साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत
पूंजीवाद का प्रतिस्पर्धात्मक स्वरूप-Competitive nature of capitalism
प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद से इन नवीन एकाधिकारिक पूंजीवाद की दिशा में जो परिवर्तन हुआ उसका संकेत कई प्रवृत्तियों से मिलने लगा था। शेयर बाजार अब शेयरों की कीमत आंकने का इतना महत्व मापदंड नहीं रहा। अब इस भूमिका को एक हद तक बैंकों ने निभाना शुरू कर दिया। प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद के आर्थिक नियमों पर अनिवार्यतः एकाधिकार स्थितियों का अंकुश था। आत: पहले मुद्रा-पूंजी तथा औद्योगिकरण या उत्पादक पूंजी के बीच जो अलगाव की स्थिति थी उसमें परिवर्तन आना शुरू हो गया। उद्यमी को अब उत्पादन शुरू करने के लिए मुद्रा उधार लेने को साहूकार के पास नहीं जाना पड़ता था क्योंकि अब तो वह स्वयं ही एकाधिकारी था। इस प्रकार एकाधिकारिक पूंजीवाद के अंतर्गत बैंकिंग तथा औद्योगिक पूंजी दोनों मिलकर एक हो गए।
पहले पूंजीपति मुख्यतः वस्तुओं के निर्यात में व्यस्त थे, किंतु इस नए चरण में एकाधिकार या इजारेदार पूंजी के निर्यात में दिलचस्पी रखते थे। अतिशय लाभ से प्राप्त अधिशेष के इस्तेमाल का और तरीका ही क्या था? इसमें शक नहीं कि कुछ अन्य संभावनाएं भी थीं। वे स्वयं अपनी अर्थव्यवस्था के पिछड़े हुए क्षेत्रों, जैसे कृषि-क्षेत्र में विकास ला सकते थे। वे लोकोपयोगी कार्यों तथा सामाजिक कल्याण के साधनों में व्यापक सुधार ला सकते थे। दूसरे शब्दों में पूरे समाज को संपन्न एवं विकसित करने में इन बढ़ते हुए मुनाफों का सार्थक ढंग से उपयोग किया जा सकता था जिससे असमानताएं कम हो और न्याय तथा सुख शांति की वृद्धि हो। किंतु पूंजीवाद यदि यह सब कुछ करता तो वह पूंजीवाद ही न रहता। इसके शासन के अंतर्गत तो यह बहुत जरूरी है कि अधिशेष (surplus) पूंजी का निवेश इस रूप में किया जाए जिससे और ज्यादा पूंजी का संचयन हो।
साम्राज्यवादी देश की बैंक-शाखाओं के जरिए वित्तीय पूंजी उपनिवेशों को हस्तांतरित कर दी गई। जब देशीय लोगों ने इन बैंकों से ऋण लिया तो यह ऋण इसी शर्त पर दिया गया कि वे मशीनें या कल-पुर्जे ऋणदाता देश से ही खरीदें। उपनिवेशों से प्राप्त मुनाफा भी इन्हीं बैंकों के जरिए जाता था। इस प्रकार इस काल में औद्योगिक तथा वित्तीय प्रक्रियाएं बहुत स्पष्ट रूप से एक ही बिंदु पर मिल रही थीं।
इस मुकाम पर इजारेदारों में परस्पर समझौता हुआ और उन्होंने अपनी गतिविधियों के लिए देशीय बाजार को ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय बाजार को भी आपस में बांट लिया। इस स्थिति का नियंत्रण पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय एकाधिकार संघों और अंतरराष्ट्रीय उत्पादक संघों या सिंडिकेटों ( जो आधुनिक बहुराष्ट्रीय निगमों के पूर्वगामी हैं) का उदय हुआ।
आपसी समझौते के बावजूद भी विभिन्न इजारेदारों ने अपने प्रभाव-क्षेत्रों को सुरक्षित तथा सुदृढ़ करने की आवश्यकता महसूस की, अतः इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने-अपने देशों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे जहां भी संभव हो वहां अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित करें। इस प्रकार 1880 से लेकर 1914 तक का काल एक ऐसा युग था जब पूरे भूमंडल के विभिन्न क्षेत्रों पर कब्जा जमाने के लिए महाशक्तियों के बीच संघर्ष चला। अफ्रीका में यह संघर्ष काफी तीव्र रहा जबकि एशिया में बंटवारे की इस प्रक्रिया को व्यवस्थित रूप दिया गया।
