। वह अपनी सेना को एकत्रित कर लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहां सुबुक्तगीन और
उसके बेटे (महमूद गजनवी) से उसका सामना हुआ। युद्ध कई दिन तक होता
रहा। जयपाल की सभी योजनाएं बर्फ के तूफान के कारण असफल हुईं। उसने संधि के
लिए प्रार्थना की। सुबुक्तगीन संधि की प्रार्थना स्वीकार करने के लिए तैयार
था परंतु उसके बेटे महमूद गजनबी ने "इस्लाम और मुसलमानों के सम्मान
के लिए" युद्ध बंद न करने के लिए कहा। उसने अपने पिता को इन शब्दों में
संबोधित किया : "संधि के लिए मांग और पुकार नहीं करनी चाहिए क्योंकि आप
सर्वोच्च हैं और ईश्वर आपके साथ है,
वह कभी आपके कार्यों को असफल न होने
देगा।" अपनी प्रारंभिक पराजय के उपरांत भी जयपाल ने सुबुक्तगीन को
निम्नलिखित संदेश भेजा : "हिंदू किस प्रकार अपने प्राणों को हथेली पर रखकर
युद्ध में कूद पड़ते हैं यह तुम देख चुके हो। यदि तुम अब भी हमारे संधि के
प्रस्ताव को लूट का सामान, भेंट, हाथी और बंदी पाने की आशा में अस्वीकार करते हो तो हमारे लिए एकमात्र यही मार्ग रह जाता है कि हम दृढ़ संकल्प करके
अपनी सारी संपत्ति का नाश कर दें,
हाथियों को अंधे कर दें, अपने बच्चों को अग्नि
में फेंक दें, और खुद तलवार और भाला लेकर एक दूसरे पर आक्रमण कर दें। इसके उपरांत तुम्हारे लिए केवल पत्थर और कूड़ाकरकट, शव और बिखरी हुई
अस्थियां शेष रह जाएंगी।" यह संदेश पहुंचने पर सुबुक्तगीन ने संधि
की प्रार्थना स्वीकार कर ली। जयपाल ने भेंट में 10 लाख दरहम , 50 हाथी
और कुछ नगर और किले देना स्वीकार कर लिया। जयपाल ने अपने दो प्रतिनिधियों को
अपने वचन का पालन करने का विश्वास दिलाने के लिए सुबुक्तगीन के पास भेजना
स्वीकार किया।
जयपाल
ने जब अपने आप को संकट से निकलता देखा तो उसने सुबुक्तगीन के साथ हुई संधियों को रद्द कर दिया और सुबुक्तगीन के कुछ अधिकारियों
को बंदी बना लिया। इस बात की खबर जब सुबुक्तगीन को पहुंची तब वह जयपाल को
दंड देने के लिए वापस आ गया। उसने जयपाल के सीमा प्रदेशों को नष्ट किया और
लमगान के नगर पर अधिकार कर लिया। जब जयपाल ने देखा कि उसके सरदार गिद्धों और
बाघों का भोजन बन गए और उसकी सैनिक शक्ति लगभग खत्म होने को है तब उसने
एक बार फिर मुसलमानों से युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने 991 ईस्वी में अजमेर, कालिंजर और कन्नौज के
शासकों का एक संघ बनाया और एक लाख से भी अधिक सैनिकों को लेकर शत्रुओं का
सामना करने के लिए मैदान में पहुंच गया। भयंकर युद्ध के पश्चात अंत में
हिंदू सेनाओं को भागना पड़ा और राजा ने अपने दूरवर्ती प्रदेशों के उत्तम
वस्तुएं इस शर्त पर भेंट करनी स्वीकार की,
कि विजेता उनके सिर के मध्य के
बाल ने मुंडवाएं। सुबुक्तगीन को 200 युद्ध के हाथियों
सहित बहुत से लूट की सामग्री हाथ लगी।
जयपाल ने असंख्य भेंटे दी और
सुबुक्तगीन की अधीनता स्वीकार कर ली।
सुबुक्तगीन ने पेशावर में 10 हजार घुड़सवारों सहित अपना एक अधिकारी नियुक्त किया।
997 ईस्वी
में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई और वह अपने बेटे महमूद के लिए एक
विशाल और सुसंगठित साम्राज्य छोड़ गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि
सुबुक्तगीन एक वीर और गुणवान शासक था उसने अपने राज्य का शासन 20 वर्ष तक विवेक, सुनीति और उदारता के साथ किया।
महमूद गजनबी का जीवन परिचय
महमूद गजनबी 997-1030--- महमूद
गजनबी का जन्म 971 ईसवी में हुआ। उसके पिता का नाम सुबुक्तगीन था। उसकी
माता गजनी के पास जुबुलिस्तान के एक धनवान की कन्या थी इसलिए महमूद को जुबली
