मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था

       मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए


      संपूर्ण प्राचीन विश्व में मौर्य साम्राज्य विशालतम साम्राज्य था और इसने पहली बार एक नए प्रकार की शासन व्यवस्था अर्थात केंद्रीयभूत शासन व्यवस्था की स्थापना की। अशोक के शासनकाल में यह केंद्रीय शासन व्यवस्था पितृवत निरंकुश तंत्र में परिवर्तित हो गई। अशोक ने अपने इस पितृवत दृष्टिकोण को इस कथन के द्वारा व्यक्त किया है कि "समस्त मनुष्य मेरी संतान हैं" यह कथन प्रजा के प्रति अशोक के दृष्टिकोण को व्यक्त करने वाला आदर्श वाक्य बन गया था।

 राजा का स्थान- 

मौर्य राजा अपनी दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं करते थे फिर भी उन्हें देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था। राजाओं का उल्लेख 'देवनाम्प्रिय' (देवताओं के प्रिय) रूप में मिलता है। राजा सभी प्रकार की सत्ता का स्रोत एवं उसका केंद्रबिंदु, प्रशासन, विधि एवं न्याय का प्रमुख तथा सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपने मंत्रियों का चुनाव स्वयं करता था उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था। उस युग में पर्यवेक्षक और निरीक्षण की एक सुनियोजित प्रणाली थी। राजा का जीवन बड़ा श्रमसाध्य होता था तथा वह अपनी प्रजा के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सदैव तत्पर रहता था। कौटिल्य के अनुसार एक आदर्शवादी शासक वह है जो अपने प्रदेश का निवासी हो (अर्थात देशीय हो) जो शास्त्रों की शिक्षाओं का अनुगमन करता हो, जो निरोग, वीर, दृढ़, विश्वासपात्र, सच्चा और अभिजात कुल का हो।

 केंद्रीय शासन व्यवस्था---  

अर्थशास्त्र में केंद्रीय प्रशासन का अत्यंत विस्तृत विवरण मिलता है। शासन की सुविधा के लिए केंद्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को 'तीर्थ ' कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख है।----

1-मंत्री और पुरोहित---प्रधानमन्त्री तथा प्रमुख धर्माधिकारी।

 2-समाहर्ता----राजस्व विभाग का प्रमुख।

3-सन्निधाता---राजकीय कोषाधिकरण का प्रमुख।

 4- सेनापति---युद्ध विभाग का मंत्री।

 5-युवराज---राजा का उत्तराधिकारी।

 6-प्रदेष्टा---फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश।

7- नायक---सेना का संचालक।

8-कर्मान्तिक---उद्योग-धन्धों का प्रधान निरीक्षक।

 9- व्यवहारिक---दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश।

 10- मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष---मन्त्रीपरिषद का अध्यक्ष।

 11- दण्डपाल---सेना के लिए रसद पूर्ति का अधिकारी।

 12- अन्तपाल---सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।

 13- दुर्गपाल---आन्तरिक दुर्गों का प्रबन्धक।

 14- नागरक---नगर का प्रमुख अधिकारी।

15-प्रशास्ता---राजकीय दस्ताबेजों और राजाज्ञाओं को लिखने वाला।

 16- दौवारिक---राजमहल की देख-रेख वाला अधिकारी।

 17- अन्तर्वशिक---सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रमुख तथा 

18- आटविक---वन विभाग का प्रमुख अधिकारी।

            मौर्य शासन व्यवस्था नौकरशाही पर आधारित पूर्णतः एक नौकरशाही प्रशासन-तंत्र था, जिसका विभिन्न पदासीन अधिकारियों के माध्यम से संचालन किया जाता था। कौटिल्य ने कहा है-- "जैसे एक पहिए से कोई वाहन नहीं चल सकता, ठीक वैसे ही एक व्यक्ति से प्रशासन कार्य नहीं चल सकता।"

     साम्राज्य की शासन व्यवस्था के लिए निर्धारित सामान्य प्रशासन तंत्र की रचना निम्नलिखित तत्वों से मिलकर हुई थी-----

(1) राजा।

(2)  राज्य प्रमुख और राज्यपाल जो राजा के प्रतिनिधियों के रूप में प्रांतों में कार्य करते थे।

(3) मंत्री।

(4)  विभाग प्रमुख।

(5)  अधीनस्थ नागरिक (सिविल)सेवा और

(6)  ग्रामीण प्रशासन के प्रभारी अधिकारी।

मंत्रीपरिषद---- 

मंत्री परिषद राजा की सहायता करती थी, मंत्री 'मत्रिन्' के रूप में जाने जाते थे। किसी भी समय उनकी निश्चित संख्या के बारे में कोई कठोर नियम नहीं था। आवश्यकतानुसार उनकी संख्या घटाई या बढ़ाई जा सकती थी। उनका वार्षिक वेतन 48,000 पण था। अर्थशास्त्र में मंत्री के गुणों की सूची दी हुई है, जिसके अनुसार मंत्रियों को कुलीन सत्यनिष्ठावान और बुद्धिमान होने पर बल दिया गया है। इसमें यह भी सुझाव है कि विभिन्न स्रोतों से उनके इन गुणों का पता लगाया जाना चाहिए। मंत्रिपरिषद में पुरोहित, सेनापति, युवराज और कुछ अन्य मंत्री शामिल होते थे। परिषद या मंत्रीपरिषद का प्रभारी अधिकारी सचिव था जिसे कौटिल्य ने मंत्री-परिषदाध्यक्ष कहा है।

      अशोक ने तृतीय और चतुर्थ बृहत् शिलालेखों में अत्यावश्यक मामलों को निपटाने के लिए अपनी परिषद का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में मुख्यमंत्री या महामंत्री का उल्लेख है और साथ ही इसमें मंत्रियों तथा मंत्रीपरिषद के बीच का अंतर स्पष्ट किया गया है।