पूंजीवादी व्यवस्था के मूल अंतर्विरोधों और साम्राज्यवाद के अंतिम ध्वंस की व्याख्या करते हुए लेनिन साम्राज्यवाद को तीन अवस्था में विभाजित करते हैं :
(क) साम्राज्यवाद की एकाधिकारी अवस्था (monoploy stage)
(ख) साम्राज्यवाद की परोपजीवी अवस्था (Parasitic stage)
(ग) साम्राज्यवाद की मरणोन्मुख अवस्था (Moribund stage )
(क) साम्राज्यवाद की एकाधिकारी अवस्था :
इस अवस्था में पूंजी का प्रतियोगिता की स्थिति से मुट्ठी-भर हाथों में संकेंद्रण हो जाता है। विशेषज्ञता, तकनीकी विकास और पूंजी के सहमेल के साथ उत्पादन कई गुना बढ़ जाता है। घरेलू बाजार में क्रयशक्ति के अभाव के कारण उत्पादों का संचरण घरेलू बाजार से बाहर की ओर होने लगता है। इसके परिणामस्वरूप दूसरे देशों का औपनिवेशीकरण आरंभ होता है। देश के भीतर प्रतियोगिता में ह्रास के कारण चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप गुणवत्ता, अनुसंधान तथा उत्पादन अधिशेष में वृद्धि के साथ ज्यादा मुनाफे प्राप्त करने में भी गिरावट आ जाती है। परिणामस्वरूप, शुद्ध-उद्योग धंधों को भी धक्का लगता है।
(ख) साम्राज्यवाद की वित्तीय अथवा परोजीवी व्यवस्था :
मिल्फेलरिंग के अनुसार महाजनी पूंजी और औद्योगिक पूंजी के संलयन के फलस्वरुप वित्तीय धनिकतंत्र (Oligarchy) का निर्माण होने लगता है। इस प्रणाली के अधीन पूंजी के स्वामित्व का, कारगर रूप में प्रतिभा के इस्तेमाल से संबंध-विच्छेद हो जाता है। यह प्रवृत्ति इस वर्ग में परोपजीविता की प्रवृत्ति विकसित कर देती है तथा इनमें से कुछ भाड़े से जीविका कमाने का चरित्र (routier character) अपना लेते हैं। यह प्रवृत्ति उनके शक्ति आधार को बहुत बड़ी सीमा तक कम कर देती है।
(ग) साम्राज्यवाद की मरणोंन्मुख अवस्था :
ऊपर बतलाए गए तथ्यों के आधार पर पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की तकनीकी प्रगति में गिरावट आने लगती है। इसी दौरान नव-औद्योगिक राष्ट्रों का उदय होता है, जो अपने अधिशेष उत्पादन के कारण कच्चे माल के नए स्रोतों और बाजारों की भी मांग करते हैं। फलस्वरूप वे उपनिवेशों के क्षेत्रीय पुनर्विभाजन की मांग करते हैं जबकि पुराने साम्राज्यवादी देश ऐसा करने में अनिच्छुक होते हैं। इस प्रकार नई और पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच एक विश्वव्यापी युद्ध अनिवार्य हो जाता है। इसके साथ ही उपनिवेशों में उत्पादन के गतिरोध तथा बढ़ती हुई बेरोजगारी के फलस्वरुप हड़ताल और मुक्ति-संग्रामों की तीव्रता में वृद्धि हो जाती है। कुछ औपनिवेशिक देशों में, जहां नई जागरूकता की वजह से मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता की संघर्ष करने की शक्ति बहुत बढ़ जाती है, पूंजीवाद की यह अवस्था समाजवादी क्रांति की ओर उन्मुख कर देती है।
इस प्रकार लेनिन ने अपने समय की अंतः- साम्राज्यवादी (inter-imperialist) प्रतिस्पर्धा पर विचार करते हुए साम्राज्यवाद के आर्थिक सार को ऊपर बताए गए ढंग से स्पष्ट किया। अपने तर्क को आगे बढ़ाते समय लेनिन का कॉट्स्की के साथ कुछ विवाद हो गया था। कॉट्स्की द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय संघ (सेकंड इंटरनेशनल 1989) के अग्रणी सिद्धांतकार थे। कॉट्स्की ने साम्राज्यवाद की व्याख्या करते हुए कहा था कि "यह अतिशय विकसित औद्योगिक पूंजीवाद की देन है।" उनके अनुसार हर औद्योगिक पूंजीवादी राष्ट्र की यह कोशिश रही है कि वह "बड़े-से-बड़े कृषि क्षेत्रों को अपने कब्जे में कर ले चाहे इन