का महमूद भी कहा जाता है। महमूद को उसको पिता ने प्रत्येक विद्या में
शिक्षा देने का प्रयास किया और उसे न केवल युद्ध में बल्कि राजनीति में भी
प्रवीण बनाया।
सुबुक्तगीन
की मृत्यु के समय
महमूद के संबंध अपने पिता से अच्छे नहीं थे। इसलिए सुबुक्तगीन
ने अपने छोटे बेटे ईस्माइल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। परिणामतः
अमीरों ने ईस्माइल को सिंहासन पर बैठाया। महमूद के लिए यह स्थिति असहनीय
थी। उसने अपने भाई ईस्माइल को गजनी देकर और बलख अपने पास रख कर राज्य का
विभाजन करने के लिए आग्रह किया। ईस्माइल ने यह सुझाव अस्वीकार कर दिया।
इसलिए महमूद ने उसके विरुद्ध प्रस्थान किया और उसे पराजित करके बंदी बना लिया।
इसके उपरांत उसने बुखारा के समानी वंश के शासक को बलख और गजनी के
राज्य पर अपना अधिकार मानने की प्रार्थना की। खलीफा अल-कादिर-बिल्लाह ने
महमूद को 'सम्मान
का चोगा'
दिया और यमीन उद्दौला (अथवा साम्राज्य
की दक्षिण भुजा), अमीन-उल-मिल्लत (अथवा धर्म संरक्षक) की उपाधियों से विभूषित
किया। ऐसा कहा जाता है कि जब खलीफा ने महमूद को अपना सैनिक प्रतिनिधि नियुक्त
किया तब उसने उसे भारत के विरुद्ध प्रतिवर्ष एक अभियान का नेतृत्व करने
की आज्ञा दी। इसलिए महमूद द्वारा अधिक संख्या में अभियानों का आयोजन
करना कोई आश्चर्य की बात न थी। सर हेनरी ईलियट के अनुसार महमूद ने 17 आक्रमण किए। कुछ इतिहासकार केवल 12
की संख्या बताते हैं किंतु 17 की संख्या ही सर्वमान्य है। महमूद गजनवी प्रथम बार भारत में 1000 ईसवी
में आया। महमूद गजनबी का सेनापति मलिक अयाज
सुल्तान था।
महमूद गजनवी के भारत पर 17 आक्रमण
सन 1000
और 1026
के बीच महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए जिनका
विवरण इस प्रकार है----
1- प्रथम
आक्रमण 1000 ईस्वी-- महमूद गजनवी का प्रथम आक्रमण सीमावर्ती नगरों पर हुआ। बहुत से प्रदेशों और किलों पर उसने अधिकार कर
लिया तब महमूद गजनी लौट गया। सर वुल्जलेहेग को इस आक्रमण की सत्यता पर संदेह
है। समकालीन लेखकों ने इस आक्रमण का उल्लेख नहीं किया है।
2- द्वितीय आक्रमण -- 1000 ईस्वी--
महमूद गजनवी ने दूसरा आक्रमण भी उसी वर्ष 10
हजार घुड़सवारों सहित हिंदूकुश पर
किया उसका उद्देश्य धर्म की ध्वजा को उन्नत करना,
अपने साम्राज्य के विस्तार
को बढ़ाना, सत्यता को ज्वलंत करना और न्याय की शक्ति को सुदृढ़ करना था।
हिंदूशाही शासक जयपाल अपनी सामर्थ्य के अनुसार सेना को संगठित करके महमूद का मुकाबला करने के लिए पहुंच गया। पेशावर के निकट हुए भयंकर युद्ध में हिंदुओं की पराजय हुई। 15000
हिंदुओं
को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। उनके शवों से पृथ्वी को गलीचों की भाँति ढककर हिंसक
पशुओं और पक्षियों का भोजन बनाया गया। जयपाल अपने पुत्रों, पौत्रों, संबंधियों और कर्मचारियों सहित बंदी बना लिया गया। इतिहासकार उतबी
ने इस दृश्य का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है "उन्हें कसकर रस्सियों से
बांधकर इस प्रकार सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत किया गया जैसे कि वे दुष्कर्मी हों
और उनकी आकृति से अविश्वास के लक्षण प्रतीत होते हैं। उन्हें बांधकर नर्क में
पहुंचाया जाएगा उनमें से कुछ की भुजाएं बलपूर्वक पीठ के साथ बंधी हुई
थीं। कुछ को गर्दन पर चोट देकर खींचा जा रहा था"
जयपाल
ने एक संधि द्वारा ढाई लाख दिनार मुक्तिधन देना स्वीकार किया। उसने 50 हाथी देने का भी वचन
