क्या भारत में आर्य किसी अन्य स्थान से आए थे? यह प्रश्न अधिकांशतः चर्चा का विषय रहता है। यह निश्चित है कि मानव सभ्यता के प्राराम्भिक काल में जब मानव सभ्यता का विकास हुआ तब किसी भी देश में सीमाओं का निर्धारण नहीं हुआ था। इसलिए लोगों में आव्रजन ऋतुनुसार हुआ और जिस देश में उन्हें अनुकूल जलवायु मिली लोग वहीं पर बसना प्रारंभ हो गए। इसी क्रम में आर्य किसी समय भारत में प्रवेश कर गए और यहां की जलवायु को अपने अनुकूल पाते ही वहां पर निवास करने लगे। इस विषय में ऋग्वेद ही एक ठोस प्रमाण है जो आर्यों की विदेशी उत्पत्ति अथवा विदेशी आगमन के विषय में स्पष्ट जानकारी देता है। आइए जानते हैं भारत में आर्यों का आगमन किस प्रकार हुआ या आर्य भारत के मूल निवासी थे?
भारत में आर्यों का आगमन किस प्रकार हुआ?
आर्यों के रक्त संबंधी पड़ोसी ईरानी 'स' का उच्चारण 'ह' से किया करते थे इसलिए सप्त-सिंधु की भूमि में आ बसे अपने भाइयों के देश को वह 'हफ्त हिंदू' कहा करते थे, जिसका ही संक्षेप 'हिन्द' हुआ। पश्चिम के देशों के उस समय के सरताज 'ग्रीस' के निवासी 'ह' का उच्चारण करने में असमर्थ हों उसकी जगह 'अ' बोलते थे, इस प्रकार हिन्दु, इन्दु या इन्द बन गया, जो ही हमारे देश का नाम आज सर्वत्र प्रचलित है। ऋग्वेद में 'सप्त-सिंधु' नाम अनेक बार आया है, कहीं वह सात नदियों के अर्थ में और कहीं सातों नदियों की भूमि के लिए प्रयुक्त हुआ है। देश या जनपद के नाम उस समय जन ( कबीले ) के नाम पर रखे जाते थे, इसलिए उसे बहुवचन में बोलते थे। यह क्रम बुद्व के समय और कितना ही पीछे तक रहा। पालि में 'कोशल में ', 'काशी में' , की जगह 'कोशलेसु' ( कोसलों में ), 'कासीसु' ( काशियों में ) कहा गया है। अपेक्षाकृत नवीन ऋषि हिरण्यस्तूप ने अपनी ऋचा में सविता ( सूर्य ) की महिमा गाते हुए कहा--- " सविता ने दाता को श्रेष्ठ रत्न ( धन ) देते सप्त-सिंधुओं को प्रकाशित किया"
"अष्टौ व्यख्यत् ककुभ: पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धुन। हिरण्याक्षः साविता देव आगाद्दघद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ।।८।। ----१।३५ ( त्रिष्टुब् )
सप्त सिंधु सातों नदियों या आर्य जनों के बारे में कुछ कहने से पहले उस स्थिति के बारे में जानना समिचीन होगा जिसमें आर्य ऋग्वेद काल में आए थे।
आर्य भारत में बाहर से आए हैं यदि यह न माना जाए, तो आर्यों की भाषा पश्चिम की जिन भाषाओं या भाषावालों से अपना एक पारिवारिक संबंध बतलाती है, उन्हें भी भारत से गया मानना होगा। इसके कारण और अनेक समस्याएं उठ खड़ी होंगी, जिनका समाधान अति कठिन है। अधिकतर यह माना जाता है कि आर्य और हिंदी-यूरोपीय भाषाओं एवं तत्संबंधी दूसरी सामग्रियों की ओर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण ही होता है। उसी के कारण हमारे इतिहासवेत्ता कलयुग और महाभारत काल की धारणा बनाकर इतिहास को हजारों वर्ष पीछे ले जाने की कोशिश करते हैं। वस्तुतः क्षुद्र - एशिया में हित्तितों, ग्रीस में यूनानियों और ईरान में ईरानी - आर्यों के प्रवेश के समय पर ध्यान देने से आर्यों का भारत में प्रवेश ईसा पूर्व 1500 से पहले ज्ञात नहीं होता है। और ऋग्वेद के पुरातनतम प्रसिद्ध ऋषि भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तो उससे बहुत पीछे, कम से कम 300 वर्ष पीछे हुए।
