मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अशोक का उत्तरदायी!
मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण 1- सम्राट अशोक की के पश्चात अयोग्य तथा निर्वल उत्तराधिकारी-- 2--प्रशासन का अतिशय केंद्रीयकरण--- 3-- राष्ट्रवादी चेतना का अभाव--- 4- सांस्कृतिक तथा आर्थिक विषमताएं---- 5-प्रांतीय शासकों के अत्याचार -
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सामान्य तौर पर अनेक विद्वान अशोक की अहिंसक नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण मानते हैं। परंतु मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी ठहरा सकते हैं---
मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण
1- सम्राट अशोक की के पश्चात अयोग्य तथा निर्वल उत्तराधिकारी--
मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी नितांत अयोग्य तथा निर्बल हुये। उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया था। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक नें स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गंधार प्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। कालिदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतंत्र राज्य हो गया था। परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अंतर्गत संगठित करता। विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था।
2--प्रशासन का अतिशय केंद्रीयकरण---
मौर्य प्रशासन में सभी महत्वपूर्ण कार्य राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे। उसे वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त था। प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी राजा के व्यक्तिगत कर्मचारी होते थे और उनकी भक्ति-भावना राष्ट्र अथवा राज्य के प्रति न होकर राजा के प्रति ही होती थी। प्रशासन में जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का प्रायः अभाव-सा था। साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा हुआ था। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई स्थान नहीं मिला था और सामान्य नागरिक सदा नियंत्रण में रहते थे। राज्य व्यक्ति के न केवल सार्वजनिक अपितु पारिवारिक जीवन में भी हस्तक्षेप करता था और वहाँ नौकरशाही के अत्याचार के लिये पर्याप्त गुंजाइश थी। ऐसी व्यवस्था में शासन की सफलता पूरी तरह सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी। अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के काल में केंद्रीय नियंत्रण शिथिल पड़ गया। ऐसी स्थिति में साम्राज्य के पदाधिकारी सम्राट के स्वयं के लिए घातक सिद्ध हुए तथा साम्राज्य का विकेंद्रीकरण होना स्वभाविक था।
3-- राष्ट्रवादी चेतना का अभाव---
मौर्य युग में राज्य अथवा राष्ट्र का सरकार के ऊपर अस्तित्व नहीं था। इस समय राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक तत्व- जैसे सामान प्रथाएं, सामान भाषा तथा समान ऐतिहासिक परंपरा, पूरे मौर्य साम्राज्य में नहीं थी। भौतिक दृष्टि से भी साम्राज्य के सभी भाग समान रूप से विकसित नहीं थे। राज्य का सरकार के ऊपर कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं समझा गया था। राजनीतिक दृष्टि से भी राष्ट्रीय एकता की भावना मौर्य युग में नहीं थी। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि यवनों का प्रतिरोध कभी भी संगठित रूप से नहीं हुआ। जब कभी भी भारत पर यवनों के आक्रमण हुए, उनका सामना स्थानीय राजाओं अथवा सरदारों द्वारा अपने अलग-अलग ढंग से किया गया। उदाहरणार्थ जब पोरस सिकंदर से युद्ध कर रहा था अथवा सुभगसेन अंतियोक्स को भेंट दे रहा था तो यह कार्य पश्चिमोत्तर भारत में पृथक शासकों की हैसियत से कर रहे थे। देश के केंद्रीय भाग के शासकों, विशेषकर पाटलिपुत्र के राजाओं से, उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली। पोरस जिसकी यूनानियों तक ने प्रशंसा की, का भारतीय स्रोतों में उल्लेख तक नहीं हुआ। चूँकि मौर्य साम्राज्य के लोगों में कोई मूलभूत राष्ट्रीय एक नहीं थी, अतः राजनीतिक विकेंद्रीकरण निश्चित ही था।