अमात्य (सचिव)---

 केंद्रीय प्रशासन बहुत से वरिष्ठ अधिकारियों के माध्यम से किया जाता था, जो कि मंत्रालयों में आधुनिक सचिवों की तरह थे और न्यायिक तथा प्रशासनिक कार्य करते थे। अर्थशास्त्र के अमात्य की समता सचिवों से की गई है। इन बातों की तुलना मेगस्थनीज की 'सात श्रेणियों' के साथ की जा सकती है, जिसमें राजा को परामर्श देने वाले तथा कर-निर्धारक सम्मिलित थे।

मौर्यकालीन अधिकारी तंत्र---  

कौटिल्य अर्थशास्त्र के अध्यक्षप्रवर (खंड-॥) में जो आधुनिक प्रशासनिक नियमावली की भांति है, केंद्रीय प्रशासन व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। इसमें देश की सामाजिक-आर्थिक तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखते हुए एक व्यापक वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी अधिकारी- तंत्र या नौकरशाही की परिकल्पना की गई है। बहुत कम अवधि में एक सुगठित सोपानात्मक अधिकारी-तंत्र का सफलतापूर्ण गठन, मौर्य प्रशासन व्यवस्था की एक महान उपलब्धि है। मौर्य-कालीन नागरिक सेवाओं में विभिन्न श्रेणियों और वेतनमान प्राप्त करने वाले प्रत्येक श्रेणी के अधिकारी संबद्ध थे। कौटिल्य ने इन श्रेणियों उल्लेख किया है जिनसे प्रशासन-तंत्र की विशालता एवं विविधता का एक स्पष्ट चित्र दृष्टिगोचर होता है। 

       कौटिल्य की व्यवस्था में राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों पर सम्राट का पूर्ण नियंत्रण था। राज्य के सप्तांगों में वह सम्राट (स्वामी) को भी सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। उसके शेष अंग---- 

अमात्य

जनपद, 

दुर्ग 

कोष

बल तथा 

मित्र 

      उपरोक्त सम्राट के द्वारा ही संचालित होते हैं तथा अपने अस्तित्व के लिए उसी पर निर्भर करते हैं ( राजा राज्यमिति प्रकृति संक्षेप: )।

  अध्यक्ष या अधीक्षक-----

 केंद्रीय प्रशासन एक अत्यधिक कुशल सचिवालय द्वारा संचालित किया जाता था। यह सचिवालय विभिन्न विभागों में विभाजित था। प्रत्येक विभाग का प्रमुख एक अध्यक्ष या अधीक्षक होता था, जिनका कौटिल्य के अर्थशास्त्र के द्वितीय खंड में विवेचन किया गया है।

     कौटिल्य ने 32 विभागों एवं उनके अध्यक्षों के कार्यों का वर्णन किया है इनका वर्णन निम्न प्रकार है----

 अक्षयपालाध्यक्ष--महालेखाकार।

आकराध्यक्ष--- खानों का प्रमुख अधिकारी।

सोवर्णिक-----शाही टकसाल का अध्यक्ष।

शुल्काध्यक्ष-----व्यापारिक करो को एकत्र करने वाला प्रधान अधिकारी।

 पौतवाध्यक्ष-----तौल एवं माप की देखरेख करने वाले प्रधान अधिकारी।

सूत्राध्यक्ष-----वस्त्र उद्योग या कातने और बुनने से संबंधित उद्योगों का प्रमुख।

 सीताध्यक्ष-----कृषि विभाग का अध्यक्ष अध्यक्ष।

सुराध्यक्ष---- मदिरा उद्योग एवं उसके उपभोग को नियंत्रित करने वाला अधिकारी।

 सूनाध्यक्ष---- कसाईखानों (बूचड़खानों) को नियंत्रित करने वाला प्रधान अधिकारी।

 गणिकाध्यक्ष-----वैश्यालयों की देखभाल करने वाला अधिकारी।

 मुद्राध्यक्ष----पारपत्र या पासपोर्ट की व्यवस्था करने वाला अधिकारी।

 पण्याध्यक्ष---- स्वदेशी एवं विदेशी व्यापार का महानियंत्रक।

रूपदर्शक---सिक्कों की जांच करने वाला अधिकारी

          आदि थे यह अध्यक्ष सैनिक  एवं असैनिक दोनों विभाग में कार्यरत थे। 

       इस तथ्य की पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है कि पूर्वोक्त अधिकांश विभागों एवं उनके अधिकारियों का यूनानी स्रोतों में भी उल्लेख मिलता है। इस प्रकार कौटिल्य एवं यूनानी लेखकों के विवरणों में अत्यधिक निकटता तथा आश्चर्यजनक समरूपता है 

        केंद्रीय सरकार के महत्वपूर्ण अधिकारी---  

कौटिल्य ने केंद्र सरकार के विभिन्न अधिकारियों के कार्यों का उल्लेख किया है कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों तथा उनके कार्यों का वर्णन इस प्रकार है---- 

सन्निधाता----यह राजकीय कोष -नगदी तथा जिन्स दोनों ही रूपों में हमें उपलब्ध राजकीय आय का प्रमुख अधिकारी था। सभी राजकीय भंडार उसके पर्यवेक्षण और नियंत्रण में होते थे।

समाहर्त्ता--- वित्त मंत्री की तरह था तथा देश के विभिन्न भागों में राजस्व संग्रह के लिए उत्तरदायी था।

अक्षपाटलध्यक्ष------ महालेखाकार था जो मुद्रा और लेखा दोनों कार्यालयों का प्रभारी था। वित्तीय वर्ष अषाढ़ (जुलाई) से प्रारंभ होता था और प्रत्येक वर्ष में 354 कार्य दिवस होते थे।

 सीताध्यक्ष---- कृषि निदेशक और राजकीय भूमियों की खेती या सरकारी कृषि फार्म का प्रभारी था। 

अकराध्यक्ष----खनन अधीक्षक था तथा उसे खानों, धातु- विज्ञान, रत्नों और बहुमूल्य पत्थरों की वैज्ञानिक जानकारी होती थी। खानों के कार्य संचालन तथा उनके उत्पादों के व्यापार में राज्य का एकाधिकार था।