🔴 ऋग्वेद मण्डल ६, ७, ३ और क्रमशः भारद्वाज, वसिष्ठ, विश्वामित्र और वामदेव के मण्डल कहे जाते हैं।
ऋग्वेद के पीछे
काफी काल बीते बिना उनके उच्चारण में वह भारी परिवर्तन नहीं हो सकता, जो कि ऋग्वेद में देखा जाता है। भारतीय आर्य हिंदी-यूरोपीय वंशो की पूर्वी या शतम्-- शाखा के अंतर्गत आते हैं। जिसमें ही रूसी आदि स्लाव और ईरानी भी सम्मिलित हैं। ईरानी और स्लाव मूर्धन्य वर्णो ( टवर्ग आदि ) का उच्चारण कर नहीं सकते, जबकि ऋग्वेद की प्रथम ऋचा में ही ( 1।1।1 ) अग्निमीळे ( अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं । होतारं रत्नधातमं ।। १।। ---१।१ गायत्री .) में 'ळ'आ गया है। आर्यों के मुंह से इन मूर्धन्य वर्णों का उच्चारण सप्त-सिंधु के पुराने निवासियों-- मोहनजोदड़ो, हड़प्पा के लोगों--- के घनिष्ठ संपर्क के कारण ही हुआ। ईरानी आर्य अपने मूल स्थान 'आर्यना बेइजा' का स्मरण रखते थे, पर भारतीय आर्य उसे भूल गए थे, यह ऋग्वेद के मौन - धारण से मालूम होता है। इसमें यह भी कारण हो सकता है, कि उनका प्रसार बीच के स्थानों को छोड़कर नहीं हुआ, इसलिए उन्हें मूल-स्थान से निर्वासित होने का ख्याल नहीं हो सकता था। आखिर ऋग्वैदिक आर्यों के सबसे पश्चिम में रहने वाले पख्त, भलान आदि जन भारत के पश्चिमी द्वार खैबर और बोलान के काफी पीछे तक बसे हुए थे। उनके भी पश्चिम आर्य जन रहे होंगे, पर प्रकरण में न आ सकने के कारण ऋग्वेद के ऋषि उनका नाम-स्मरण नहीं कर सके।
हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ऋग्वेद के ऋषियों का उद्देश्य है इतिहास लिखना नहीं था बल्कि वह अपने देवताओं और दाताओं को प्रसन्न करना चाहते थे। इसी के सम्बन्ध से कितनी ही ऐतिहासिक और भौगोलिक बातें वहां आ गई हैं। इसमें शक नहीं, उन्हीं के कारण ऋग्वेद का मूल्य अनर्घ हो जाता है। उसके इस मूल्य की तुलना बाकी तीनों वेदों से भी नहीं की जा सकती, महाभारत और पुराण आदि तो इस काल के सम्बन्ध के ज्ञान में अत्यंत दरिद्र तथा अविश्वसनीय हैं। ऋग्वेद के काल पर ऋग्वेद स्वयं सर्वोपरि प्रमाण है। और कहीं जो भी उस काल के सम्बन्ध की बात ऋग्वेद के विरुद्ध आये, उसे जरा भी देर किए बिना त्याज्य समझना चाहिए। कितने ही आजकल के इतिहासविद् दोनों का समन्वय करने की कोशिश करते हैं, जिसका परिणाम एक गलती के लिए सात गलती करना होता है। दिवोदास और सुदास पिता-पुत्र ऋग्वेद के सर्वोपरि नायक हैं। वह तृत्सु-भरत जन के प्रतापी राजा थे, जिनकी सीमा पर पुरुष्णी-- आज की रावी नदी---बहती थी। सिंधु पार के रहने वाले आर्य--जन पक्थ, भलानस, अलिन, बिषाणि और उनके सिंधु इस पार के पड़ोसी शिव एक बार तृत्सुओं पर आक्रमण करने के लिए पुरुष्णी* ( ४।२२।२ )
*वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिमस्यत्रुग्रो बाहुभ्यां नृतमः शचीवान्।
श्रिये परूष्णीमुषमाण ऊर्णां यस्याः पर्वाणि सख्याय विव्ये ।।२।। ४।१२ ( त्रिष्टुब् )