रोमिला थापर ने प्रशासन के संगठन तथा राज्य अथवा राष्ट्र की अवधारणा को ही मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है ।
4- सांस्कृतिक तथा आर्थिक विषमताएं----
विशाल मौर्य साम्राज्य में आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर की विषमता विद्यमान थी गंगा घाटी का प्रदेश अधिक समृद्ध था जबकि उत्तर दक्षिण के प्रदेशों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत कम विकसित थी । पहले भाग की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी जहां व्यापार-व्यवसाय के लिए भी उपयुक्त अवसर प्राप्त थे। दूसरे भाग में अस्थिर अर्थव्यवस्था थी, जिसमें व्यापार-वाणिज्य को बहुत कम सुविधाएं थीं। मौर्य-प्रशासन उत्तरी भाग की अर्थव्यवस्था से अधिक अच्छी तरह परिचित थे। यदि दक्षिणी क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था भी समान रूप से विकसित की गई होती तो साम्राज्य में आर्थिक सामंजस्य स्थापित हुआ होता। इसी प्रकार सांस्कृतिक स्तर की विभिन्नता भी थी। प्रमुख व्यवसायिक नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में घोर विषमता व्याप्त थी। प्रत्येक क्षेत्र की सामाजिक प्रथाएं एवं भाषाएं भिन्न-भिन्न थीं। यद्यपि अशोक ने प्राकृत भाषा का अपने अभिलेखों में प्रयोग कर उसे राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था, परंतु उत्तर-पश्चिम में यूनानी तथा अरामेईक तथा दक्षिण में तमिल भाषायें इस एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बनी रहीं। यह सभी कारण मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अवश्य ही उत्तरदायी रहे होंग।
5-प्रांतीय शासकों के अत्याचार -
मौर्य युग में साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में प्रांतीय पदाधिकारियों के जनता पर अत्याचार हुआ करते थे। इससे जनता मौर्य के शासन के विरुद्ध हो गयी। दिव्यादान में इस प्रकार के अत्याचारों का विवरण मिलता है। पहला विद्रोह तक्षशिला में बिंदुसार के काल में हुआ था तथा उसने अशोक को उसे दबाने के लिए भेजा था। अशोक के वहां पहुंचने पर तक्षशिलावासियों ने उसे बताया-- "न तो हम राजकुमार के विरोधी हैं और न राजा बिंदुसार के। किंतु दुष्ट अमात्य हम लोगों का अपमान करते हैं।"( न वयं कुमारस्य विरूद्धा: नापी राज्ञो बिन्दुसारस्य । अपितु दुष्टाः अमात्य: अस्माक परिभवं कुर्वन्ति।। --- दिव्यादान ) । हमें ज्ञात होता है कि तक्षशिला में अशोक के समय भी अमात्यों के अत्याचारों के विरुद्ध जनता का विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इसे दबाने के लिए अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को भेजा था। इसी प्रकार के अत्याचार अन्य प्रदेशों में भी हुए होंगे। लगता है कि कलिंग में भी प्रांतीय पदाधिकारियों के दुर्व्यवहार से जनता दुखी थी। अशोक अपने कलिंग लेख में न्यायाधीशों को न्याय के मामले में निष्पक्ष तथा उदार रहने का आदेश करता है। परवर्ती मौर्य शासकों में शालिशूक भी अत्याचारी कहा गया है। इन सबके फलस्वरूप जनता मौर्य शासन से घृणा करने लगी होगी तथा निर्बल राजाओं के काल में अनेक प्रांतों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी होगी।
6- करों का भारी बोझ ---