दिया उसके पुत्रों और पौत्रों को संधि की शर्तों को पूरा करने के
लिए बंधक के रूप में रखा गया। अपनी विजय को पूर्ण करने के लिए महमूद ने
जयपाल की राजधानी वैहन्द पर आक्रमण किया। वह लूट का अपार धन और युद्ध
में सफलता प्राप्त कर वापस लौटा।
🔴 जयपाल अपने अपमान को सहन न कर सके और
चिता बनाकर अग्नि में जल गया। 1002 ईस्वी में उसका बेटा आनंदपाल उसका उत्तराधिकारी बना।
3- तृतीय आक्रमण-- महमूद का तीसरा आक्रमण
भेरा के शासक के विरुद्ध था। उस पर
यह आरोप लगाया गया कि उसने अपने वचन के
अनुसार महमूद की सहायता न की। राजा
ने डटकर सामना किया परंतु अंत में उसे
युद्ध से भागना पड़ा। उसका पीछा होने
पर उसने आत्मघात कर लिया। असंख्य
हिंदुओं की हत्या की गई। केवल उन्हें
मुक्त किया गया जिन्होंने इस्लाम धर्म
स्वीकार कर लिया।
4- चौथा आक्रमण-- महमूद ने
चौथा आक्रमण 1006 ईस्वी में मुल्तान के शासक अब्दुल फतह दाऊद पर किया। दाऊद
करमत संप्रदाय का अनुयायी था। वह कट्टर इस्लाम को नहीं मानता था। इस
संप्रदाय ने 930 ईस्वी में मक्का पर आक्रमण करके काला प्रस्तर खंड तथा अन्य धार्मिक चिन्ह उठा लिए थे। वे निषिद्ध मांस (सूअर
आदि) खाने को बुरा न मानते थे। महमूद के लिए दाऊद को राजपूतों के समान
काफिर समझना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। महमूद ने 1006 ईस्वी
में गजनी से मुल्तान पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया। चूँकि इसका मार्ग पंजाब से
होकर जाता था इसलिए आनंदपाल ने उसका विरोध किया किंतु वह पराजित हुआ। महमूद
नें उसका कश्मीर तक पीछा करके उसे भगा दिया। सात दिन तक निरंतर युद्ध के
पश्चात महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। महमूद ने प्रजा पर उसके
पापों को क्षमा करने के लिए 20 हजार दरहम अदा करने का दंड दिया। महमूद ने जयपाल के पौत्र सुखपाल उपनाम नवासाशाह (जयपाल के पौत्र) को पंजाब और मुल्तान
का स्वामी बनाया और गजनी लौट गया।
5- कुछ समय पश्चात नावसाशाह ने महमूद की अधीनता और इस्लाम दोनों का त्याग कर दिया। परिणामस्वरूप महमूद गजनवी ने पुनः आक्रमण कर नवासाशाह उर्फ सुखपाल को पराजित कर बन्दीगृह में डाल दिया।
6- छठा आक्रमण-- महमूद का छठा आक्रमण 1008 ईस्वी में आनंदपाल के विरुद्ध हुआ। फरिश्ता के अनुसार आनंदपाल ने अजमेर, ग्वालियर, दिल्ली, उज्जैन, कालिंजर और कन्नौज के राजाओं का एक संघ बनाया था। ऐसा भी कहा जाता है कि हिंदू महिलाओं ने अपने गहने तक बेचकर तथा सोने को ढलवाकर अपने पतियों की सहायता की। डा० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में "हिन्दू सभ्यता,संस्कृति और घरों की आक्रमणों से रक्षा के लिए, धर्म और देशभक्ति से परिपूर्ण हिन्दू सेना पंक्तिबद्ध तैयार थी।" इस युद्ध में तीस हजार खोखरों नें नंगे पांव और नंगे सिर हाथों में भाले लेकर 3 से 4 हज़ार मुसलमानों का वध कर दिया। भयभीत महमूद सन्धि की सोचने लगा। दुर्भाग्य से आनंदपाल का हाथी भयभीत होकर युद्ध से भाग निकला। इस प्रकार पासा पलट गया और बाजी महमूद गजनवी के हाथ लगी असंख्य हिंदुओं को मारा गया और लूट में अमूल्य सम्पत्ति हाथ लगी।
महमूद गजनवी द्वारा नगरकोट पर आक्रमण 1009 ईस्वी
7-- महमूद गजनवी द्वारा सातवां आक्रमण-
कांगड़ा के पहाड़ी प्रदेश नगरकोट पर
किया गया। महमूद गजनबी को सूचना मिली थी
कि हिन्दुओं ने नगरकोट के किले में
बहुत सा धन एकत्रित कर रखा था।
मुसलमानों ने इस किले को घेर लिया। हिंदुओं
ने मुसलमानों की सेना के टिड्डी दल को
आते देखकर भय से किले के द्वार खोल
दिया और स्वयं बाज के सामने कबूतर के