के तट तक पहुंच गए थे और बड़ी कठिनाई से भगाए जा सके। पुरुष्णी तट पर रहने वाले इन राजाओं को महाभारत नें गंगा तट के पञ्चाल ( कामम्पिल्य--कन्नौज और रूहेलखंड ) का राजा बना दिया है। ऐसी ऐतिहासिक गड़बड़ी के ठीक करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। जब ऋग्वैदिक इतिहास के बारे में महाभारत की यह हालत है, तो पुराण दस कदम और आगे जाएं, तो क्या आश्चर्य है? इसका यह अर्थ नहीं, कि उनका कोई ऐतिहासिक मूल्य नहीं। पीछे के काल के बारे में यह प्रमाणित सामग्री प्रदान करते हैं, मानवतत्व आदि सम्बन्धी अनुसंधान में भी उनसे सहायता मिल सकती हैं।
ऋग्वेद का प्रमाणिक महत्व
ऋग्वेद के रूप में उस समय के सम्बन्ध की अत्यंत मूल्यवान सामग्री हमारे पास है। प्रायः 3000 वर्षों से इस निधि को हमारे पूर्वजों ने भरसक जरा-सा भी परिवर्तन किए बिना रक्षित रखा। पर यह सामग्री दिवोदास और सुदास के काल के पीछे ले जाने में असमर्थ-सी है। प्राग्-आर्य कालीन इतिहास लिखित सामग्री के बिना भले ही हो, और वह ऐसा नहीं है, क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में हजारों ऐसी मोहरें मिली हैं, जिन पर अक्षर उत्कीर्ण हैं पर हम उन्हें अभी पढ़ने में असमर्थ हैं। नागरिक स्वास्थ्य और सफाई के नियमों के पालन में वह अपने आज के उत्तराधिकारीयों ( आर्यों ) से कहीं आगे थे। वह सुंदर कपास के कपड़े पहनते थे, जबकि उनकी जगह लेने वाले आर्य गर्म देश में भी सदा ऊनी और चमड़े की पोशाक ही पहनते रहे। मोहनजोदड़ो-हड़प्पा ( सिंधु ) की सभ्यता का अंतिम उत्कर्ष काल ईसा पूर्व 2500 माना जाता है। उसके हजार वर्ष बाद आर्यों का प्रवेश उनकी भूमि में हुआ और उससे कम से कम 300 वर्ष बाद ( 1200 ईसा पूर्व ) भारद्वाज- वशिष्ठव-विश्वामित्र आदि ने अपनी ऋचाएं ( पद ) रचीं। आर्यों और सिंधु के पुराने निवासियों के संघर्ष का परिचय ऋग्वेद में देवों और असुरों के युद्ध की प्रतिध्वनि के रूप में ही मिलता है। तब से दिवोदास-सुदास के काल (ई० पू० 1200 )तक का इतिहास अन्धकारावृत है। उसके लिए हमें पुरातात्विक उत्खनन पर ही भरोसा करना पड़ेगा।
इस काल की पुरातात्विक सामग्री भी विरल ही मिल सकती है, क्योंकि भारत में प्रवेश करने वाले आर्य चाहे जौ जैसे कुछ अनाजों का नाम जानते हों, पर थे वह पशुपालक और घुमन्तू। ऐसे लोगों पर नागरिक जीवन का प्रभाव देर से पड़ता है, यह हमें चंगेजखान के मंगोलों के उदाहरण से मालूम होता है। मध्य-एशिया में भी एक सप्त-सिंधु,इलि-चु आदि सात नदियों की उपत्यकाओं में था। यही रूसी भाषा में आज का सेमि-रेच्ये ( सात नदी ) प्रदेश है, जो जान पड़ता है, प्राचीन काल में चले आते नाम का अनुवाद मात्र है। तेरहवीं सदी के प्रथम चरण में मंगोलों के आक्रमण के पहले इस प्रदेश में बहुत से समृद्ध ग्राम-नगर थे। पशुपाल मंगोलों के लिए उनका उपयोग नहीं था, इसलिए उन्होंने लोगों के खेतों को चारागाहों में बदल दिया। उस समय के यात्रियों ने कितनी ही बस्तियां देखी, जिनकी दीवारें अभी भी खड़ी थीं, उनके बाहर मंगोलों के तंबू लगे हुए थे और उनके पशु पहले के खेतों के स्थान पर बनी चारागाह में चर रहे थे। घुमन्तू आर्यों ने भी अपने विरोधियों के साथ इससे बेहतर सलूक नहीं किया होगा। मंगोलों के तम्बुओं के समूह को ओर्द ( उर्दू ) कहा जाता था। आर्य अपने निवासों के समूह को ग्राम कहते थे, जिसका