परवर्ती मौर्य युग में देश की आर्थिक स्थिति संकटग्रस्त हो गई जिसके फलस्वरूप शासकों ने अनावश्यक उपायों द्वारा करों का संग्रह किया। उन्होंने अभिनेताओं तथा गणिकाओं तक पर कर लगाये। पतंजलि ने लिखा है कि शासन अपना कोष भरने के लिए जनता की धार्मिक भावना जागृत करके धन संग्रह किया करते थे। वे छोटी-छोटी मूर्तियां बनाकर जनता के बीच बिकवाते तथा उससे धन कमाते थे। मौर्यों के पास एक अत्यंत विशाल सेना तथा अधिकारियों का बहुत बड़ा वर्ग था। सेना के रख-रखाव एवं अधिकारियों को वेतन आदि देने के लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी। यह जनता पर भारी कर लगाकर ही प्राप्त किया जा सकता था। मौर्य शासकों ने जनता पर सभी प्रकार के कर लगाये। अर्थशास्त्र में करों की एक लंबी सूची मिलती है। यदि इन्हें वस्तुतः लिया जाता हो तो अवश्य ही जनता का निर्वाह कठिन हो गया होगा। अतः इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि करो के भार से बोझिल जनता ने मौर्य शासकों को निर्बल पाकर उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो और यह जन-असंतोष साम्राज्य की एकता एवं स्थायित्व के लिए घातक सिद्ध हुआ हो। कुछ विद्वानों का यह विचार है कि अशोक द्वारा बौद्ध संघों को अत्याधिक धन दान में दिया गया जिससे राजकीय कोष खाली हो गया। अतः इसकी पूर्ति के लिए परवर्ती राजाओं ने तरह-तरह के उपायों द्वारा जनता से कर वसूल किये जिसके परिणामस्वरुप जनता का जीवन कष्टमय हो गया ।
क्या अशोक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदाई था?
अशोक का उत्तरदायित्व----
मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए कुछ विद्वानों ने अशोक की नीतियों को ही मुख्य रूप से उत्तरदायी बताया है। ऐसे विद्वानों में सर्वप्रमुख हैं महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री। शास्त्री महोदय ने अशोक की अहिंसा की नीति को ब्राह्मण-विरोधी बताया है जिसके फलस्वरूप अंत में चलकर पुष्यमित्र के नेतृत्व में ब्राह्मणों का विद्रोह हुआ तथा मौर्यवंश के समाप्ति हुई। हेमचंद्र रायचौधरी ने उसके तर्कों का विद्वतापूर्ति ढंग से खंडन करने के पश्चात यह सिद्ध कर दिया है कि अशोक की नीतियाँ किसी भी अर्थ में ब्राह्मण-विरोधी नहीं थीं। यहां हम संक्षेप में इन दोनों विद्वानों के मतों का अवलोकन करेंगे ।
पंडित शास्त्री के मतों का सारांश इस प्रकार प्रस्तुत है---
1- सम्राट अशोक द्वारा पशु बलि पर रोक लगाना ब्राह्मणों पर खुला आक्रमण था। क्योंकि वही यज्ञ कराते थे और इस रूप में मनुष्य तथा देवताओं के बीच मध्यस्थता करते थे अतः अशोक इस कार्य से उनकी शक्ति तथा सम्मान दोनों को भारी क्षति पहुँची।
2- अपने रूपनाथ के लघु शिलालेख में अशोक यह बताता है कि उसने भू-देवों ( ब्राह्मणों) को मिथ्या साबित कर दिया। यह कथन स्पष्टत: ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा के विनाश की सूचना देता है ।
3- धम्ममहामात्रों ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया ।
4- अपने पांचवें स्तंभ लेख में भी अशोक हमें बताता है कि उसने न्यायप्रशासन के क्षेत्र में "दंड समता" एवं "व्यवहार समता" का सिद्धांत लागू किया। इससे ब्राह्मणों को दंड से मुक्ति का जो विशेष अधिकार मिला था वह समाप्त हो गया ।
5- चूँकि अशोक शक्तिशाली राजा था। ब्राह्मणों को दबाकर नियंत्रण में रखे रहा। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी राजाओं तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष प्रारंभ हुआ। ब्राह्मणों ने अंत में पुष्यमित्र के नेतृत्व में संगठित होकर अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ का अंत कर दिया ।
हेमचंद्र राय चौधरी ने उपर्युक्त तर्कों का इस प्रकार खंडन किया है ---
1- अशोक की अहिंसा की नीति ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं थी। ब्राह्मण ग्रंथों में ही अहिंसा का विधान मिलता है। उपनिषद पशुबलि तथा हिंसा का विरोध करते हैं तथा यज्ञ की निंदा करते हैं। मुंडक उपनिषद में स्पष्टता कहा गया है कि "यज्ञ टूटी नौकाओं के सदृशं तथा उनमें होने वाले 18 कर्म तुक्ष हैं। जो मूढ़ लोग इन्हें श्रेय मानकर इनकी प्रशंसा करते वे बारंबार जरामृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
प्लवा होते अदृढ़ा यज्ञरूपा:,
अष्टादशोक्तर एषु कर्म ।
एतत्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मढ़ा,
जरामृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति।।--- मुण्डकोपनिषद्.