  लवणाध्यक्ष---- नमक अधीक्षक। नमक उत्पादन पर सरकार का एकाधिकार था, जिसकी व्यवस्था लवणाध्यक्ष या नमक अधीक्षक द्वारा की जाती थी। इस विभाग का प्रशासन एक निश्चित शुल्क या उत्पादन के एक भाग को अदा करने जैसी लाइसेंस व्यवस्था के द्वारा संचालित किया जाता था।

 नवाध्यक्ष--- पत्तनों का अधीक्षक था, वह जलमार्गों-नदी मार्गो, समुद्री मार्गों, तटीय मार्गों आदि के द्वारा होने वाले यातायात और परिवहन का नियंत्रण करता था तथा नदियों और समुद्र तटों पर सुरक्षाकर्मियों को नियुक्त करता था।

 पण्याध्यक्ष---- वाणिज्य नियंत्रक था, जो वस्तुओं की आपूर्ति, कीमत, क्रय तथा बिक्री नियंत्रण का प्रभारी था। वह व्यापारियों को अनुमति-पत्र जारी करके खाद्यान्नों तथा अन्य पण्य वस्तुओं के भंडारों का भी नियंत्रण करता था।

 शुल्काध्यक्ष--- सीमा शुल्क या पथकर का समाहर्ता था। कौटिल्य ने प्रतिबंधित और सीमाशुल्क मुक्त मदों की सूची सहित सीमाशुल्क के विस्तृत विनियमों का वर्णन किया है। वस्तुओं का उन पर.आरोपित सीमाशुल्क या पथकर के अनुसार वर्गीकरण किया गया था।

 सुराध्यक्ष---- आबकारी अधीक्षक, जो मदिरा तथा मादक औषधियों के उत्पादन और बिक्री पर नियंत्रण रखता था। केवल सीलबंद मदिरा ही विनिर्दिष्ट स्थलों,  दिनों तथा निश्चित समय की जा सकती थी।

  पौतवाध्यक्ष--- तौल और माप का अधीक्षक था। वह व्यापारियों द्वारा प्रयुक्त तुलाओं,भार तथा माप की समय-समय पर जांच किया करता था तथा उन पर मुहर लगाता था।

 कोष्ठागाराध्यक्ष---वन तथा उसकी सम्पदा का अध्यक्ष।

लोहाध्यक्ष----धातु विभाग का अध्यक्ष।

लक्ष्णाध्यक्ष----छापेखाने का अध्यक्ष।

गोऽध्यक्ष-----पशुधन विभाग का अध्यक्ष।

पत्तनाध्यक्ष----बन्दरगाहों का अध्यक्ष।

संस्थाध्यक्ष----व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष।

देवताध्यक्ष-----धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष।

वीवीताध्यक्ष----चारागाह का अध्यक्ष।

मौर्य-कालीन गुप्तचर व्यवस्था--- 

मौर्यकालीन प्रशासन व्यवस्था की एक अद्भुत विशेषता गुप्तचर सेवा को उन्मुक्त रूप से संगठित करने और गुप्तचरों को विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयुक्त करने संबंधित संस्तुति है। समग्र प्रशासन एवं अधिकारियों के आचरण पर पूर्ण रूप से निगरानी रखने के लिए एक सुगठित गुप्तचर प्रणाली का विकास किया गया था। विशाल संख्या में जासूसों (गुढ़पुरुषों), गुप्तचरों, दोहरी भूमिका का निर्वाह करने वाले गुप्तचरों,  गुप्त सूचनाएं एकत्रित करने वाले गुप्तचरों, विदेशी गुप्तचरों पर निगरानी रखने वाले गुप्तचरों आदि को संपूर्ण साम्राज्य में नियुक्त किया जाता था। कौटिल्य ने गुप्तचर व्यवस्था के विभिन्न पक्षों का विस्तार से वर्णन किया है। वह उन्हें 'संस्था' (एक ही स्थान में कार्यरत) और संचर: (भ्रमणशील) के रूप में उल्लेखित करता है। ये दोनों प्रकार के गुप्तचर विभिन्न उपविभागों में विभाजित थे। केवल अत्यधिक कुशल, चतुर एवं अत्यधिक ईमानदार स्त्री-पुरुषों को ही इस विभाग में नियुक्त किया जाता था।

     बीज या गूढ़ लेख, कूट शब्द, गुप्त भाषा आदि प्रयोग में लाए जाते थे और संदेशवाहक कबूतरों की सेवाएं ली जाती थीं। नौकरशाही व्यवस्था की कार्यप्रणाली से राजा को सदैव सूचित किया जाता था। गुप्तचर राजा के 'कान और नेत्र' थे। जनता के सामान्य जीवन पर निगरानी रखी जाती थी और राजा को उसकी सूचना भी दी जाती थी, लेकिन जनता का सामान्य जीवन इससे प्रभावित नहीं था। कौटिल्य ने अनेक प्रकार के गुप्तचरों की नियुक्ति का सुझाव दिया जैसे-- कपटी शिष्य, एकांतवासी, गृहस्थ, व्यापारी, सन्यासी, सहपाठी, अशांति फैलाने वाले, आग लगाने वालों, विषघातक तथा विषकन्याएँ सहित कई प्रकार की स्त्रियां। सँपेरों, कलाबाजों तथा अन्य बहुत से व्यवसायियों को अंशकालिक/ पूर्णकालिक आधार पर इन कार्यों के लिए नियुक्त किया जाता था। गुप्तचरों को अपना कार्य बड़े कौशल, सावधानीपूर्वक तथा गुप्त ढंग से संपन्न करना पड़ता था। गुप्तचरों के विरुद्ध भी गुप्तचर नियुक्त किए जाते थे, जिससे कि उनके कार्यों एवं आचरण पर निगरानी रखी जा सके। महत्वपूर्ण विषयों के संबंध में गुप्त सूचना एकत्र करने के लिए एक से अधिक गुप्तचरों की नियुक्ति की जाती थी, और उनके द्वारा एकत्रित सूचना का मिलान किया जाता था।