क्षेत्रों में किसी भी कौम के लोग क्यों ना रहते हो।" लेनिन ने कॉट्स्की के तर्क को एकदम अमान्य करार तो नहीं दिया किंतु उनके तर्क की मूलभूत कमजोरियों को दर्शाते हुए यह कहा कि यह साम्राज्यवाद के मूल तत्व को व्यक्त नहीं करता। पूंजी के स्वरूप तथा अंत: साम्राज्यवादी अंतर्विरोधों की व्याख्या को लेकर भी लेनिन तथा कॉट्स्की के विचारों में मतभेद था। लेनिन ने कॉट्स्की के इस विचार की भी आलोचना की कि साम्राज्यवादी प्रायः विश्व के कृषि-क्षेत्रों पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। अपने मत के समर्थन में उन्होंने बेल्जियम का उदाहरण दिया जो उन दिनों जर्मन साम्राज्यवाद का लक्ष्य था। कॉट्स्की के तर्क का खंडन करते समय लेनिन ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया कि इस विषय पर स्वयं उनके चिंतन पर ब्रिटेन के समाजवादी-उदारवादी विचारक हॉब्सन का प्रभाव है।
3: साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक संप्रदाय --- शुमपेटर के विचार
जहां हॉब्सन तथा लेनिन के साम्राज्यवाद को पूंजीवाद का परिणाम या विकास ही माना था। वहां जर्मन अर्थशास्त्री शुमपेटर ने साम्राज्यवाद की व्याख्या इस रूप में की कि यह देश की नीति के गलत दिशा में जाने का परिणाम है। जोसेफ शुमपेटर ने 1919 में 'साम्राज्यवाद का सामाजिक आधार' (सोशलॉजी ऑफ इंपिरियलिज्म) विषय पर कुछ निबंध लिखे थे जो मूलतः जर्मन भाषा में लिखे गए थे। संभव है शुमपेटर ने सीधे लेनिन के विचारों की प्रतिक्रियास्वरुप ये निबंध लिखे हों मगर इनसे लेनिन के सिद्धांतों की जानकारी का आभास नहीं मिलता। किंतु फिर भी उसने मार्क्सवाद के बारे में आमतौर से प्रचलित तत्कालीन धारणाओं का खंडन अवश्य किया। उसकी मूल धारणा यह थी कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की मूलभूत अभिधारणाओं (postulates) का विरोधी या प्रतिपक्षी है।
शुमपेटर के अनुसार साम्राज्यवाद पूर्व-पूंजीवादी युग का अवशेष है। इसकी उत्पत्ति की जड़ में तीन कारक थे :
(1) मानव जाति का युद्ध एवं विजय के प्रति सहज झुकाव;
(2) युद्धों तथा युद्धों को जन्म देने वाले साहसिक क्रियाकलापों के समाप्त हो जाने के कारण काफी समय बाद तक इन मनोवृतियों का जारी रहना;
(3) इन प्रवृत्तियों को कायम रखने में शासक वर्गों के निजी स्वार्थ;
शुमपेटर ने यह स्पष्ट किया कि पूर्व-पूंजीवादी युग में सकारण ही नहीं अकारण भी युद्ध होते थे। उसने संकेत किया कि युद्धों तथा औपनिवेशिक गतिविधियों से जिन वर्गों या व्यक्तियों को सबसे ज्यादा लाभ होता था उनके साम्राज्यवाद को जीवित रखने में, निहित स्वार्थ विकसित हो गए। लेनिन के विपरित शुमपेटर का विचार था कि साम्राज्यवाद को पूंजीवाद पर पैबंद की तरह चिपका दिया गया है ---- अर्थात वह पूंजीवाद का स्वाभाविक विकास नहीं है। उन्होंने प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद किस प्रकार हमेशा प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है और मुक्त व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए यह शांति का वातावरण कायम करना चाहता है। इस प्रकार शुमपेटर ने पूंजीवाद को उसके साम्राज्यवादी चरण से अलग करने की भरपूर कोशिश की। किंतु वे इस तथ्य को नहीं देख पाए कि पूंजीवादी देशों द्वारा चलाए जाने वाले शांति-आंदोलन युद्धों को रोकने में सफल नहीं हुए। इसके विपरित युद्ध के दौरान ही युद्ध उपकरणों के परिमाण में न केवल काफी वृद्धि हुई वरन वे और भी ज्यादा परिष्कृत होते गए। इस प्रकार शुमपेटर ने जो