समान अथवा बिजली के सामने वर्षा के
समान भूमि पर गिर पड़े।
फरिश्ता का यह विचार है कि महमूद 7 लाख स्वर्ण दीनार, 700 मन
चांदी के पात्र, 200 मन शुद्ध स्वर्ण मुद्राएं और दो हजार मन अपरिष्कृत
रजत और 20 मन पन्ने, हीरे, रत्न मोती आदि बहुमूल्य
मणियां लेकर लौटा।
नगरकोट की लूट का
वर्णन उतबी ने इस प्रकार किया
है-- " जितने भी ऊंट उनको मिल सके
उन पर लूट की सामग्री लादी गई और जो कुछ
शेष बचा वह अधिकारियों में बांट दिया
गया। महमूद को वहां से 70000 सरकारी
दरहम के मूल्य के टकसाली सिक्के तथा 7,00,000 दिनार
तथा 400 मन सोना मिला
था। इसके अतिरिक्त सूस (Sus) की
पोशाकें तथा वस्त्र मिले जिनके विषय में
वृद्ध कहते थे कि ऐसे बढ़िया, कोमल, कढ़े हुए वस्त्र
उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे। लूट के माल में एक सफेद चांदी का मकान भी था जो किसी
धनी का घर होगा और वह 32 गज लंबा तथा 15 गज चौड़ा था। उसको खंडित करके फिर से जोड़ा जा सकता था। इस सामग्री में सुंदर रूमी वस्त्र का बना हुआ एक
चँदोवा था जो 40 गज लंबा और 20 गज चौड़ा था और जिसे सोने और चांदी में ढाले गए स्तंभों पर रखा जा सकता था।"
इस
लूट के सामान को गजनी ले जाकर महमूद गजनबी
ने एक सार्वजनिक प्रदर्शनी लगाई और
अग्नि की भांति चमकने वाले रत्नों,
पन्ने,
मोतियों,
और हीरों और हिमखंडों में जमाई गई मदिरा
जैसी आभा वाले लालों, मरकत मणियों और भार के आकार में अनार की भांति रत्नों को देखकर लोगों की आंखें चकाचौंध हो गईं।
8-- महमूद ने आठवां आक्रमण 1010 ईस्वी
में मुल्तान पर किया और उसके विद्रोही शासक दाऊद को पराजित करके दंडित किया।
9-- पराजित होने पर भी आनंदपाल ने साहस नहीं
छोड़ा उसने शत्रु का अंत तक विरोध
करने का प्रण किया। उसने नंदनाह को अपनी
राजधानी बनाया व एक लघु सेना
एकत्रित करके साल्ट रेंज के प्रदेश में
अपनी शक्ति को मजबूत किया। त्रिलोचन
पाल अपने पिता आनंदपाल का उत्तराधिकारी
बना। 1014 ईस्वी में महमूद ने थोड़े से समय के घेरे के
बाद नंदनाह पर अधिकार कर लिया। त्रिलोचन पाल ने भागकर कश्मीर में शरण ली
महमूद ने वहां भी उसका पीछा किया और त्रिलोचन पाल और कश्मीर के शासक के
सेनापति की सेनाओं को पराजित किया महमूद ने कश्मीर में प्रवेश करना सुरक्षित
ने समझा। त्रिलोचनपाल ने भी पंजाब में ही लौट कर शिवालिक की पहाड़ियों
में अपनी शक्ति स्थापित की। बुंदेलखंड का शासक विद्याधर उस समय
उत्तरी भारत में बहुत शक्तिशाली था। त्रिलोचनपाल ने उसके साथ मित्रता स्थापित की।
इस संगठन को तोड़ने के उद्देश्य से महमूद भारत में आया और उसने रामगंगा के
निकट युद्ध में त्रिलोचनपाल को पराजित किया। 1021-22 ईसवी में त्रिलोचनपाल का वध
किया गया और उसका बेटा भीमपाल उसका उत्तराधिकारी बना। उसकी भी 1026 ईसवीमें मृत्यु हो गई और इस प्रकार उस हिंदूशाही वंश का अंत हुआ जिसने मुसलमानों
के भारत में प्रसार को रोकने के लिए अथक प्रयत्न किया।
10-- 1014 ईस्वी में महमूद ने थानेश्वर के विरुद्ध
अभियान का नेतृत्व किया हिंदू सेनाओं ने डटकर सामना किया परंतु फिर भी उनकी हार हुई।
थानेश्वर का किला अतुल लूट की सामग्री सहित महमूद के हाथ लगा। उसने शहर को लूटा
और चक्रस्वामी मंदिर की मूर्ति गजनी ले जाकर सार्वजनिक स्थान में
फेंकी गई।
वह भारतीय शासक जिसने महमूद गजनवी को पराजित किया
11-- 1015 ईस्वी में कश्मीर की लोहार वंश की शासिका
रानी दिद्दा से महमूद पराजित
हुआ (संभवतः प्रतिकूल मौसम के कारण) यह
भारत में महमूद की प्रथम पराजय थी।
12-- महमूद का अगला आक्रमक कन्नौज पर हुआ जो
