जानिए अपने सबसे प्राचीन ग्रंथों को, वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद , आरण्यक, वेदांग
भारत का प्राचीन साहित्य विश्व में सबसे प्राचीन है। 'जानिए अपने सबसे प्राचीन ग्रंथों को वेद, ब्राह्मण, उपनिषद , आरण्यक, वेदांग' जब विश्व के अधिकांश देश लेखन कला से परिचित भी नहीं थे हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि वेदों की रचना कर चुके थे यद्यपि यह पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होते रहे। हमारी आज की पीढ़ी अपने प्राचीन ग्रंथों से पूर्णतया अनभिज्ञ है। हम गर्व से हिन्दू होने दम्भ भरते हैं लेकिन हमारे प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी हिन्दू शब्द नहीं मिलता। हमारी संस्कृति हिन्दू से कहीं बढ़कर है। इस लेख में हम अपने सर्व प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करेंगे वेद, उपनिषद , आरण्यक, वेदांग आदि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें हमारे वास्तविक धर्म और संस्कृति के दर्शन होते हैं।
जानिए अपने सबसे प्राचीन ग्रंथों को, वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद , आरण्यक, वेदांग
वेद का अर्थ
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के 'विद्' से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान होना' । वेदों को हिन्दू परम्परा में 'अपौरुषेय' या ईश्वर द्वारा रचित माना जाता है। परन्तु हम तार्किक रूप से यही कह सकते हैं कि वेदों के मन्त्रों की रचना हमारे महान ऋषियों द्वारा की गयी है। जब इंडो-आर्य पंजाब के मैदानों में बसे, तब उन्होंने इन मौखिक मन्त्रों को संकलित कर पुस्तक का रूप प्रदान किया। वेदों में समय समय पर नए मन्त्रों को विभिन्न ऋषियों द्वारा जोड़ा गया। हिन्दू संस्कृति ( सनातन संस्कृति कहना ज्यादा होगा ) में वेदों का महत्पूर्ण स्थान है।
वेदों को 'श्रुति' कहा जाता है। वेदों की पवित्रता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए उसमें परिवर्तन की आज्ञा न थी। अतः उन्हें बिना समझे रट लिया जाता था और जब किसी पाठ को बिना समझे रट लिया जाय तब उसमें मन्त्रों अक्षरों को परिवर्तन करने की सम्भावना ही नहीं रहती।
वेदों का रचनाकाल
जैकोबी के अनुसार 4500-2500 ईसा पूर्व का समय वैदिक सभ्यता का युग था। डॉ० विन्टरनिट्ज का कथन है कि वैदिककाल अज्ञात युग से 500 ईसा पूर्व तक रहा। इसी प्रकार 1200-500 ईसा पूर्व, 2000-500 ईसा पूर्व आदि युगों का उल्लेख किया गया है अतः वेदों के रचना काल के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। वर्तमान शोधों से वेदों का रचना काल 1700-1000 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है
वैदिक साहित्य को तीन युगों में बांटा गया है प्रथम काल सहिंताओं का युग, द्वित्य काल ब्राह्मण-ग्रंथों का युग और तृतीय काल उपनिषदों, आरण्यकों और सूत्रों का युग।
चारों वेदों ( ऋग्वेद, यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद ) को संहिता कहा जाता है
सबसे प्राचीन वेद
ऋग्वेद-ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ है और इसीलिए उसे "मानव जाति का प्रथम विधान कहा जाता है" ऋग्वेद का रचनाकाल 1700-1200 ईसा पूर्व के बीच अनुमानित किया गया है। ऋग्वेद में किसी तरह की ऐतिहासिक सामग्री का अभाव है। यह ऋषियों द्वारा रची गयी ऋचाओं या मन्त्रों का संकलन है
विशेषताएं
ऋग्वेद में 1017 ( वालखिल्य पाठ के 11 सूक्तों सहित कुल 1028 ) सूक्त हैं।
ऋग्वेद में 10 मंडल ( अध्याय ) हैं।
सबसे पुराने सूक्त दूसरे और नौवें मंडल में हैं ( क्योंकि इनकी भाषा अन्य आठ मंडलों से भिन्न है )
प्रथम और दसवां मंडल बाद में जोड़े गए हैं
दसवें मंडल में ही वह प्रसिद्ध पुरुषसूक्त है ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र ) जो भारत में जातिप्रथा के उदय का आधार है। ( सोच सकते हैं यह किन लोगों के दिमाग की उपज है )
यजुर्वेद- यजुर्वेद एक आनुष्ठानिक वेद है। इसके अंतर्गत विभिन्न यज्ञों के लिए अलग-अलग अनुष्ठान निश्चित किये गए हैं। यह अध्वर्यु लोगों की संहिता थी जो भूमि एवं वेदी तैयार करते थे, पशु बलि अर्पित करते थे और तर्पण करते थे। इसका प्रमुख पाठ 'तैत्तिरीय' गुरुकुल द्वारा पढ़ाया जाने वाला पाठ है। बाद में 'वाजषनेई' कहे जानेवाले ऋषियों द्वारा, गाए जानेवाले सूक्तों में से व्याख्या सामग्री अलग कर दी गई और इसलिए इन्हें श्वेत ( शुक्ल ) यजुर्वेद कहा गया और दूसरे को कृष्ण यजुर्वेद कहा गया।
विशेषताएं
यह यज्ञों से संबंधित है।
यह 'शुक्ल' यजुर्वेद और 'कृष्ण' यजुर्वेद दो भागों में है।
शुक्ल यजुर्वेद में सिर्फ मन्त्र हैं।
कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ उनकी व्याख्या भी है।
यह गद्य और पद्य दोनों में है
भारतीय संगीत का मूल किस वेद में है ?