तर्क दिए वह साम्राज्यवाद के प्रेरक तत्वों के बारे में एक दिलचस्प मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय स्थापना हो सकती है किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से यह एक लचर व्याख्या है। इसके विपरीत लेनिन का सिद्धांत साम्राज्यवाद के इतिहास को समझने में अधिक पैनी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। किंतु साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन के सिद्धांत को अधिक सही तौर पर समझने के लिए यह बहुत जरूरी है कि इसके आर्थिक तत्व को ही नहीं वरन इसके अनेक गैरआर्थिक पहलुओं पर भी दृष्टिपात किया जाए। इसमें स्वयं लेनिन के शब्दों में "औपनिवेशिक प्रभुत्व के पुराने प्रयोजनों" के अतिरिक्त "पूर्ण प्रभुत्व" तथा साम्राज्यवाद की "गहराई तक जाने वाली जड़ें" शामिल हैं।
पहले के आक्रमणकारियों के विपरीत साम्राज्यवाद की एक व्यापक औपनिवेशिक नीति थी जिसका उद्देश्य एकाधिकार व्यापार को बढ़ावा देना था। इसके पास प्रभुत्व तथा उस प्रभुत्व को वैधता प्रदान करने के आधुनिक उपकरण थे। जो उपनिवेश प्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवादी शासन के अंतर्गत थे उनमें एक राज्य-तंत्र की स्थापना की गई। यह राज्य-तंत्र साम्राज्यवाद के निर्देशन में उपनिवेश के मामलों की देखरेख करता था। सबसे पहले सेना, पुलिस तथा नौकरशाही का गठन किया गया जिससे औपनिवेशिक शक्तियों के हर तरह के विरोध को दबाया जा सके। एशिया और अफ्रीका में इसकी कार्य पद्धति के संपूर्ण विवरण से यह पता चलता है कि यहां का राज्य-तंत्र देशीय लोगों के प्रति बड़ा शोषणात्मक रवैया अपनाता था। यह तंत्र वास्तव में साम्राज्यिक देश (metropolitan county ) की सरकार के प्रति उत्तरदायी था और प्रायः अपने देश की संसद से वैधता (legitimacy) प्राप्त कर लेता था। किंतु शासन के मामलों में औपनिवेशिक जनता की कोई आवाज नहीं थी।
स्थानीय संस्थाओं पर औपनिवेशिक शासन के थोपे जाने से ये संस्थाएं नष्ट हो गईं। धीरे-धीरे नौकरशाही, पुलिस तथा अदालत-- जैसी औपनिवेशिक संस्थाएं इतनी व्यापक हो गईं कि स्थानीय लोगों को यह समझाया गया कि वे बहुत जरूरी हैं और उनके बिना उनका काम नहीं चल सकता। समाज की कई नई उभरती हुई शक्तियों ने उनमें निहित स्वार्थों को जन्म दिया। अंत में जब स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो स्वतंत्र लोगों ने यह पाया कि वे उन्हीं औपनिवेशिक संस्थाओं के भार तले दबे हुए हैं और उन्हें यह पता नहीं है कि उनके स्थान पर नई संस्थाओं को कैसे लाएं।
आधुनिक साम्राज्यवाद में यूरोप की औद्योगिक क्रांति का तेज तथा इससे जुड़े हुए विज्ञान तथा तर्क के मूल्य महत्वपूर्ण थे। इसलिए साम्राज्यवादी यह चाहते थे कि उनका शासन स्थानीय लोगों को स्वीकार्य हो। उनकी वैधीकरण की नीति हर उदाहरण में अलग-अलग थी। चीन जैसे और अर्ध-उनिवेशों में उन्होंने पश्चिमी शिक्षा का इतना प्रचार-प्रसार नहीं किया जितना अंग्रेजों ने अपने उपनिवेश भारत में किया। भारत में शिक्षा नीति का उद्देश्य केवल पूंजीवाद तथा उदारवादी मूल्यों के प्रति सराहना का भाव उत्पन्न करना नहीं था वरन पढ़े लिखे लोगों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन की पूरी निष्ठा के साथ सेवा कर सकें। इस विषय में मैकाले का प्रसिद्ध कथन इस बात का परिचायक है कि एक कुशल औपनिवेशिक नीति कैसे कैसी होनी चाहिए।