कि हिंदुस्तान के साम्राज्य के
प्रसिद्ध राजधानी थी। महमूद ने 1018 ईस्वी
में गजनी से प्रस्थान किया। मार्ग में उसने उसने सब किलों पर अधिकार कर लिया।
महमूद बरन (वर्तमान बुलंदशहर) पहुंचा
वहां के शासक हरिदत्त ने अधीनता स्वीकार
कर ली और 10,000 साथियों सहित
इस्लाम स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात महमूद
ने यमुना के तट पर महावन प्रदेश के
अधिपति कुलचंद पर आक्रमण किया। महावन
वर्तमान काल में मथुरा जिले की एक
तहसील का प्रमुख स्थान है। हिंदू सेनाओं ने
वीरतापूर्वक सामना किया परंतु वे
पराजित हुए। 50000 हिंदुओं
को मारकर नदी में बहा दिया गया। कुलचंद ने सम्मान की रक्षा के लिए अपनी
दोनों पत्नियों को काट दिया और आत्महत्या कर ली। महमूद को 185 हाथी मिले और विशाल
संपत्ति हाथ लगी।
13-- मथुरा पर आक्रमण और मन्दिरों का
विध्वंस-- महमूद ने हिंदुओं के पवित्र स्थान मथुरा की ओर प्रस्थान किया। मथुरा
को सुदृढ़ तथा सब रूप में सुंदर मंदिरों का नगर कहा जाता है। उतबी ने उसका
इन शब्दों में वर्णन किया है "उसने (महमूद) आश्चर्यजनक सामग्री और निर्माण
कौशल से निर्मित एक नगर देखा जिसको देखकर दर्शक यही कहेगा कि यह कोई
स्वर्ग का भवन है। लेकिन उसके गुण या दोष नारकीय संबंध से ही संभव है
होंगे, जिनका विवरण कोई बुद्धिमान पुरुष रुचि से सुनने के लिए तैयार न होगा।
उन्होंने विशाल प्रस्तरों को एकत्रित किया है और सोपानों के ऊपर समतल आधार
भूमि बनाई है। इसके चारों और उन्होंने 1000 प्रासादों को खड़ा किया है जिनमें
उन्होंने अपनी मूर्तियां रखी हैं। नगर के मध्य भाग में एक सर्वोच्च मंदिर बनाया
गया है, जिसकी सुंदरता का वर्णन करने में लेखकों की लेखनियाँ और
चित्रकारों की कुचियाँ शक्तिहीन होंगी। इस पर एकचित ध्यान लगाने की शक्ति वे कभी
प्राप्त न कर सकेंगे। सुल्तान ने यह विचार प्रकट किए कि यदि कोई इस प्रकार के
भवन बनाने का कार्य प्रारंभ करे तो उसे 1000
दिनारों की 10 लाख थैलियां
खर्च करनीं पड़ेंगी और निपुण कार्यकर्ताओं की सहायता से वह इसे 200 वर्षों में भी पूरा न
कर पाएगा।" उतबी के वर्णन से हमें पता
चलता है कि "इन मंदिरों में शुद्ध सोने
की मूर्तियां थीं। 6 में से 5 मूर्तियां 5 क्यूबिट ऊंची थीं।
उनमें से एक पर इतनी बहुमूल्य मणियाँ जड़ी हुई थीं कि यदि सुल्तान
उसको बाजार में बिकता हुआ देखता तो पचास हजार दीनारें भी इसके वास्तविक मूल्य
से कम समझता और बड़ी खुशी से इसे मोल ले लेता। दूसरी मूर्ति पर समुद्री
आभा की भांति नीलम का एक ही इतना बड़ा ठोस टुकड़ा लगा हुआ था जिसका मूल्य मिश्क़ाल के 400 भारों जितना था।" एक अन्य मूर्ति के दोनों चरणों से उनको 4 लाख मिश्क़ाल तोले का सोना मिला। चांदी की मूर्तियां तो इनसे सौगुणी अधिक थीं। जिनको
तोलने के लिए नियुक्त लोगों को बहुत समय लगाना पड़ा। महमूद ने सारे नगर का
विध्वंस कर दिया और एक कोने से दूसरे कोने तक लूटा।
14-- वृंदावन की लूट-- वृंदावन शहर जो चारों ओर किलों से सुरक्षित था उसकी भी यही दशा हुई। नगर का राजा शत्रु के आक्रमण की सूचना पाकर भाग खड़ा हुआ। लूटमार से महमूद को अपार धन हाथ लगा।
1019 ईस्वी के जनवरी मास में महमूद कन्नौज के द्वार पर जा पहुंचा। इस नगर में 7 दुर्ग और 10,000 मंदिर थे। कन्नौज के प्रतिहार वंश के राजा ने बिना विरोध के अधीनता स्वीकार कर ली। एक ही दिन में 7 दुर्गों पर महमूद ने अपना अधिकार जमा लिया और संपूर्ण 10000 मंदिरों को नष्ट कर दिया। नगरवासियों का वध करके उनकी संपत्ति लूट ली।