          स्ट्रैबो के अनुसार, "देशभर में तथा नगरों में क्या हो रहा है यह पता करनेऔर इसकी निजी तौर पर सूचना देने के लिए सर्वेक्षक (ओवरसीयर्स) नियुक्त होते थे।" अशोक ने अपने एक शिलालेख में यह आदेश दिया था कि उसे राज्य की घटनाओं के बारे में निरंतर सूचित किया जाता रहना चाहिए। विदेशों में नियुक्त राजदूत 'खुले गुप्तचर' होते थे।"

  मौर्यकालीन सैनिक संगठन----  

मौर्य शासकों के पास एक विशाल अनुशासित और सुसंगठित सैना थी। राजा सर्वोच्च सेनापति था तथा वह शांति तथा युद्ध के समय व्यक्तिगत रूप से सेना का पर्यवेक्षण करता था। उसका संपूर्ण अस्तित्व सेना पर ही निर्भर था। चंद्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल सेना थी 600000 पैदल, 30000 अश्वारोही, 9000 हाथी, तथा 1000 रथ थे।  इसके अतिरिक्त वाहन टुकड़ी तथा जहाजी बेड़ा भी शामिल था।

⚫ सैनिकों की संख्या समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक थी। 

⚫ सैनिकों को नगद वेतन मिलता था तथा उनके अनुशासन एवं प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।

⚫ सैनिकों का काम केवल युद्ध करना था। शांति के काल में  वे आनंद एवं आराम का जीवन बिताते थे।

⚫ युद्ध से संबंधित समस्त सामग्री राज्य की ओर से प्रदान की जाती थी।

⚫ विजय के उपलक्ष्य में उन्हें पुरस्कार भी दिए जाते थे।

⚫ सैनिकों का वेतन इतना अधिक था कि वे बड़े आराम के साथ अपना तथा अपने आश्रितों का निर्वाह कर सकते थे।

      सेना में सैनिक दो प्रकार के होते थे--- आनुवंशिक एवं भृतभोगी (भाड़े के सैनिक)। आनुवंशिक सैनिकों को नियमित रूप से वेतन का भुगतान किया जाता था जबकि भृतभोगी सैनिक युद्ध के समय ही भर्ती किए जाते थे। मौर्यों ने अपनी सुनियोजित एवं सुगठित सेना के बल पर ही इतने विशाल साम्राज्य पर शासन किया।

       मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि इस सेना का प्रबंध छः समितियों द्वारा होता था। प्रत्येक समिति में पांच-पांच सदस्य होते थे। इनका कार्य अलग-अलग था।

 प्रथम समिति---- जल-सेना की व्यवस्था करती थी।

 दूसरी समिति---- सामग्री' यातायात एवं रसद की व्यवस्था करती थी।

 तीसरी समिति----पैदल सैनिकों की देख-रेख करती थी।

 चौथी समिति---- अश्वारोहीयों के सेना की व्यवस्था करती थी।

 पांचवी समिति---- गज सेना (हाथी सेना) की व्यवस्था।

 छठी समिति----- रथों के सेना की व्यवस्था करती थी।

        सेनापति युद्ध विभाग का प्रधान अधिकारी होता था। सेनापति का पद बड़ा ही महत्वपूर्ण होता था और वह 'मन्त्रिण' का सदस्य था। उसे 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। सेना के चारों अंगों (पैदल, गज, रथ पैदल) के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे, जो सेनापति की अधीनता में कार्य करते थे। इन्हें 8 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था। युद्ध-क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी 'नायक' कहा जाता था। सेनापति के पश्चात् नायक का पद ही सैनिक संगठन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण था जिसे 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। मौर्यों के पास शक्तिशाली नौ-सेना भी थी। अर्थशास्त्र  में 'नवाध्यक्ष' नामक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो युद्धपोतों के अतिरिक्त व्यापारिक पोतों का भी अध्यक्ष होता था। सीमांत प्रदेशों की रक्षा सुदृढ़ द्वारा की जाती थी। 'अंतपाल' नामक पदाधिकारी दुर्गों के अध्यक्ष होते थे।

         अशोक ने युद्ध की भर्त्सना की एवं शांति तथा अहिंसा की नीति की उद्घोषणा की। सम्राट की यह शांतिवादी एवं समर्पणवादी नीति का सैनिकों की सैन्य मनोबल पर घातक दुष्प्रभाव पड़ा। इससे सैन्य तंत्र निष्क्रिय, सैन्य कुशलता पंगु, एवं नैतिक मनोबल कुंठाग्रस्त हो गया।

सार्वजनिक निर्माण कार्य-------  

राजा अपनी प्रजा के साथ अपने पुत्र और पुत्रियों की भांति व्यवहार करता था और इसलिए वह विभिन्न सार्वजनिक कल्याण योजनाएं कार्यान्वित करता था। 'सड़क विभाग' राष्ट्रीय राजमार्गों तथा अन्य महत्वपूर्ण सड़कों का निर्माण, मरम्मत तथा रखरखाव करता था। सड़क के किनारे पर वृक्ष लगाए जाते थे तथा कुएं खोदे जाते थे। भिन्न-भिन्न प्रकार की सड़कों की चौड़ाई के नियम निर्धारित किए गए थे। इस प्रकार पशु मार्गों तथा पैदल यात्रियों के मार्गों की चौड़ाई 1 से 2 मीटर होती थी, रथों तथा अन्य पहियों वाले वाहनों के लिए सड़कें 10 मीटर चौड़ी होती थीं तथा मुख्य सड़कें 20 मीटर चौड़ी होती थीं। महत्वपूर्ण सड़कों पर शिलाखंड या ताड़ वृक्ष के तने बिछे होते थे, गांवों में केवल कच्ची सड़कें होती थीं, उपमार्गों, मोड़-स्थलों और दूरियों को निर्दिष्ट करने के लिए निश्चित दूरियों पर मील के पत्थर तथा नामपट्ट लगाए जाते थे। महत्वपूर्ण स्थानों पर धर्मशालाएं तथा सराय जैसे विश्रामस्थल बनाए गए थे, जहां मनुष्यों के लिए भोजन तथा पशुओं के लिए चारे की उचित मूल्य पर व्यवस्था की जाती थी। व्यापारी, यात्री, शासकीय कर्मचारी, रक्षा-सेनाओं के सदस्य सभी इन सुविधाओं का लाभ उठा सकते थे। मनुष्य और पशुओं के लिए पेयजल सुविधाएं ( कूप, नहर,  झील, जलाशय आदि) तथा चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई थी। महाविद्यालयों और विद्यालयों, मंदिरों और अन्य धार्मिक भवनों, पुल और बांध, बाजार स्थलों और व्यापारिक केंद्रों, विश्राम स्थलों, शिक्षा-गृहों आदि राज्य द्वारा निर्मित होते थे। कुछ महत्वपूर्ण एवं जन उपयोगी भवन भी होते थे। "पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिए चंद्रगुप्त के सौराष्ट्र प्रांत के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने 'सुदर्शन' नामक इतिहास प्रसिद्ध झील का निर्माण करवाया था। यह गिरनार (जूनागढ़) के समीप रैवतक तथा उर्जित पर्वतों के जल स्रोतों के ऊपर कृत्रिम बांध बनाकर निर्मित की गई थी कौटिल्य सिंचाई के लिए बांध बनाने की आवश्यकता पर बल देता है। 