औपनिवेशिक काल के दौरान कृषि का इतना असंतुलित विकास हुआ कि अकाल तथा भुखमरी जैसी घटनाएं आम बात हो गईं। खाद्यान्नों के अंतर्गत शहरों में भेजने तथा कमी वाले उपनिवेश में उसके निर्यात करने को अधिक प्राथमिकता दी गई। गांवों में खाद्यान्नों की पूर्ति को उतना महत्व नहीं दिया गया।
साम्राज्यवादी एक उपनिवेश से दूसरे उपनिवेश के बीच व्यापार इसलिए करते थे कि जिससे स्वदेश में पूंजी का संग्रह किया जा सके। चीन को भारतीय अफीम का निर्यात और अफीम के व्यापार को सुनिश्चित बनाने के लिए चीन के साथ साम्राज्यवादी युद्ध आज सर्वविदित है। इसी प्रकार बागान, उत्खनन, विनिर्माण तथा इसी तरह के अन्य उद्देश्यों के लिए श्रमिकों का देश के अंदर तथा अन्य देशों को प्रवासन स्थानांतरण (migration ) औपनिवेशिक शोषण की एक अन्य पद्धति थी।
इस प्रकार पश्चिम के एकाधिकार पूंजीवाद की जरूरतों को पूरा करने के लिए उपनिवेशन को एक प्रकार के विउद्योगिकरण (deindustrialization) की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ा, अतः औपनिवेशिक काल का अंतिम परिणाम था अल्पविकास की संरचना। यूरोपिय साम्राज्यवाद में एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों की दो शताब्दियों तक जो लूट जारी रखी समकालीन अल्प विकास उसी का परिणाम है। उत्तर-औपनिवेशिक समाज अब इस अल्पविकास पर विजय पाने के लिए जूझ रहे हैं।
हर घातक अनुभव अपने पीछे ऐसी प्रक्रिया छोड़ देता है जिनके कुछ सकारात्मक पहलू होते हैं। उस अनुभव से हानि उठाने वाले इन ही सकारात्मक पहलुओं को सामने रखते हैं जिससे वे कुछ नया बना सकें---नव-निर्माण कर सकें। यह ठीक है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने भारतीय चेतना पर प्रहार किया, इसकी संस्थाओं को तहस-नहस किया, लोगों को पशुओं-जैसा बना दिया, किंतु इसमें एक अवरुद्ध पूर्व-पूंजीवादी समाज को भंग भी किया। इसी उथल-पुथल से आधुनिकीकरण की अनेक प्रक्रियाओं का जन्म हुआ। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में अंग्रेजों ने भारत के कुछ क्षेत्रों में एक हद तक औद्योगिकरण को लाना अधिक लाभदायक समझा। स्वयं अपने व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने जिस यातायात तथा शिक्षा-संबंधी आधारिक संरचना (inrastructure) का निर्माण किया था। उसका उपयोग कुछ अन्य बड़े उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी किया जा सकता था, जैसे एक अखिल भारतीय संचार- प्रणाली का निर्माण या राष्ट्रवादी तथा लोकतांत्रिक विचारों का प्रचार-प्रसार। किंतु यह तो औपनिवेशिक युग के अनुषंगिक लाभ थे और साम्राज्यवाद से उपनिवेश के लोगों को जितनी भारी, व्यापक तथा आधारभूत हानि हुई उसकी तुलना में यह बहुत कम थे।
समकालीन आयाम और लेनिन के सिद्धांत का मूल्यांकन
साम्राज्यवाद को लेकर समसामयिक युग में जो चर्चा हुई है उस में मुख्यता है चार बातों को केंद्र में रखा गया है :---
(1) लेनिन के सिद्धांत की वैधता;
(2) नव उपनिवेशवाद के लक्षणों का निरूपण;
(3) सामाजिक साम्राज्यवाद की अवधारणा और
(4) आंतरिक उपनिवेशवाद;
हम इनका संक्षेप में विवेचन करेंगे। जहां लेनिन के अधिकतर बुर्जुआ आलोचकों ने शुमपेटर की विचारधारा को अपनाया वहां कुछ अन्य लेनिन की आंशिक प्रसंगिकता स्वीकार करते हुए यह मत व्यक्त करते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवाद के आंतरिक एवं बाह्य दोनों दृश्यों से अपने आप को काफी हद तक पुनर्गठित किया है। अपने देशों में इसने और अधिक मात्रा में कल्याणकारी कार्य अपने हाथ में लिए हैं और बड़े योजनाबद्ध ढंग से रोजगार के लिए अवसर पैदा करने तथा लोगों में गतिशीलता लाने का काम किया है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पूंजीवाद द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय व्यवस्थाओं द्वारा विभिन्न राष्ट्रों में स्वैच्छिक समझौतों के माध्यम से कार्यशील है। इस प्रकार पूंजीवाद अपने आचरण से भी सफलतापूर्वक आगे निकल गया है जिसे लेने ने पूंजीवाद का उच्चतम चरण या साम्राज्यवादी चरण कहा था।