लौटते समय मार्ग में पड़ने वाले मुंज, असनी और शरवा के दुर्गों के रक्षकों को
परास्त कर उसने वहां अपना अधिकार जमा लिया। इन सब आक्रमणों से महमूद को 3,00,000 मूल्य
की संपत्ति 55000 दास और 350 हाथी लूट में मिले।
15-- राज्यपाल के बिना विरोध आत्मसमर्पण
करने को अन्य राजपूतों ने कलंक समझकर उसका विरोध किया। कालिंजर के चंदेल वंश के राजा
गोंड ने सबसे पहले अपना विरोध दिखाया। गोंड ने ग्वालियर के शासक के सहयोग से
राज्यपाल को परास्त कर उसका वध कर डाला। यह सूचना मिलते हैं महमूद ने चंदेल
राजा को दंड देने का निश्चय किया। 1019
ईस्वी की हेमंत ऋतु में उसने गजनी से
प्रस्थान किया। प्रबल विरोध का सामना करते हुए उसने चंदेल राज्य में
प्रवेश किया। फरिश्ता के अनुसार "गोंड की सेना में 36800 अश्वारोही, 45000
पैदल सैनिक और 640 हाथी थे। इस विशाल
सेना को अपने विरुद्ध देखकर
महमूद ने अपने विचारणीय निर्णय पर
पश्चाताप किया और अपने साथियों के
समक्ष विजय के लिए ईश्वर से प्रार्थना
की। दुर्भाग्य से राजा गोंड सफलता की सब आशाओं को त्याग कर युद्धभूमि से भाग
गया। परिणामतः महमूद को आशा के
विपरीत सफलता मिली। लूट की बहुत सी
सामग्री प्राप्त हुयी।
16-- ग्वालियर पर आक्रमण-- 1021-22 में महमूद
ने ग्वालियर को घेर कर उसके शासक को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया।
तत्पश्चात वह चंदेल राजा गोंड के प्रसिद्ध
दुर्ग कालिंजर की ओर बढ़ा। महमूद की
शक्ति का अनुभव करके गोंड ने संधि करना
उचित समझा। बहुमूल्य लूट की सामग्री
प्राप्त करके वह गजनी लौट गया।
सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर पर आक्रमण-1025 ईस्वी
17-- महमूद का सबसे प्रसिद्ध आक्रमण 1024 ईस्वी
में सोमनाथ के मंदिर पर हुआ। 1024 ईस्वी के अक्टूबर मास में वह गजनी से चला। राजपूताना के
रेगिस्तान को पार करने के लिए अच्छी तरह तैयारियां कीं। प्रत्येक सैनिक अपने साथ 1 सप्ताह के लिए खाना-पानी और अपने घोड़े की खुराक लेकर चला। युद्ध सामग्री
के लिए 30000 ऊंट प्रयोग में लाए गए। 1025
ईस्वी के जनवरी मास में जब महमूद अन्हिलवाड़ा (गुजरात की राजधानी) में पहुंचा तो वहां का शासक राजा भीमसेन प्रथम अपने साथियों सहित
अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया। शहर में जो लोग शेष रह गए उन्हें परास्त करके
लूट लिया गया। इसके थोड़े दिन बाद महमूद सोमनाथ के द्वार पर पहुंचा।
सोमनाथ के मंदिर का रहस्य--
अल काजमीनी ने सोमनाथ के
मंदिर इस प्रकार उल्लेख किया है : "उस स्थान की आश्चर्यजनक वस्तुओं में वह मंदिर
था जिसमें सोमनाथ की मूर्ति रखी थी। यह मूर्ति मंदिर के मध्य में बिना किसी
सहारे के लटक रही थी। हिंदू इस को सम्मान की दृष्टि से देखते थे और इसको
निराधार लटकती हुई देखकर मुसलमान और सभी विधर्मी चकित रह जाते थे। हिंदू इस
मंदिर की चंद्र ग्रहण के अवसर पर यात्रा करते थे और लाखों की संख्या में
वहां पहुंचते थे। उनके विचारों के अनुसार शरीर त्यागने के बाद आत्मा यहां
एकत्रित होती हैं और वह मूर्ति अपनी अभिलाषा से पुनर्जन्म के
सिद्धांतों के अनुसार नए शरीर में स्थान देती है। समुद्र की लहरों का मूर्ति की
और उतार और चढ़ाव इस मूर्ति के लिए समुद्र की पूजा का संकेत समझा जाता था।
अमूल्य वस्तुएं यहाँ भेंट की जाती थीं और और 10,000
से अधिक गांव इस मंदिर को
मिले हुए थे। पवित्र नदी गंगा इस देश में है जिसका अंतर सोमनाथ से 200 परसंग है। प्रतिदिन इस
नदी से जल लाकर इस मंदिर को पवित्र किया
जाता था। 1000
ब्राह्मण मंदिर की पूजा तथा यात्रियों