अर्थ भी समूह ही है। शायद ताम्रयुग के अंतिम काल के लोगों के लिए, जिसमें कि ऋग्वैदिक आर्य रहते थे, ऊनी या सूती कपड़ों के तंबू क्षमता के बाहर के चीज थे। उस समय प्राकृतिक जंगलों से भरे देश में घास-लकड़ी की बनी झोपड़ियाँ अधिक सस्ती थीं। इनका एक यह भी लाभ था, कि यहां की वर्षा में वह तम्बुओं से अधिक उपयुक्त थीं। आखिर, सप्त-सिंधु की वर्षा मध्य-एशिया की तरह नाम मात्र की नहीं थी। ऐसी झोपड़ियों वाले प्राचीन आर्य ग्रामों के अवशेष हड़प्पा या मोहनजोदड़ो की तरह के नहीं हो सकते। तीन, साढे तीन हजार वर्षों को पार कर हमारे पास तक पहुंचने वाली उनकी सामग्री बहुत ही कम ही हो सकती है। ऐसी सामग्री पंजाब में ही मिल सकती है। दिवोदास-सुदास के काल में भी आर्य अभी नागरिक नहीं हो सके थे। उनके धन उनके अश्व और गायें ही थीं, जिनके लिए वह अपने देवताओं से प्रार्थना किया करते थे।
आर्यों के बहुत से जनों के नाम ऋग्वेद में मिलते हैं, पर जिस तरह बुद्ध-काल के सोलह जनपदों की भूमि को हम आज भी जान सकते हैं, वही बात सप्त-सिन्धु के जनपदों के बारे में नहीं है। वैदिक काल के बाद जनों के नामों को सप्त-सिन्धु की भूमि पर से जानबूझकर मिटा दिया गया। जो पाँच प्राचीन जन ( यदिन्दाग्नी यदुषु तुर्वशेबु यद् द्रुह्मष्वनुषु पूरुषु स्थ । अतः परिवृषणा वा हि यातमथा सोमस्य पिवतं सुतस्य ।। ८।।१।१०८।८ )--- पुरू, यदु , तुर्वश, अणु, द्रुह्म--- सप्त-सिन्धु के प्रधान स्वामी थे, उनका वहां फिर पता नहीं लगता। उस समय के छोटे-छोटे जनों में एक 'पख्त' जन अब भी मौजूद है, जिसके वंशज आज पख्तूनिस्तान की मांग कर रहे हैं, और जिसके कारण आजकल अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तनातनी चल रही है। दूसरे जन भलान का नाम बोलन दर्रे के साथ लगा हुआ है। उस समय पख्त इतने विशाल क्षेत्र में नहीं रहे होंगे। जनों की वृद्धि स्वभाविक संतान के द्वारा ही नहीं होती, बल्कि कभी-कभी छोटे या निर्बल जन किसी बड़े और शक्तिशाली जन में विलीन हो जाने को अपने लिए श्रेष्ठ समझ कर वैसा कर लेते हैं, यह हमें मध्य-एशिया के आवारों, तुर्कों और मंगोलों के इतिहास से मालूम होता है। सप्तसिंधु के आयोजनों में भी ऐसा ही हुआ होगा। सप्तसिंधु की नदियों के नामों में भी ऐसा देखा गया। जिस पुरूष्णी पर इंद्र (वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिमस्यत्रुग्रो बाहुभ्यां नृतमः शचीवान् । श्रिये परुष्णीमषमाण ऊर्णां यस्याः पर्वाणि सख्याय विव्ये ।।२।।--- ४।२२ ) की विशेष कृपा थी, वह आज रावी ( इरावती ) कही जाती है। असिक्नी बदल कर चिनाब ( चंद्रभागा ) हो गई। विपाट् ( विपाश् ) जिसने कभी विश्वामित्र की सुंदर स्तुति ( अतारिषुर्भरता गव्यव: समभक्त विप्रः सुमतिं नदीनां । प्र पिन्वध्वमिषयन्तीः सुराधा आ वक्षणा पृणध्वं यात शीभं ।।१२।।----३।३३ त्रिष्टुब् ) को सुनकर सुदास की सेना के लिए रास्ता दे दिया था, उसका नाम व्यास ऋषि के साथ जोड़ दिया गया है। वितस्ता अब झेलम है। हाँ , सिंधु अब भी सिंधु है। शुतुद्रि का पुराना नाम सतलुज में अब भी मौजूद है। सातवीं नदी सरस्वती अल्पपरिचित सी घग्घर की शाखा मात्र रह गई है, जो कुरुक्षेत्र से होकर बहती है। सातों नदियों को भारद्वाज ने (उत नः प्रिया प्रियासु सप्त स्वसा सुजुष्टा।