इस तर्क में कुछ हत्या का अंत हो सकता है कि आंतरिक एवं बाह्य दोनों दृष्टि में पूंजीवाद के स्वरूप में मौलिक परिवर्तन आए हैं किंतु किसी भी दृष्टि से उनके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। आंतरिक तौर पर इजारेदारों का प्रभुत्व अब भी उसी तरह कायम है और पूंजी संचयन को अब भी मानदंड (norm) माना जाता है। बाहरी तौर पर पूंजी-निर्यात के पीछे हालांकि कोई सैनिक समर्थन नहीं है, फिर भी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली असमान विनिमय का अत्यंत सशक्त ढांचा प्रस्तुत करती है जिसमें एक ओर विकसित औद्योगिक देश हैं जो प्रायः बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से कार्य करते हैं और दूसरी और उत्तर-औपनिवेशिक समाज। इसलिए वर्तमान युग में भी लेनिन का सिद्धान्त प्रासंगिक है।
कुछ मार्क्सवादी विचारकों, जैसे हैरी मैगडफ़, ने यह तर्क दिया है कि लेनिन का सिद्धांत जहां एकाधिकारिक पूंजीवाद वाले युग पर सबसे ज्यादा लागू होता है वहां इसके आधार पर पुराने अर्थात औद्योगिक क्रांति से पहले के साम्राज्यवाद को समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। न ही विउपनिवेशीकरण (decolonization) तथा नव-उपनिवेशवाद (neocolonialism) के युग पर इसे यांत्रिक ढंग से लागू करना चाहिए। कुछ विद्वानों ने यह सुझाव भी दिया है कि लेनिन का विश्लेषण साम्राज्यिक शक्ति (metropolitan power) पर अधिक प्रकार डालता है और उसमें उपनिवशों के अंतर्विरोधों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है। वास्तव में लेनिन ने अपने निबंध के क्षेत्र तथा केंद्रबिंदु को इन्हीं शब्दों में परिभाषित किया है और औपनिवेशिक समस्या से जुड़े अन्य पहलुओं पर विस्तार से विचार किया है। इसलिए लेनिन की मूल अवधारणा (thesis) , जिसके अनुसार साम्राज्यवाद पूंजीवाद का चरम रूप है, समय की कसौटी पर खरी उतरी है।
जहां तक नव उपनिवेशवाद का प्रश्न है, सारी चर्चा दो विचारधाराओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि संसार के विभिन्न भागों में विश्व पूंजीवादी प्रणाली द्वारा शोषण की प्रक्रिया अभी जारी है। इस प्रणाली का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका के हाथ में है और इसके प्रमुख केंद्र पश्चिमी यूरोप में हैं। उत्तर- औपनिवेशिक समाजों में इस साम्राज्यवाद के प्रति विभिन्न मात्राओं में विरोध की भावना मौजूद है। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के कुछ देशों में बुर्जुआ वर्ग के प्रगतिशील तत्वों ने अपनी स्वतंत्रता को कायम रखा है किंतु उनके देशों को इस शोषण से सुरक्षित नहीं माना जा सकता। दूसरी विचारधारा यह मानती है कि केंद्र में कुछ पूंजीवादी राज्य या पूंजीवादी देश हैं जिनकी औद्योगिक शक्ति काफी विकसित है और परिधि (periphery) पर तीसरी दुनिया के पूंजीवादी देश हैं जहां पूँजीवादी केंद्र (capitalist core) ने उनका साथ देने वाले बुर्जुआ या मध्य वर्ग का पोषण किया है किंतु इस मध्य वर्ग को भी अपने देश के अंदर ही मजदूर वर्गों तथा उभरते हुए राष्ट्रीय बुर्जुआ का वर्ग का विरोध सहना पड़ा है।