सामवेद - सामवेद को भारतीय संगीत ( गायन ) का मूल कहा जाता है। "सामन" मूल शब्द से लिए गए 'सामवेद' का अर्थ है -गीतों का संग्रह।
विशेषताएं
इसमें 1603 गीत हैं
99 गीतों को छोड़कर शेष सभी सूक्त ऋग्वेद से लिए गए हैं
सामवेद के गीत उद्गात्रि ऋषियों द्वारा सोमयज्ञ के समय गाये जाते थे।
अथर्ववेद - यह अन्य तीनों वेदों से बिलकुल अलग है और वेदों में सबसे अंतिम है। यह वेद इसलिए महत्वपूर्णएवं रुचिकर है क्योंकि इसमें निम्न वर्ग के लोगों की लोकप्रिय मान्यताओं तथा रूढ़ियों का वर्णन है।बहुत लम्बे समय तक इसे वेदों की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया था। शतपथ ब्राह्मण में केवल 'त्रयी विद्या' शब्द अर्थात ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद का उल्लेख है।
विशेषताएं
इसमें 711 अथवा 731 मन्त्र हैं
इसमें जादू-टोना, भूत-प्रेत, वशीकरण आदि से संबंधित मन्त्र हैं
यह 20 भागों में विभक्त है
वेदों की ऋचाओं को 'सूक्त' कहते हैं जिसका अर्थ है अच्छी तरह से उच्चारित किया गया।
वेदों केपश्चात् जिन ग्रंथों की रचना हुई उसे परवर्ती वैदिक साहित्य कहा जाता है इसके अंतर्गत ब्राह्मण , आरण्यक , उपनिषद और वेदांग आते हैं।
ब्राह्मण
ब्राह्मणों में वेदों की ऋचाओंकी व्याख्या प्रामाणिक रूप से की गयी है। ब्राह्मण ग्रन्थ संसार में स्तुति के प्रथम उदाहरण हैं। वे वैदक समाज के उत्तर-कालीन ब्राह्मण समाज में परिवर्तन का बोध कराते हैं। वे यज्ञों का अर्थ बताते हुए उनके अनुष्ठान की रीति बताते हैं प्रत्येक वेद से संलग्न अनेक ब्राह्मण हैं। इनकी रचना 'होत्री' अथवा 'सांख्यायन' ऋषियों ने की थी।
वेद का नाम संबंधित ब्राह्मण
ऋग्वेद ऐतरेय तथा कौषीतकी
यजुर्वेद तैत्तिरीय ( कृष्ण यजुर्वेद ) तथा शतपथ ( शुक्ल यजुर्वेद )
सामवेद पंचविश
अथर्वेद गोपथ
आरण्यक का अर्थ
आरण्यक का अर्थ है - 'वन' और इन्हें अरण्य पुस्तिकाएं इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनकी रचना मुख्यतया वनों में रहनेवाले ऋषियों एवं शिष्यों के लिए की गई थी। ये ग्रन्थ ब्राह्मणों के अंतिम अंश या उनकी प्रिशिष्टियाँ हैं इनका सम्बन्ध दार्शनिक सिद्धांतों तथा रह्स्यवाद से है अनुष्ठानों से नहीं। इनका जोर 'यज्ञ' पर न होकर 'तप' पर है। ये प्ररम्भिक काल की अनेक धार्मिक रीतियों का विरोध करते हैं
आरण्यक ग्रंथों का जोर नैतिक मूल्यों पर है।
आरण्यक तो कर्म-मार्ग , जो कि ब्राह्मणों का प्रतिपाद्य विषय है और 'ज्ञान-मार्ग, जो की उपनिषदों की विषय वस्तु है, के बीच सेतु का काम करते हैं।
ऐतरेय आरण्यक तो ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण से संबद्ध है
सांख्यायन अथवा कौषीतकी आरण्यक ऋग्वेद के कौषीतकी ब्राह्मण का अंतिम अंश हैं।
उपनिषद का अर्थ
उपनिषद शब्द की उत्पत्ति 'उपनिष' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है -किसी के निकट बैठना और इसका तात्पर्य है-अपने गुरु के निकट सीखने के लिए शिष्य का बैठना। 800-500 ईसा पूर्व के मध्य विभिन्न ऋषियों ने 108 उपनिषदों की रचना की। उनमें वृहदारण्यक , छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय तथा कौषीतकी उपनिषद प्राचीनतम हैं।
- उपनिषद प्राचीन भारतीय दार्शनिक विचारों का चरमोत्कर्ष माना जाता है।
- सत्यमेव जयते मुण्डकोपनिषद से लिया गया है
- उपनिषदों की भाषा संस्कृत न होकर शास्त्रीय या साहित्यिक संस्कृत है।
- उपनिषद कर्मकांड का विरोध करते हैं
- उपनिषदों में मोक्ष प्राप्ति के लिए तपस्या एवं आत्मसंयम को मुख्य बताया गया है।
उपनिषद पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है।
वेदांग