2-- शास्त्री जी ने रूपनाथ के लघु शिलालेख की पदावली का अर्थ गलत लगाया है।सिलवां लेवी ने इसका दूसरा अर्थ किया है जो व्याकरण की दृष्टि से अधिक तर्कसंगत है। इसके अनुसार इस पूरे वाक्य का अर्थ है-- भारतवासी जो पहले देवताओं से अलग थे अब देवताओं से ( अपने उन्नत नैतिक चरित्र के कारण ) मिल गये। अतः इस वाक्य में कुछ भी ब्राह्मण विरोधी नहीं है ।
3-अनेक धम्ममहामात्र ब्राह्मणों के कल्याण के लिए भी नियुक्त किए गए थे। अशोक अपने अभिलेखों में बारंबार या बलपूर्वक कहता है कि ब्राह्मणों के साथ उदार बर्ताव किया जाए। ऐसी स्थिति में यह तर्क मान्य नहीं हो सकता की धम्म-महामात्रों ओं की नियुक्ति से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची होगी ।
4--अशोक ने न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के उद्देश्य से 'दंड-समता' एवं 'व्यवहार-समता' का विधान किया था। इसका उद्देश्य यह था कि सबको सभी स्थानों पर निष्पक्ष रुप से न्याय मिल सके।
5-- इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि परवर्ती मौर्य तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ था। यह भी सत्य नहीं है कि अशोक के सभी उत्तराधिकारी बौद्ध ही थे। जालौक को राजतरंगिणी में स्पष्टता शैव तथा बौद्ध-विरोधी कहा गया है। उत्तरकालीन मौर्य सम्राटों के ब्राह्मणों के साथ अनुचित व्यवहार किया गया हो, इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है। पुष्यमित्र की सेनापति के पद पर नियुक्ति स्वयं इस बात का प्रमाण है कि प्रशासन के ऊंचे पदों पर ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी।
जहां तक पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह का प्रश्न है, इसे हम ब्राह्मण प्रतिक्रिया का प्रतीक नहीं मान सकते। सांची, भरहुत आदि स्थानों से प्राप्त कलाकृतियों से पुष्यमित्र के बौद्ध-द्रोही होने के मत का खंडन हो चुका है। पुनः यह एक बड़ा ब्राह्मण विद्रोह होता तो देश के दूसरे ब्राह्मण राजाओं से उसे अवश्य ही सहायता मिली होती। चूँकि मौर्य साम्राज्य अत्यंत निर्बल हो गया था, अतः उसे पलटने के लिए किसी बड़े विद्रोह की आवश्यकता ही नहीं थी। पुष्यमित्र द्वारा बृहद्रथ की हत्या एक सामान्य घटना थी, जिसका ब्राह्मण असंतोष, यदि कोई रहा भी हो तो उससे कोई संबंध नहीं था।
पंडित हर प्रसाद शास्त्री के मत का खंडन करने के उपरांत राय चौधरी ने स्वयमेव अशोक की शांतिवादी नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी ठहरायाहै। उनके मतानुसार अशोक की शांति और अहिंसा की नीति ने देश को सैनिक दृष्टि से अत्यंत निर्बल कर दिया और वह यवनों के आक्रमण का सामना करने में असमर्थ रहा। अशोक के उत्तराधिकारियों का पोषण शांति के वातावरण में हुआ था और उन्होंने 'भेरीघोष' के स्थान पर 'धम्मघोष' के विषय में अधिक सुना था। अशोक ने अपने पूर्वजों की दिग्विजय की नीति का परित्याग कर धम्म-विजय की नीति को अपना लिया। फलस्वरुप सैनिक अभियानों के अभाव में उनकी सेना में निष्क्रियता आ गयी तथा उसे धर्म प्रचार के काम में लगा दिया गया।