वर्तमान विश्व परिस्थिति को चाहे हम विश्व पूंजीवादी प्रणाली बनाम स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखें या उस पर पूंजीवादी केंद्र तथा पूंजीवादी परिधि के रूप में विचार करें, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह नव-उपनिवेशवाद की तस्वीर है। प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत कुछ देश जिनके पास भारी मात्रा में पूंजी है विश्व अर्थव्यवस्था के ढांचे पर अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और ऐसी युक्ति अपनाते हैं जिससे एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों से कच्चा माल प्राप्त कर सकें और वहां के बाजार में तैयार माल बेच सकें। यह नव- उपनिवेशवाद इसलिए है कि यह विदेशियों द्वारा लोगों के स्वनिर्णय के अधिकार के हनन का एक नया रूप है तथा यह देश की श्रेष्ठता और उसके पूंजीगत बल पर आधारित है। इस संदर्भ में यह बहुत जरूरी है कि पहले हम लेनिन के सिद्धांत को फिर से मान्यता दें जिसने आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के आधार को स्पष्ट किया जा सके। किंतु साथ ही हम विश्लेषण के नए साधन भी विकसित करें जिससे हम बहुराष्ट्रीय निगमों के स्वरूप को समझ सकें और यह पता लगा सकें कि स्वतंत्र राष्ट्रीय शासन प्रणालियों में--- जिनमें समाजवादी शासन प्रणाली भी शामिल हैं---- इन्हें स्वेच्छा से क्यों आमंत्रित किया जाता है। यहां हमें यह नए सिरे से यह भी समझना होगा कि एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों में पूंजीवाद का असमान विकास क्यों हुआ क्योंकि इस समाज के माध्यम से हमें बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ उनके संबंध को समझने में मदद मिलेगी।
आज एक और समस्या भी हमारे सामने है और वह यह है कि समाजवादी साम्यवादी शासन वाले देशों के औपनिवेशिक कदमों की व्याख्या कैसे की जाए। 1968 में चीन के साम्यवादियों ने, चेकोस्लोवाकिया में रूस के हस्तक्षेप की निंदा करने के लिए लेनिन द्वारा प्रतिपादित सामाजिक साम्राज्यवाद विषय पर अपने निबंध के नवे खंड में यूरोप के सामाजिक लोकतंत्रवादियों (social democrats ) की भर्त्सना करते हुए कहा था कि "वे सिद्धांत में तो समाजवादी है किंतु व्यवहार में साम्राज्यवादी।" सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के विश्व भर के आलोचक सन 1968 से सोवियत रूस की आलोचना के लिए इसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन के साम्यवादी दल ने यह तर्क दिया कि रूस से पूंजीवाद की वापसी हो गई है और इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उन्होंने सामाजिक साम्राज्यवादी रुख अख्तियार कर लिया है। माओ के बाद चीन में जब नवीन नेतृत्व नें सांस्कृतिक क्रांति की अनेक सैद्धांतिक स्थापनाओं का खंडन किया तो उन्होंने 1979 के मध्य में सोवियत रूस के संदर्भ में शब्दावली का व्यवहार करना बंद कर दिया और सोवियत प्रभुत्ववादी (Soviet Hegemonists ) कहकर उनकी ओर संकेत किया। किंतु चीन में सियाओं-पिंग और रुस में माईखेल गोरबाचोव के शक्ति में आने के पश्चात स्थिति में काफी परिवर्तन आया, जैसे अफगानिस्तान से रूसी और कम्पूचिया से वियतनामी फौजों की वापसी तथा रूस और पूर्वी यूरोप में प्रजातंत्र आंदोलन आदि। रूस-चीन संबंधों में सुधार के पश्चात इस शब्द का प्रयोग अब नहीं हो रहा है।