    प्रान्तीय शासन----- चंद्रगुप्त मौर्य का विशाल साम्राज्य अवश्य ही प्रांतों में विभाजित रहा होगा परंतु उसके साम्राज्य के प्रांतों की निश्चित संख्या हमें ज्ञात नहीं है। उनके पौत्र अशोक के अभिलेखों से हमें उसके निम्नलिखित प्रांतों के नाम ज्ञात होते हैं-----

 (1)  उदीच्य----(उत्तरापथ)--- इसमें पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।

(2)  अवन्तिरट्ठ---- इस प्रदेश की राजधानी उज्जयिनी थी।

(3)  कलिंग---यहां की राजधानी तोसलि थी। 

(4)  दक्षिणापथ--- इसमें दक्षिणी भारत का प्रदेश शामिल था जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी।

(5)  प्राच्य या प्रासी---- इससे तात्पर्य पूर्वी भारत से है इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

         उपर्युक्त प्रांतों में से उत्तरापथ, अवन्तिरट्ठ तथा प्राच्य निश्चित रूप से चंद्रगुप्त मौर्य के भी समय में विद्यमान थे। यह असंभव नहीं कि दक्षिणापथ उसके साम्राज्य का एक अंग रहा हो। इन प्रांतों के राज्यपाल सिर्फ राजकुल से संबंधित 'कुमार' होते थे किंतु कभी-कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी राज्यपाल बनाया जाता था। जैसे चंद्रगुप्त ने पुष्यगुप्त वैश्य को काठियावाड़ का राज्यपाल बनाया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है कि राज्यपाल को 1200 पण वार्षिक वेतन मिलता था। अनेक अमात्यों एवं अध्यक्षों की सहायता से प्रांतों का शासन चलाते थे। उनके पास अपनी मंत्रिपरिषद थी।

मौर्यकालीन  मंडल का प्रशासन--

 प्रत्येक प्रांत में कई मंडल होते थे। जिनकी तुलना हम आधुनिक कमिश्नरी से स्थापित कर सकते हैं। अर्थशास्त्र में उल्लेखित 'प्रदेष्टा' नामक अधिकारी मंडल का प्रधान होता था। अशोक के लेखों में इसी को 'प्रादेशिक' कहा गया है। वह अपने मंडल के अधीन विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों का निरीक्षण करता था तथा समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी होता था।

 जिला प्रशासन--- 

मंडल का विभाजन जिलों में हुआ था जिन्हें 'आहार' या 'विषय' कहा जाता था।

  जिले के नीचे स्थानीय होता था जिसमें 800 ग्राम थे। स्थानीय के अंतर्गत दो 'द्रोणमुख' थे। प्रत्येक के चार-चार सौ ग्राम होते थे। 

 द्रोणमुख के नीचे खार्वटिक तथा खार्वटिक के अंतर्गत 20 संग्रहण होते थे। प्रत्येक खार्वटिक में 200 ग्राम तथा प्रत्येक संग्रहण में 10 ग्राम थे। 

        इन संस्थाओं के प्रधान, न्यायिक, कार्यकारी तथा राजस्व संबंधी अधिकारों का उपभोग करते तथा युक्त नामक पदाधिकारियों की सहायता से अपना कार्य करते थे। संग्रहण का प्रधान अधिकारी 'गोप' कहा जाता था मेगस्थनीज जिले के अधिकारियों को एग्रोनोमोई (Agronomoi) कहता है। वह विभिन्न वर्गों, के कर्मचारियों का उल्लेख करता है जो जिले के विभिन्न विभागों का शासन चलाते थे। भूमि तथा सिंचाई. कृषि, काष्ठ-उद्योग धातु शालाओं, खानों तथा सड़कों आदि का प्रबंध करने के लिए अलग-अलग पदाधिकारी थे।

 नगर प्रशासन---- 

मौर्य युग में नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। नगर शासन के लिए एक सभा होती थी जिसका प्रमुख 'नागरक' अथवा  'पुरमुख्य' कहा जाता था। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर-परिषद की पाँच-पाँच सदस्यों छःसमितियों का उल्लेख किया है।

 i-पहली समिति-- यह समिति विभिन्न प्रकार के औद्योगिक कलाओं का निरीक्षण करती तथा कारीगरों और कलाकारों के हितों की देख-रेख करती थी। 

ii--दूसरी समिति--- यह विदेशी यात्रियों के भोजन, निवास तथा चिकित्सा का प्रबंध करती थी। यदि वे देश से बाहर जाते थे तो यह उनकी अगुवाई (escort) करती थी तथा उनकी मृत्यु हो जाने पर अंत्येष्टि संस्कार का भी प्रबंध करती थी। राज्य की सुरक्षा के लिए विदेशियों के आचरण एवं उनकी गतिविधियों पर कड़ी दृष्टि रखना भी इस समिति का कार्य था। 