की देखरेख के लिए नियुक्त थे और 500 सुंदरियाँ मंदिर के द्वार पर नृत्यगान
करती थीं। इनके लिए सब धन भेंट से एकत्रित होता था। मंदिर का भवन सौगान के शीशे से
जड़े हुए 56 स्तंभों पर आधारित था, मूर्ति भवन अंधकार से पूर्ण था। परंतु
अमूल्य मणिजड़ित दीपपंक्तियों में प्रकाशयुक्त रहता था। इसके निकट एक दो सौ मन
की सोने की श्रंखला स्थित थी। रात का एक पहर पूर्ण होने पर आराधना के हेतु ब्राह्मणों के नव झुण्ड को जागरूक करने के लिए यह श्रंखला घंटियों के तुल्य
हिलती हुई प्रतीत होती थी।"
सोमनाथ के मंदिर का विध्वंस
इब्न अल आथिर ने उल्लेख किया है कि
जब महमूद सोमनाथ पहुंचा तो उसने वहां के लोगों को किले की दीवारों पर
मनोरंजन करते देखा। वे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि वह मुसलमानों का वध और
नाश करके अपना कर्तव्य पूर्ण करेंगे। अगले दिन जब मुसलमानों ने किले पर
आक्रमण किया तो हिंदू दीवारों पर के स्थानों को छोड़कर भाग गए।
मुसलमानों ने दीवारों के सहारे सीढ़ियां लगाकर किले पर आरोहण करने का प्रयास किया
और उन्हें इस कार्य में सफलता मिली। जिसकी घोषणा उन्होंने अल्लाह-हू-अकबर के नारों से की। तदोपरांत भयंकर हत्याकांड आरंभ हुआ हिंदुओं के एक दल ने
तुरंत सोमनाथ की शरण ली और मूर्ति के समक्ष झुक कर अपनी विजय के लिए
प्रार्थना की। रात्रि को युद्ध स्थगित कर दिया गया। प्रातः ही मुसलमानों ने
युद्ध आरंभ किया और हिन्दुओं पर पहले से भी अधिक अत्याचार किए। परिणातः उन्होंने
अपने नगर को छोड़कर सोमनाथ के मंदिर में शरण ली। मंदिर के द्वार पर अत्यंत
क्रूर हत्याकांड हुआ। रक्षकों के कई दलों ने मंदिर में प्रवेश किया गले में
वस्त्र डालकर तथा हाथ जोड़कर संतप्त भावना से सोमनाथ से सहायता के लिए
प्रार्थना की। तत्पश्चात वे युद्ध के लिए अग्रसर होते गए और तब तक नहीं रुके
जब तक उनका वध नहीं कर दिया गया। अल्प संख्या में व्यक्ति जीवित छोड़े
गए। जीवित व्यक्तियों ने नावों द्वारा समुद्र के मार्ग से भागने का प्रयास
किया परंतु मुसलमानों ने उन्हें घेर कर उनमें से कुछ का संहार कर दिया और कुछ
को डुबो दिया।
कहा जाता है कि सोमनाथ के पतन के बाद महमूद ने मूर्ति खंडित करना चाहा। ब्राह्मणों ने किसी भी मूल्य पर उसे इस इच्छा को त्यागने की प्रार्थना की। महमूद ने उत्तर दिया कि वह "मूर्ति विक्रेता के स्थान पर मूर्तिभंजक कहलाना अधिक उचित समझता है। इस कथन का फरिश्ता ने उल्लेख किया है। परंतु प्राध्यापक हबीब और डॉक्टर नाजिम जिन्होंने आधुनिक काल में इस विषय का अध्ययन किया है इस कथन से सहमत नहीं हैं। महमूद ने मूर्ति को खंडित किया और उसके टुकड़े गजनी भेज दिए। मंदिर के कोष को लूटने से बहुत संख्या में हीरे मोती और रत्न प्राप्त हुए।
गुजरात
पर आक्रमण के समय गुजरात का शासक भीमसेन प्रथम था।
सोमनाथ
की रक्षा में सहायता करने के कारण कारण अन्हिलवाड़ा के शासक पर महमूद ने आक्रमण किया। उसने समुद्र से गिरे हुए खन्दाह के दुर्ग
में शरण ली। महमूद ने समुद्र में भाटे के समय उसे पार किया। शत्रु के आगमन
का समाचार पाते ही राजा भाग गया और देश पर शत्रुओं का अधिकार हो गया।
उन्होंने नगर में प्रवेश कर पुरुषों का वध किया और स्त्रियों को दासी बना लिया।
महमूद गजनबी का अंतिम आक्रमण
महमूद गजनबी और जाट
महमूद गजनबी का अंतिम आक्रमण नमक के पहाड़ पर बसे हुए जाटों के विरुद्ध हुआ। सोमनाथ से वापस लौटते
हुए जाटों ने महमूद की सेना को उत्पीड़ित किया था। इसलिए उन्हें दंड