सरस्वती स्तोम्या भूत् ।१०।--- ६।६१ ( गायत्री ) । ' सप्तस्वसा सरस्वती' ( सात बहने सरस्वती सरस्वती ) कहा है। सस्वती घग्घर में मिलकर उसी के नाम से कुछ दूर जा राजस्थान में लुप्त हो जाती है। उसकी सूखी धारा का पता बहुत दूर वहां तक मिलता है, जहां से चिनाब -सतलुज का संगम कुछ ही मील रह जाता है, और सिंधु बहुत दूर नहीं रह जाती। हो सकता है सरस्वती ऋग्वेद के काल में जाकर सीधे सिन्धु में मिलती हो, पर वह हिमालय की हिमानियों से निकलने वाली नदी नहीं है, जैसी कि उसकी दूसरी छः बहनें। घग्घर की तरह उसकी दोनों शाखाएं मारकण्डा और सरस्वती भी शिवालिक की तराई से निकलने-वाली छोटी नदियाँ हैं, जो वर्षा के जल को पाकर ही 2 महीने इतरा के चल सकती हैं। ऋग्वेद में तराई से निकल कर रोगिस्तान तक जाने वाली नदी का नाम सरस्वती था। जिस क्रम से तीनों नदियों के नाम सतलुज से पहले आये हैं उसेसे जान पड़ता है ( नि त्वा दधे वर आपृथिव्या इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नां। दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ।।४।।--- ४।२३) मारकण्डा का नाम आपया था, और घग्घर का दृषद्वती।
सप्त-सिन्धु की भूमि सात बहनों सरस्वती से सींची जाने वाली धरती है। इस प्रकार आर्य जनों की भूमि सरस्वती ( अंबाला जिले ) से सिंधु उपत्यका तक फैली हुई थी। ऋषित्रय में बृद्धतम भारद्वाज ने यमुना का भी नाम लिया है, पर वह सीमांत की नदी थी। अंतिम ऋषियों में से एक प्रियमेघ की संतान सिन्धुक्षित् ने (इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि सचता पुरूष्ण्या। असिक्न्या मरुद्वधे वितस्तयार्जोकीये श्रृणुह्या सुषोमया।।५।। तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसत्र्वा रसया श्वत्या त्या। त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे।।६।।-- १०।७५ ) गंगा का नाम भी दिया है। पर न वह सप्त-सिंधु की नदी थी, न उसे उस समय कोई प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यह भी उल्लेखनीय बात है, कि आज की यह सर्वपुनीत नदी अपने अनार्य ( संभवत किरात ) नाम से प्रसिद्ध है। ऋग्वेद में गंगा का नाम सिर्फ एक बार यहीं नदी-सूची में आया है। यह सूची बहुत महत्वपूर्ण है इसमें शक नहीं। इसमें गंगा से लेकर अफगानिस्तान तक के पहाड़े तक की नदियों के नाम क्रमस: पूर्व से पश्चिम की ओर बनाए गए हैं--- गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री, पुरुष्णी ( रावी), असिक्नी ( चिनाब ), मरुद्बृधा, वितस्ता ( झेलम ), आर्जिकीया, सुषोमा, तुष्टामा, रसा, श्वेत्या, सिन्धु, कुभा, गोमती, क्रमू , मेहत्नु। सुषोमा शायद रावलपिंडी की तरह से निकलन कर अटक से काफी नीचे सिन्धु में जाकर गिरने वाली छोटी नदी सोहन है। सोहन हमारे इतिहास की एक पुनीत नदी है, क्योंकि इसकी ऊपरी उपत्यका हमारे देश के उन चंद स्थानों में से है, जहां कुशालगढ़ और मक्खड में पुरापाषाण युग के मानव--चिन्ह उनके हथियारों के रूप में मिले हैं। सिन्धु के पश्चिम की कुभा ( काबुल ), क्रुम ( कुर्रम ) , गोमती ( गोमल ) की पहचान हो चुकी है।
सप्तसिन्धु किस भूमि को कहा गया है?