iii- तीसरी समिति--- यह समिति जनगणना का हिसाब रखती थी। 

iv-चौथी समिति---- यह समिति नगर के व्यापार-वाणिज्य की देख-रेख करती थी। विक्रय की वस्तुओं तथा माप-तौल का नियंत्रण करना इसी का कार्य था। किसी भी व्यक्ति को दो वस्तुओं को बेचने की अनुमति तब तक नहीं मिलती थी जब तक कि वह दूना कर न अदा कर दे। 

v- पांचवी समिति--- यह उद्योग समिति थी जो बाजारों में बिकने वाली वस्तुओं में मिलावट को रोकने तथा मिलावट के अपराध में व्यापारियों को दण्ड दिलवाती थी। नई तथा पुरानी दोनों प्रकार की वस्तुओं को बेचने के लिए अलग-अलग प्रबंध था।

 vi-- छठी समिति---- यह कर समिति थी  जिसका काम क्रय-विक्रय की वस्तुओं पर कर वसूलना था। वह बिक्री के मूल्य का 1/10 भाग होता था। इस कर की चोरी करने वाले को मृत्युदंड दिया जाता था।

 "मेगस्थनीज नगर के पदाधिकारियों को 'एस्टिनोमोई (Astynomoi) कहता है"

        यद्यपि अन्य नगरों के शासन के विषय में हमें ज्ञात नहीं है तथापि इस विवरण के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि पाटलिपुत्र के सामान दूसरे नगर में भी समितिययाँ रही होंगी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य युग में नगरों को स्वायत्त शासन प्राप्त था।

 ग्राम-प्रशासन--- 

 ग्राम प्रशासन की सबसे छोटे इकाई होता था। ग्राम का अध्यक्ष 'ग्रामीणी' होता था। वह ग्राम वासियों द्वारा निर्वाचित होता था तथा वेतन-भोगी कर्मचारी नहीं था। अर्थशास्त्र 'ग्रामवृद्धपरिषद' का उल्लेख करता है। इसमें ग्राम के प्रमुख व्यक्ति होते थे जो ग्राम शासन में ग्रामीणी की मदद करते थे। राज्य सामान्यतः ग्रामों के शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। ग्रामीणों को ग्राम की भूमि का प्रबंध करने तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था। ग्राम-वृद्धों की परिषद न्याय का भी कार्य करती थी। यह ग्रामों के छोटे-मोटे झगड़ों का फैसला करती थी तथा जुर्माने आदि का भी प्रावधान था। ग्रामीणी कृषकों से भूमिकर इकट्ठा करके राजकीय कोषागार में जमा कराते थे। ग्राम सभा के कार्यालय का कार्य 'गोप' नामक कर्मचारी किया करते थे। वे ग्राम के घरों तथा निवासियों का ठीक ढंग से विवरण सुरक्षित रखते थे और उनसे प्राप्त होने वाले कारों का भी लेखा-जोखा रखते थे।

        चंद्रगुप्त मौर्य कालीन ग्राम प्रशासन के विषय में सोहगौरा  (गोरखपुर) तथा महास्थान (बांग्लादेश के मोगरा जिले में स्थित) के लेखों से कुछ सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इनमें जनता की सुरक्षा के लिए बनाए गये कोष्ठारों का उल्लेख मिलता है। अर्थशास्त्र में भी कोष्ठागार-निर्माण की चर्चा है। इससे लगता है कि कर वसूली अन्नों के रूप में भी की जाती थी तथा इन्हें कोष्ठागारों में संचित किया जाता था। इस अन्न को अकाल, सूखा जैसी दैवी आपदाओं के समय ग्रामीण जनता के बीच वितरित किया जाता था।

 मौर्यकालीन न्याय व्यवस्था--- 

मौर्यों के एकतन्त्रात्मक शासन में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अंतिम अदालत था। इसके अतिरिक्त संपूर्ण साम्राज्य में अनेक अदालतें होती थीं। न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे---

1--धर्मस्थीय (दीवानी न्यायालय)।

2-कंटक-शोधन (फौजदारी न्यायालय)

         इन न्यायालयों का अंतर बहुत स्पष्ट नहीं है, फिर भी हम इन्हें सामान्यतः दीवानी तथा फौजदारी न्यायालय कह सकते हैं। इन दोनों में तीन-तीन न्यायाधीश एक साथ बैठकर न्याय का कार्य करते थे। विदेशियों के मामलों की सुनवाई के लिए एक विशेष प्रकार की अदालत संगठित की गई थीं।

    दंड विधान अत्यंत कठोर थे। सामान्य अपराधों में आर्थिक जुर्माने होते थे। कौटिल्य तीन प्रकार के अर्थदण्डों का उल्लेख करता है---

(1) पूर्व साहस दण्ड---- यह 48 से लेकर 96 पण तक होता था।

(2) मध्यम साहस दण्ड--- यह 200 से 500 पण तक होता था।

(3) उत्तम साहस दण्ड----यह 500 से 1000 पण तक होता था।

       इसके अतिरिक्त कैद, कोड़े मारना, अंग-भंग तथा मृत्यु दण्ड की सजा दी जाती थी। कारीगरों की अंग-क्षति करने पर मृत्युदंड दिया जाता था। इसी प्रकार का दण्ड करों की चोरी करने वालों तथा राजकीय धन का घोटाला करने वालों को भी मिलता था। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि 'युक्त' नामक अधिकारी प्रायः धन का अपहरण करते थे। एक स्थान पर उल्लिखित है कि 'जिस प्रकार जल में विचरण करती हुई मछलियों को जल पीते हुए कोई नहीं देख सकता उसी प्रकार आर्थिक पद पर नियुक्त युक्तों को धन का अपहरण करने पर कोई जान नहीं सकता---(मत्स्यायथाऽन्तः सलिले चरन्तों ज्ञातु न शक्यां सलिलं पिबन्त: । युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्याः धनमाददानाः।। ---अर्थशास्त्र,२. ९.)। ब्राह्मण विद्रोहियों को जल में डुबोकर मृत्यु-दंड दिया जाता था। जिस अपराध में कोई प्रमाण नहीं मिलता था वहाँ जल, अग्नि तथा विष आदि द्वारा दिव्य परीक्षाएँ ली जाती थीं। मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि दण्डों की कठोरता के कारण अपराध प्रायः कम होते थे। लोग अपने घरों को असुरक्षित छोड़ देते थे तथा वे कोई लिखित समझौता नहीं करते थे। कानून की शरण लोग बहुत कम लेते थे। एक बार जब वह (मेगस्थनीज) चंद्रगुप्त के सैनिक शिविर में गया तो उसे पता चला कि 'सम्पूर्ण सेना में चोरी की गयी वस्तुओं का मूल्य 200 द्रेक्कम (Drachmae) से भी कम था।' 