सामाजिक साम्राज्यवाद की अवधारणा के बारे में अनेक सैद्धांतिक पहलुओं का कोई भी हल प्राप्त नहीं हुआ है। जब किसी समाज में उत्पादन के साधनों पर पूरे समाज का स्वामित्व हो और जन-कल्याण के क्षेत्र में नियमित प्रगति दिखाई दे, तो क्या इसे पूंजीवाद की वापसी कहा जा सकता है? किंतु दूसरी ओर ऐसे प्रमाण हैं जो यह संकेत करते हैं कि सोवियत प्रणाली में दिनोंदिन नौकरशाही का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है और उसका स्वरूप विशिष्ट-वर्गीय (elitist) होता जा रहा है, मजदूरों में पराएपन (alienation) की भावना और बढ़ी है, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में असंतुलन अब भी चले आ रहे हैं और उपभोक्तावाद ( consumerism) पर आधारित आचरण का देश इन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। स्वयं चीन में भी अब ये समस्याएं उभर रही हैं और कई वामपंथी विचारकों के मत यहां भी पूंजीवाद की वापसी हो रही है। रूस में माईखेल गरबाचोक के नए आर्थिक और राजनैतिक सुधारों और खुला परिवेश (glasnost) के जरिए इन कमजोरियों को दूर करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
और भी खराब बात यह है कि राष्ट्र को स्वतंत्रता दिलाने वाले नेता अपने ही देश की सीमाओं के अंतर्गत बसी छोटी जातीयताओं को प्राय: आत्म-निर्णय का अधिकार देना भूल गए हैं। एक व्यापक तथा नव विकसित राज्य-तंत्र की सहायता से ये नवीन शासन- प्रणालियों, जिन्हें बढ़ते हुए बुर्जुआ तथा मध्य वर्ग का समर्थन मिला होता है, नृजातीय भाषाई तथा अपने से नीचे के इसी तरह के अन्य समूहों पर केंद्रित सत्ता को बलपूर्वक लागू करती हैं। भारत जैसे देश के अनेक क्षेत्रों में व्याप्त आर्थिक पिछड़ापन, इन गरीब जातीय समूहों को, राष्ट्र के अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकास के निम्न स्तर पर रखता है। इस तत्व को कभी-कभी आंतरिक उप-निवेशवाद का नाम दिया जाता है। झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा कश्मीर के लोग आत्मनिर्णय तथा विकास के अधिक अवसर चाहते हैं। इसी प्रकार नागा, मिजो और सिक्खों की भी यही आकांक्षा है। अब तो रूस में भी नृजातीय स्वायत्तता के लिए संघर्ष चल रहा है। ये राष्ट्र जब तक ऐसे स्वशासी लोगों के शैक्षिक संघों का रूप ग्रहण नहीं कर लेते, जो मिल-जुलकर एक सही समाज के निर्णय में योगदान देने को तैयार हों, तब तक उनके केंद्रीय शासन का स्वरूप शोषणात्मक और उनका देश कमजोर बना रहेगा। किंतु जातीयता आंदोलन नेशनल मूवमेंट केबल उपनिवेश विरोधी ही नहीं सामंत विरोधी भी होता है। जब तक यह सामंत- विरोधी नहीं है, तब तक यह सामाजिक क्रांति के कार्यक्रम का अंग नहीं है तब तक औपनिवेशिक शोषण का सामाजिक-आर्थिक आधार कायम रहेगा और केवल पुराने शासकों के स्थान पर नए शासक आते रहेंगे जैसा कि हाल के दशकों में कई उदाहरणों में ऐसा हुआ है। लेनिन के सिद्धांत का यह आशय और है।
इसके साथ ही इस बात की समीक्षा भी जरूरी है कि क्या राजनीतिक सीमाएँ निर्धारित हो जाने से आत्मनिर्णय की गारंटी भी मिल जाएगी। यहां हो सकता है हमें लेनिन के सिद्धांत का पुनार्विश्लेषण करना पड़े जिससे किसी राष्ट्र की राजनीतिक सीमा की आवश्यकता का उससे जुड़ी हुई सामाजिक क्रांति के साथ तालमेल बिठाना जरूरी हो। एक बार ऐसा हो जाने पर स्थिति खुद ही निर्धारित कर देगी कि राष्ट्रीय मुक्ति तथा आत्मनिर्णय का स्वरूप क्या हो। --------भाग एक का अध्ययन करने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें👉for reading part 1 click here
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