ऋग्वेद में सप्तसिन्धु किस क्षेत्र को वर्णित किया गया है
सप्त सिंधु की नदियों की सूची इतने से पूरी नहीं हो जाती। महर्षि विश्वामित्र के पुत्र अष्टक ( सप्तापो देवीः सुरणा अमृक्ता याभिः सिन्धुमतर इन्द्र पूर्भित । नवतिं स्रोत्या नव च स्रवन्तीर्देभ्यो गातुं मनुषे च विन्दः।।८।।----१०।१०४।।) ने सप्त-आप ( पंचआप, पंजाब नहीं ) और 99 छोटी नदियों का उल्लेख किया है। इन 99 नदिकाओं में से कुछ के नाम ऋग्वेद में निम्न हैं---- अंशुमती, अन्जसी, अनितमा, अपित, अश्मन्वती, उद्री, ऊर्णावती, लिशीकुलिशी, क्षिप्रा, देष्ट्री, पुरीषिणी, यव्यावती, रसा, विबाली, वीरपत्नी, शिफा, श्वेत्यावरी, सरयू, सीलमावती, सुवास्तु, सुसर्तु, हरियूपीया। सुवास्तु आज स्वात के नाम से प्रसिद्ध है। जिस तरह ऋग्वेद की क्षिप्रा को उज्जैन की क्षिप्रा से मिलाना निरी लालबुझक्कड़ी है, उसी तरह वहां की सरयू को पूर्वी उत्तर प्रदेश की सरजू ( घागरा ) से मिलाना उपहासास्पद है। मूल भूमि के नामों को प्रवासी अपनी नई निवास भूमि में फैलाते ही हैं, यह वृहत्तर भारत के चम्बा, कम्बोज, विदेह नामों से देखा जा सकता है। आधुनिक काल में ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, आदी में जाकर अंग्रेज प्रवासियों ने अपनी मूल- भूमि के नामों का इसी तरह प्रयोग किया है। सरयू सप्त-सिंधु की नदी थी। प्लतिसूनु गय ( सरस्वती सरयू: सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणीः। देवीरापो मातरः सूदयित्नवो घृतवत् पयो मधुमत्रो अर्चत।।९।।---१०।६४. ) ने सरस्वती सरयू और सिन्धु को देवी आप् ( दिव्य नदी ) कहा है। अपेक्षाकृत नवीन गय ने ही नहीं, बल्कि पुराने ऋषि अत्रि के पौत्र और अर्चनाना के पुत्र श्यावाश्व ने ( मा वो रसानितभा कुभा क्रुमुर्माव: सिन्धुर्नि रीरमत्। मा वः परिष्ठात् सरयू: पुरीषिण्यस्मे इत् सुम्नमंस्तु वः।।९।।---५।५३. ) क्रमशः कुभा ( काबुल ), क्रमु ( कुर्रम ), सिन्धु , सरयू और पुरीषिणीका नाम लिया है, जिससे जान पड़ता है कि सरयू पश्चिम की सप्तसिंधु कोई नदी थी। सिन्धु के बाद उल्लेख होने से हो सकता है वह सिन्धु और झेलम ( वितस्ता ) के बीच की कोई नदी हो। सरयू के पार अर्ण और चित्ररथ मारे गए थे।
यह तो निश्चित है, कि ऋग्वेद के ऋषि ( सबसे पिछले भी ) गंगा के पूर्व के किसी भू-भाग या नदी का परिचय नहीं रखते। जिस तरह महमूद गजनवी के समय से मुस्लिम शासक पंजाब को लेकर वहीं जम गये, और प्रायः दो सदियों तक पूर्व में नहीं बढ़ सके, वही बात कुछ सदियों के लिए सप्त सिन्धु के आर्यों की हुई । इस प्रकार पीश्चम में खैबर से पूर्व में यमुना के किनारे तक आर्यों का प्रभाव फैला हुआ था। उत्तर में हिमवन्त या बड़े पहाड़ उनके रास्ते को रोके हुए थे। जहाँ ही प्रतापी राजा शम्बर ने दिवोदास के छक्के छुड़ाये थे। उसके सौ पहाड़ी दुर्ग आर्यों के लिए लोहे के चने थे। कांगड़ा के प्रसिद्ध मंदिर बैजनाथ की