        अर्थशास्त्र से पता चलता है कि जो अमात्य 'धर्मोपधाशुद्ध' अर्थात धार्मिक प्रलोभनों द्वारा शुद्ध चरित्र वाले सिद्ध होते थे उन्हीं को न्यायाधीश बनाया जाता था। न्यायाधीशों को धर्म, व्यवहार, चरित्र तथा राज्शासन का अध्ययन करके ही दण्ड का निर्णय करना पड़ता था। इन चारों में राज्शासन (राजाज्ञा) ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। न्यायालयों के कर्मचारियों के लिए भी दंड की व्यवस्था की गई थी। गलत बयान लिखने, निरपराध व्यक्ति को कारवास देने, अपराधी को छोड़ देने के दोष में न्यायाधीशों एवं न्यायालय के कर्मचारियों को दंड दिए जाते थे। 

भूमिकर तथा राजस्व-------  

     चंद्रगुप्त की सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ वित्तीय आधार पर अवलंबित थी। साम्राज्य के समस्त आर्थिक कार्य-कलापों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता था। कृषि की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया गया तथा अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था। राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी 'सीताध्यक्षता' था जो दासों, कर्मकारों तथा बंदियों की सहायता से खेती करवाता था। कुछ राजकीय भूमि खेती करने के लिए कृषकों को भी दे दी जाती थी। राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमि कर था।  मौर्य काल में कराधान व्यवस्था को बहुत सतर्कतापूर्वक तैयार किया गया था। अशोक के शिलालेखों में बलि और भाग नामक दो प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है। 'रूम्मिनदेई शिलालेख में लिखा है कि लुम्बिनी ग्राम, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था, बलि से मुक्त कर दिया गया था और उसे भाग का केवल आठवाँ हिस्सा ही भुगतान करना पड़ता था।'  यह सिद्धांततः का उपज का 1/6 (षड्भाग) होता था। परंतु व्यवहार में आर्थिक स्थिति के अनुसार कुछ बढ़ा दिया जाता था। कर को राजा का हिस्सा (राजभाग) कहा जाता था। अर्थशास्त्र तथा यूनानी प्रमाणों से पता चलता है कि मौर्य शासन में कृषि की आय पर लोगों को अधिकतम 25% तक कर देना पड़ता था। ऐसी भूमि से तात्पर्य राजकीय भूमि से है। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि यदि कोई किसान अपने हल-बैल, उपकरण, बीज आदि लगाकर राजकीय भूमि पर खेती करता था तो उसे उपज का आधा भाग प्राप्त होता था। इसके अतिरिक्त किसानों के पास व्यक्तिगत भूमि भी होती थी। ऐसे लोग अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देते थे। भूमि कर को 'भाग' कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्राप्त आय को सीता कहा गया है। कृषकों को सिंचाई कर भी देना पड़ता था। नगरों में जल एवं भवन कर लगाए जाते थे। राजकीय आय के अन्य प्रमुख साधन राजा की व्यक्तिगत भूमि से होने वाली आय, सीमा-शुल्क, चुंगी, विक्री-कर, व्यापारिक मार्गों, सड़कों तथा घाटों पर लगने वाले कर, अनुज्ञा (License) शुल्क तथा आर्थिक दंड के रूप में प्राप्त हुए जुर्माने आदि थे। समाहर्ता नामक पदाधिकारी करो को एकत्र करने तथा आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने के लिए उत्तरदायी होता था। 'स्थानिक' तथा 'गोप' नामक पदाधिकारी प्रांतों में करो एकत्र करते थे। वस्तुतः प्रथम बार मौर्य काल में ही कर-प्रणाली की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिसका विवरण हमें अर्थशास्त्र में मिलता है।  अर्थशास्त्र के अनुसार ब्राह्मण, स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध, शस्त्र-निर्माता, अंधे, बहरे तथा अन्य विकलांग व्यक्ति और राजा के कर्मचारी कर से मुक्त होते थे। उन क्षेत्रों में भी कोई कर नहीं लगाया जाता था जहां नए व्यापारिक मार्ग या नई सिंचाई परियोजनाओं या किलों के निर्माण का कार्य आरंभ किया जाता था। करों की वसूली पूर्णरूपेण तथा नियमित रूप से की जाती थी तथा कर-वंचकों को दंडित किया जाता था। इसका उद्देश्य अधिकाधिक वस्तुओं पर कर लगाकर सरकार की आवश्यकताओं को पूरा करना था।

           सरकारी आय का व्यय विभिन्न रूप में होता था----

⚫ कर का एक भाग सम्राट एवं उसके परिवार के भरण-पोषण में।

⚫ दूसरा भाग विविध पदाधिकारियों को वेतन देने में।

⚫ तीसरा भाग सैनिक कार्यों में।

⚫ चौथा भाग लोकोपकारी कार्यों---जैसे सड़कों, नहरों, झीलों एवं जलाशयों के निर्माण में।

⚫ पाँचवाँ भाग धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं को दान देने में खर्च किया जाता था।