परंतु यदि उपर्युक्त मतों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाय तो वह पूर्णतया निराधार प्रतीत होंगे। अशोक यदि इतना अहिंसावादी तथा शांतिवादी होता जितना कि रायचौधरी ने समझा तो उसने अपने राज्य में मृत्युदंड बंद करा दिया होता। हम यह भी जानते हैं कि उसने कलिंग को स्वतंत्र नहीं किया और न ही उसने इस युद्ध के ऊपर कलिंग राज्य में पश्चाताप किया। एक व्यवहारिक शासक की भांति उसने इस विजय को स्वीकार किया और इस विषय पर किसी भी प्रकार की नैतिक आशंका उसे नहीं हुई। उसके अभिलेख इस मत के साक्षी हैं कि उसकी सैनिक शक्ति सुदृढ़ थी। अपने 13 वें शिलालेख में बहस सीमांत प्रदेशों के लोगों तथा जंगली जन-जातियों को स्पष्ट चेतावनी देता है कि 'जो गलती किये हैं, सम्राट उन्हें क्षमा करने का इच्छुक है, परंतु जो केवल क्षम्य है वही क्षमा किया जा सकता है।' जंगली जनजाति के लोगों को अपनी सैनिक शक्ति की याद दिलाते हुए वह कहता है 'यदि वे अपराध नहीं छोड़ेंगे तो उनकी हत्या करा दी जावेगी।' इन उल्लेखों से रायचौधरी के मत का खंडन हो जाता है। पुनः इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सैनिकों की संख्या कम कर दी हो अथवा सेना को धर्म प्रचार के काम में लगा दिया हो यदि वह अपने सैनिकों को धर्म प्रचार के काम में लगाता तो इसका उल्लेख गर्व के साथ वह अपने अभिलेखों में करता। अतः ऐसा लगता है कि अशोक ने इसलिए शांतिवादी नीति का अनुकरण किया कि उसके साम्राज्य की बाहरी सीमायें पूर्णतया सुरक्षित थीं और देश के भीतर भी शांति एवं व्यवस्था विद्यमान थी। केवल एक सबल प्रशासन के अधीन ही इतना विशाल साम्राज्य इतने अधिक दिनों तक व्यवस्थित ढंग से रखा जा सकता था। यदि अशोक सैनिक निरंकुशवाद की नीति अपनाता तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता और उस समय उसके आलोचक सैनिकवाद की आलोचना कर उसे ही साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी बताते, जैसा कि सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी आदि सैनिक सैनिकवाद के उच्च पुरोहितों के विरुद्ध आरोपित किया जाता है। अशोक के उत्तराधिकारी अयोग्य तथा निर्बल हुए तो इसमें अशोक का क्या दोष था?
निष्कर्ष
इस प्रकार समस्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हम अशोक को किसी भी प्रकार से मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। मौर्य साम्राज्य का पतन एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी जिसका उत्तरदायित्व अशोक के मत्थे मढ़ना उचित प्रतीत नहीं होता। राधाकुमुद मुखर्जी का कथन वस्तुतः अधिक सत्य प्रतीत होता है कि "यदि अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त तथा लौह की नीति का अनुसरण करता तो भी कभी न कभी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता। परंतु सभ्य संसार के एक बड़े भाग पर भारतीय संस्कृति का जो नैतिक अधिपत्य कायम हुआ, जिसके लिए अशोक ही मुख्य कारण था, शताब्दियों तक उसकी ख्याति का स्मारक बना रहा और आज लगभग दो हजार से भी अधिक वर्षों की समाप्ति के बाद भी वह पूर्णतया लुप्त नहीं हुआ।"
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