प्रशस्ति में इस बस्ती का नाम किरग्राम लिखा है। चंबा-लाहुल से आसाम तक हिमालय के पहाड़ों में आज भी किरात भाषा-भाषियों के अवशेष मिलते हैं, जिन्हें को आजकल के वैज्ञानिक मोन्-ख्मेर कहते हैं। शम्बर इस अंचल के किरात जनों का वीर और प्रतापी नेता था। इसे पीछे की किवदन्तियों ने मानव से दानव तथा विकराल शरीर का बना दिया। इसी शम्बर को पीछे की परंपरा ने जलन्धर असुर का नाम दिया, जिससे इस पहाड़ी भू-भाग का नाम जलन्धर खंड पड़ा। कांगड़ा में उसका कान पड़ा, इसलिए उसका नाम कान-गढ़ कनगढ़ा, ( कांगड़ा ) हुआ। पहाड़ में व्यास और रावी के बीच वाले प्रदेश का राजा शम्बर था, और मैदान में इन्हीं दोनों नदियों के बीच का राजा दिवोदास, इसलिए दोनों की प्रतिद्वंदिता स्वाभाविक थी।
हिमालय और पश्चिमी सीमांत के सुलेमान ( कृष्ण गिरी ) का परिचय ऋषियों को था, पर उनके अलग-अलग भागों में केवल मुँजवत्, शर्यणावत् का ही नाम मिलता है। मुँजवत् अपने सोम ( भांग ) के लिए प्रसिद्ध था, और शर्यणावत् सुषोमा ( सोहान ) नदी के ऊपर वाले प्रदेश का नाम मालूम होता है जो आर्जिकीया के क्षेत्र में पढ़ता था।
सप्तसिंधु की दक्षिणी सीमा राजस्थान की महामरुभूमि थी। मरु को वेद में धन्व कहा गया है, पर इस महाधन्व का वहां स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता है। मध्य एशिया के घुमंतूओं की तरह आर्य व्यापार ( पण्य ) और व्यापारियों ( पणियों ) को घृणा की दृष्टि से देखते थे। पर उन्हें पता था, कि व्यापार के लिए समुद्र में नावें चलती हैं। सिन्धु उस समय नदियों का साधारण और सिंधु नदी का विशेष नाम था। अर्ण (अर्णव ) भी नदियों को कहते थे। पीछे इन शब्दों का प्रयोग समुद्र के लिए किया जाने लगा। पर महासागर को तब भी समुद्र कहते थे। सप्तसिंधु से बड़ी बड़ी नावें सिंधु नदी से होकर ही समुद्र में पहुंचती होंगी। निम्न सिंधु उपत्याका में आर्य जरूर गये। वहीं उनके प्रतिद्वंद्वियों का महान नगर था जिसके भव्य ध्वंसावशेष आज मोहनजोदड़ो के नाम से प्रसिद्ध हैं। निम्न सिंधु सप्तसिंधु के भीतर था यह कहना मुश्किल है। वहां किसी परिचित जन का बसना निश्चित नहीं मालूम होता। चाहे सप्तसिंधु के भीतर यह भाग न गिना जाता हो, पर वह ऋग्वैदिक आर्यों के अधीन था और उसके रास्ते पणन के लिए जाने वाले पणि आर्यों की नजर में हीन होते हुए भी उनके लिए पशु और अन्य से भी मार्ग धन को प्रस्तुत करते थे उनकी सहायता बिना अन्न से भी महार्घ धन। को प्रस्तुत करते थे। उनकी सहायता बिना आर्य न "निष्कग्रीव" हो सकते थे, न "रुक्मवक्ष" ( छाती पर सोना झुलाने वाले ) ।
पणि आर्यों के पुराने तथा दक्षिण दिशा के शत्रुओं में से थे, जिनके साथ के संघर्ष ऋग्वेद के समय से बहुत पूर्व समाप्त हो चुके थे। अब उनके संघर्ष जिन शत्रुओं से हो रहे थे, वह पहाड़ के निवासी अर्थात हिमवंतवासी किरात थे।
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