      इसके अतिरिक्त कारीगरों के लाभार्थ राज्य की ओर से चलाये जानें वाले उद्योगों तथा खानों आदि में भी बहुत अधिक धन व्यय होता था। नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए राज्य की ओर से औषधालय.खोले जाते थे तथा दवाओं का वितरण होता था। इन कार्यों में भी बहुत अधिक धन लगता था। इस प्रकार इन अनेक मदों में सरकारी आय का व्यय हुआ करता था।

 जनगणना----- 

मेगस्थनीज और कौटिल्य दोनों ने जानकारी दी है कि उस समय जनगणना का एक स्थायी विभाग था। और प्रत्येक जन्म एवं मृत्यु का जन्म-मृत्यु पंजिका में सम्यक पंजीकरण किया जाता था। संभवतया जन्म-मृत्यु पंजीकरण का विश्व में यह पहला दृष्टांत है। जनता की इतनी सूक्ष्म जानकारी रखने से कर लगाने तथा कानून और व्यवस्था बनाए रखने में सुविधा होती होगी। किसानों, गोपालकों, व्यापारियों आदि की संख्या या विभिन्न जाति, धर्म या मत के लोगों, उनके व्यवसाय तथा आय आदि के बारे में जानकारी रखना सुगम हो गया था। नगरों के जनगणना अधिकारी 'नागरक' कहलाते थे। विदेशी यात्रियों, व्यापारियों या छात्रों के आप्रवासन तथा उत्प्रवासन की एक पंजिका रखी जाती थी और उन्हें समुचित सहायता उपलब्ध कराई जाती थी। संदेहास्पद चरित्र तथा पूर्ववृत्त वाले व्यक्तियों की सूची रखी जाती थी। ऐसे अनेक आलेख लोगों के जीवन स्तर और विकास के बारे में अत्यंत विश्वसनीय सूचना उपलब्ध कराने के लिए तैयार किए जाते थे।

 जन स्वास्थ्य---- 

     सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर व्यक्तियों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खोले गए थे। ऐसे अस्पतालों में वैद्य, शल्यक्रिया, उपकरणों से युक्त शल्य चिकित्सक, परिचारिकाएँ, दाइयाँ,  विष आदि का पता लगाने में कुशल चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों की नियुक्ति की जाती थी। उपचार सार्वजनिक रूप से शुल्क मुक्त था। विदेशी यात्री जब बीमार पड़ते तब उनकी पूर्ण सावधानी से देखभाल की जाती थी। उपचार सेवा-भावना से किया जाता था। विदेशियों की मृत्यु हो जाने पर उनका सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार कर दिया जाता था। संदिग्ध मामलों में मृत्यु के कारणों का पता लगाने के लिए मरणोत्तर शव-परीक्षा की जाती थी। मृत शरीर को कुछ समय तक सुरक्षित रखने के विशेष प्रकार के तेल का प्रयोग किया जाता था। मिलावट एक गंभीर अपराध था, जिसके लिए मृत्युदंड दिया जा सकता था। गलियां साफ-सुथरी रखी जाती थीं तथा कूड़ा-करकट डालने और मृत पशुओं को फेंकने के लिए अलग-अलग स्थान होते थे।

     इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मौर्यकालीन शासन व्यवस्था लोकोपकारी थी। सरकार के विषय में उसकी धारणा पितृपरक थी। स्वयं निरंकुश होते हुए भी व्यवहार में वह धर्म, लोकोपचार तथा न्याय के अनुसार ही शासन करता था। उसे निरंतर प्रजाहित की चिंता बनी रहती थी। जनता को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा दासों को स्वामियों के अत्याचारों से बचाने के लिये व्यापक उपाय किए गये थे। राज्य अनाथों, विधवाओं,मृत सैनिकों एवं कर्मचारियों के भरण-पोषण का दायित्व वहन करता था। चन्द्रगुप्त के गुरु एवं प्रधानमंत्री कौटिल्य ने जिस प्रकार विस्तृत प्रशासन की रूप-रेखा प्रस्तुत की थी उसमें प्रजाहित को सर्वोच्च स्थान दिया गया और यही इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता है। चंद्रगुप्त मौर्य शासनादर्श अर्थशास्त्र की इन पंक्तियों से स्पष्टतः प्रकट होता है-----"प्रजा के सुख में राजा का सुख  निहित है,  प्रजा के हित में उसका हित है। अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, बल्कि जो प्रजा के लिए हो, उसे करने में राजा का हित होता है।" इस प्रकार चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था ने एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ किया।

         परंतु मौर्यकालीन शासन व्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही नहीं था। इसमें कुछ ऐसे दोष हैं जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते। इस विस्तृत प्रशासन तंत्र में केंद्रीय नियंत्रण इतना प्रबल था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पूर्णतया कुचल दिया गया तथा सामान्य नागरिक कठोर नियंत्रण में जीवन यापन करने के लिए विवश हो गया था। जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएं प्रायः नगण्य थीं। पूरे साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा हुआ था, जो व्यक्ति के न केवल सार्वजनिक अपितु निजी मामलों में भी हस्तक्षेप करते थे, तथा सभी प्रकार की गतिविधियों से सम्राट को अवगत कराते थे। नौकरशाही के अधिकार विस्तृत थे तथा प्रजा उत्पीड़न की गुंजाइश बराबर बनी हुई थी। दंड विधान अत्यंत कठोर थे। मृत्यु दंड एवं अमानवीय यातनाएं आम बातें थीं। अतः कुछ आधुनिक विद्वानों की यह आलोचना काफी दमदार है कि मौर्य शासकों ने सुरक्षा की वेदी पर नागरिक स्वतन्त्रता की बलि चढ़ा दी विशेषकर चंद्रगुप्त मौर्य के समय में यह अत्यंत कठोर  थे, तथा साम्राज्य को एक पुलिस राज्य में परिवर्तित कर दिया। यह अच्छी बात थी कि कालांतर में अशोक ने प्रशासन की इन कमियों को पहचान तथा उसमें यथोचित सुधार कर उसे अधिक लोकोपकारी तथा प्रजा हितों के अनुकूल बना दिया।

 

 

  

 

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