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष छः वेदांग हैं।
शिक्षा- उच्चारण से समन्धित
कल्प- विधि-विधान से संबंधित
व्याकरण- भाषा विधान से संबंधित
निरुक्त - शब्द व्युतपत्ति से समन्धित
छन्द - लय से संबंधित
ज्योतिष - नक्षत्र विद्या से संबंधित
उपवेद कितने हैं
- आयुर्वेद- चिकत्सा संबंधी
- धनुर्वेद - युद्ध-कौशल संबंधी
- गन्धर्ववेद - संगीत से संबंधित
- शिल्पवेद - भवन-निर्माण कला संबंधी
भारतीय दर्शन की कितनी शाखाएं हैं
भारतीय दर्शन की छः शाखाएं हैं जो वैदिक साहित्य का आवश्यक अंग हैं
न्याय, वैशेषिक , सांख्य , योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा
1- न्याय दर्शन- न्याय दर्शन के रचयिता गौतम ऋषि हैं। इसके अनुसार तर्क ही समस्त अध्ययन का आधार है। यह विज्ञानों का विज्ञानं है। ज्ञान चार उपायों से पाया जा सकता है : प्रत्यक्ष अर्थात मौलिकता, अनुमान अर्थात कल्पना , उपमा अर्थात तुलना , तथा शब्द अर्थात मौखिक प्रमाण।
2- वैशेविक दर्शन- वैशेविक दर्शन के रचयिता कणाद ऋषि हैं यह दर्शन पदार्थों से संबंधित है। पदार्थों को छः भागों में विभक्त किया गया है : द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष और समवाय। द्रव्य नौ हैं :पृथ्वी, जल, वायु, प्रकाश, काल, अंतरिक्ष, आत्मा तथा मनस। ठोस पदार्थ अणुओं से बनते हैं अणु नाशवान नहीं हैं। कणाद ने ईश्वर के विषय में कुछ नहीं कहा है।
3- सांख्य दर्शन-सांख्य दर्शन,सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष इसके रचयिता कपिल ऋषि थे। इसका आधारभूत सिद्धांत पुरुष एवं प्रकृति को पृथक मानता है। तीन गुणों से प्रकृति का विकास होता है : सत्व गुण, राजस गुण, तथा तमस गुण। केवल प्रकृति शाश्वत है। पुरुष अमर है और जीव पुनर्जन्म के बंधन में बंधे हुए हैं। सांख्य दर्शन ईश्वर में विश्वास नहीं करता। प्रकृति और पुरुष ईश्वर पर आधारित न होकर स्वतंत्र हैं।
4- योग दर्शन -योग दर्शन पतंजलि द्वारा रचित है। चित्त को एक स्थान पर केंद्रित करने अथवा योग द्वारा मनुष्य जन्म-बंधन से छूट सकता है। जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों पक्षों का ही विकास करने की चेष्टा करनी चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सात उपाय बताये गए हैं :यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि। हठ योग द्वारा शरीर को अत्यधिक कष्ट सहन करने योग्य बनाया जा सकता है। योग का अंत ध्यान तथा समाधि में होता है।
5- पूर्व मीमांसा दर्शन- इसके लेखक जैमिनी ऋषि थे। यह दर्शन रीति-नीति से संबंधित है। इसमें वेदों की महत्ता को स्वीकार किया गया है। यह भी माना गया है कि मनुष्य की आत्मा उसके शरीर, इन्द्रियों तथा ज्ञान से भिन्न है। आत्माओं की अनेकता को भी माना गया है।
6- उत्तर मीमांसा- इसके रचयिता बादरायण ऋषि थे। उन्होंने चार अध्यायों में विभक्त 555 सूत्र लिखें हैं।
निष्कर्ष
उपरोक्त ग्रंथों के अध्ययन से हम निश्चित ही धर्म और जीवन के वास्तविक रूप से परिचित होते हैं। ये सभी ग्रन्थ प्राकृतिक और भौतिक जीवन के विभिन्न तत्वों की विस्तृत व्याख्या करते हैं। अगर हम वास्तव में धर्म और जीवन के वास्तविक रूप को जानना चाहते हैं तो इन ग्रंथों का अध्ययन कर सकते हैं मगर समस्या ये है कि ये सभी ग्रन्थ संस्कृत में हैं और भारत की बहुत काम जनसँख्या संस्कृत भाषा से परिचित है। इसका कारण यह है कि प्राचीन ऋषियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ वर्ग विशेष को ही इसे हस्तांतरित किया। जिसके कारण भारत की अधिकांश जनसंख्या संस्कृत भाषा और प्राचीन ग्रंथों के ज्ञान से अनभिज्ञ रह गए।
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