देने के लिए महमूद ने उन पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के लिए 1400 नावों का जल बेड़ा
तैयार करवाया और प्रत्येक नाव में बारूद तथा नेफ्था से सजे हुए 20 धनुर्धर नियुक्त किए।
जाटों ने भी 8000 नावों का बेड़ा तैयार
किया परंतु उनकी पराजय हुई उनमें से
अनेक युद्ध में मारे गए।
राजा भोज और महमूद
भोजपुर गांव रायसेन जिले में
बेतवा नदी के किनारे बसा है, इसकी स्थापना धार के महान परमार राजा भोज(1000-105 ईस्वी)
ने की थी। इतिहाकार लेनपूल ने लिखा है
गुजरात में जब विदेशी लुटेरे महमूद
गजनबी ने सोमनाथ मंदिर
में विध्वंस किया तो यह समाचार राजा भोज
तक पहुंचने में कुछ सप्ताह लग गए।
तुर्की लेखक गरदीजी के अनुसार भोज ने इस
घटना से क्षुब्ध होकर 1026 ईस्वी
में गजनी पर हमला बोल दिया। हमला इतना
जबरदस्त था कि गजनवी सिंध के
रेगिस्तान में भाग खड़ा हुआ। किंतु उसके
बेटे सालार मसूद को मौत के घाट
उतार कर भोज ने सोमनाथ का बदला लिया। इसी
विजय की स्मृति में मालवा में
सोमनाथ की स्थापना की। मंदिर का निर्माण 1026 से
1053 ईसवी तक चला।
महमूद की मृत्यु किस प्रकार हुई
अपने अंतिम काल में महमूद गजनबी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असहनीय कष्ट पाता रहा था। अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे शारीरिक और मानसिक तनाव था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था। उसकी मृत्यु 30 अप्रैल 1030 ईस्वी में गजनी में मलेरिया के कारण हुई।
महमूद गजनबी का दरबारी कवि--
महमूद
गजनबी का दरबारी कवि फिरदौसी था। वह अमूल्य और प्रसिद्ध रचना 'शाहनामा' का लेखक था। फिरदौसी को पूर्व के 'उमर होमर' की उपाधि दी गई है।
शाहनामा ने महमूद को भी अमर कर दिया। कहा जाता है कि महमूद ने शाहनामा
लिखने के लिए 60,000 सोने के मिश्क़ाल देने का प्रण क्या परंतु शाहनामा पूरा हो जाने
पर उसने कवि को 60,000 चांदी के मिश्क़ाल देकर भेज दिया।
क्रोध में आकर कवि ने गजनी को सदा के लिए त्याग दिया। अंत में महमूद ने क्षमा मांगी और 60,000 स्वर्ण
मुद्राएं भेजी परंतु वहां पहुंचने से पहले ही फिरदौसी का शव अंतिम संस्कार के लिए ले
जाया जा रहा था। मृत्यु से पहले कवि ने महमूद की निंदा में कविता लिखी।
जिसमें उसने उसके नीच जन्म का उल्लेख किया। ब्राउन ने उस कविता का अनुवाद इस
प्रकार किया है "मैंने शाहनामा को पूरा करने के लिए लंबे समय तक परिश्रम किया,
जिससे सुल्तान मुझे उचित पुरस्कार दे। परंतु उसने खाली वचनों से मेरा हृदय शोक
और निराशा से भर दिया। यदि सुल्तान किसी प्रसिद्ध सुल्तान का पुत्र होता
तो अवश्य ही मेरे सिर पर मुकुट पहनाता। यदि वह उच्च वंश की मां का बेटा
होता तो मुझे घुटनों तक सोने और चांदी से लाद देता। परंतु जन्म से राजकुमार के स्थान
पर गंवार होकर उच्च कुल वालों की प्रशंसा वह सहन न कर सका।
फिरदौसी की कुछ प्रसिद्ध पंक्तियां इस
प्रकार थी
"अय शाह-ए-महमूद, केश्वर कुशा
जि
कसी न तरसी बतरसश खुदा"
( ऐ शाह महमूद, देशों को जीतने वाले, अगर किसी से नहीं
डरता हो तो भगवान से डर)।
अलबरूनी,
उतबी,
फारूखी,
फिरदौसी महमूद के दरबारी कवि थे।
महमूद के भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य
महमूद गजनवी का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य भारत को लूटना और इस्लाम धर्म का प्रचार करना था उसमें भी उसका प्रथम उद्देश्य धन लूटना ही था क्योंकि वह बहुत अधिक धन का लोभी था इस्लाम के धर्मांध अनुयायियों ने उसे जिहाद की प्रेरणा दी।
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