सांख्य दर्शन : सत्कार्यवाद ,प्रकृति ,पुरुष
सांख्य दर्शन : सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष
अनुक्रम | Content 1 -कपिल मुनि का परिचय 2-सांख्य दर्शन में सत्कार्यवाद 3 -पुरुष(आत्मा) सम्बन्धी विचार 4 - प्रकृति सम्बन्धी विचार 5 -बंधन और मोक्ष (कैवल्य ) 6 -निष्कर्ष
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कपिल मुनि का सांख्य दर्शन
प्राचीन भारतीय संस्कृति पूरे संसार में अपने ज्ञान और विज्ञान के लिए विश्वविख्यात थी। भारतीय संस्कृति संसार की सबसे गौरवमयी संस्कृतियों में एक है। प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन की उतपत्ति और उसके रहस्यों को जानने के लिए विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें हम दर्शन कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मुखतया छ: दर्शन प्रमुख हैं सांख्य दर्शन , योग दर्शन, न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन , मीमांसा दर्शन और वेदांत दर्शन । आज हम सांख्य दर्शन के विषय में जानेंगे जिसके प्रवर्तक कपिल मुनि थे ।
कपिल मुनि का सांख्य दर्शन
कपिल मुनि का परिचय-
कपिल मुनि प्राचीन भरत के एक प्रसिद्ध मुनि थे। उन्हें प्राचीन ऋषि कहा गया है उन्हें सांख्यशास्त्र (यानि तत्व पर आधारित ज्ञान) के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है जिसके मान्य अर्थों के अनुसार विश्व का उद्भव विकासवादी प्रक्रिया से हुआ है। कई लोग उन्हें अनीश्वरवादी मानते हैं लेकिन गीता में उन्हें श्रेष्ठ मुनि कहा गया है | कपिल मुनि ने सर्वप्रथम विकासवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और संसार को एक क्रम के रूप में देखा | इनके समय और जन्मस्थान को लेकर निश्चित जानकारी नहीं है | पुराणों तथा महाभारत में इनका उल्लेख है | कहा जाता ,प्रत्येक कल्प के आदि में कपिल जन्म लेते हैं | साथ ही सारी सिद्धियां इनको प्राप्त हैं | इसीलिए इनको आदिसिद्धि और आदिविद्वान कहा जाता है | इनका शिष्य कोई आसुरि नामक वंश में उत्पन्न वर्षसहस्रयाजी श्रोत्रिय ब्राह्मण माना गया है | परंपरा के अनुसार उक्त आसुरि को निर्माणचित्त में अधिष्ठित होकर इन्होनें तत्वज्ञान का उपदेश दिया था | निर्माणचित्त का अर्थ होता है सिद्धि के द्वारा अपने चित्त को स्वेच्छा से निर्मित कर लेना इससे मालूम होता है , कपिल ने आसुरि के सामने साक्षात् उपस्थित होकर उपदेश नहीं दिया अपितु आसुरि के ज्ञान में इनके प्रतिपादित सिद्धांतों का स्फुरण हुआ ,अतः ये आसुरि के गुरु कहलाये | महाभारत में ये सांख्य के वक्ता कहे गए हैं | इनको अग्नि का अवतार और ब्रह्मा का मानसपुत्र भी पुराणों में कहा गया है श्रीमद्भागवत के अनुसार कपिल विष्णु के पंचम अवतार मने गए हैं | कर्दम और देवहुति से इनकी उत्पत्ति है | बाद में इन्होनें अपनी माता देवहुति को सांख्यज्ञान का उपदेश दिया जिसका विशद वर्णन श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध में मिलता है |
कपिलवस्तु जहाँ गौतम बुद्ध पैदा हुए थे , कपिल के नाम पर बसा नगर था और सागर के पुत्र ने सागर किनारे कपिल को देखा और उनका शाप पाया तथा बाद में वहीँ गंगा का सागर के साथ संगम हुआ | इससे ज्ञात होता है कि कपिल का जन्मस्थान सम्भवत: कपिलवस्तु और तपस्याक्षेत्र गंगासागर था | हम इतना अनुमान लगा सकते कि बुद्ध के पहले ही कपिल एक प्रसिद्ध ऋषि थे | यदि हम कपिल के शिष्य आसुरि को शतपथ ब्राह्मण के आसुरि से अभिन्न मानें तो हैं कि कम से कम ब्राह्मण काल में कपिल की स्थिति रही होगी | इस प्रकार कहा जा सकता है कि ७०० वर्ष ईसा पूर्व कपिल का काल माना जा सकता है
सांख्य दर्शन
सांख्य दर्शन का प्रवर्तक महर्षि कपिल को माना जाता है। इसका सबसे प्राचीन तथा प्रमाणिक ग्रंथ 'सांख्यकारिका' है जिसकी रचना ईश्वर कृष्ण ने की थी | सांख्य भारत के प्राचीनतम दार्शनिक संप्रदायों में से है गोविंद चंद्र पांडे के अनुसार इसकी उत्पत्ति अवैदिक श्रमण विचारधारा से हुई थी।
सांख्य के दो अर्थ हैं-- संख्या तथा सम्यक ज्ञान | गीता और महाभारत में इस शब्द का प्रयोग ज्ञान के अर्थ में ही मिलता है | अतः ऐसा प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शन से तात्पर्य सम्यक ज्ञान दर्शन से है। यह पूर्णतया बौद्धिक एवं सैद्धांतिक संप्रदाय है क्योंकि इसमें 25 तत्वों का विवरण मिलता है, अतः इसे संख्या का दर्शन (phylosophy of nature ) भी कहा जा सकता है।
सांख्य दर्शन के प्रमुख सिद्धांत
सत्यकार्यवाद-
सांख्य का मुख्य आधार है सत्कार्यवाद का अर्थ यह है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व कारण से में विद्यमान (सत्) रहता है| जो संप्रदाय इस सिद्धांत को नहीं मानते उन्हें असत्कार्यवादी कहा जाता है। इनमें बौद्ध, न्यायवैशेषिक आदि प्रमुख हैं जिनकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं होता तथा उसकी उत्पत्ति सर्वथा नई होती है। किंतु सांख्य मत इसका खंडन करते हुए 'सत्कार्यवाद' का प्रतिपादन करता है और इसके समर्थन में कई तर्क प्रस्तुत करता है----
⚫ यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान ने रहे तो किसी भी प्रकार से उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। हम जानते हैं कि बालू से तेल कदापि नहीं निकल सकता। वह केवल तिल से ही निकल सकता है क्योंकि उसमें तेल पहले से विद्यमान रहता है। इस प्रकार कार्य वस्तुतः कारण की अभिव्यक्ति मात्र है।
⚫ प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति प्रत्येक वस्तु से नहीं होती, अपितु वह किसी विशेष वस्तु से ही होती है। जैसे तेल केवल तिल से तथा दही केवल दूध से ही उत्पन्न हो सकता है। इससे सत्कार्यवाद के सिद्धांत की पुष्टि होती है।
⚫ केवल योग्य कारण से ही अभीष्ट कार्य उत्पन्न होता है। इससे भी सिद्ध होता है कि कार्य का अस्तित्व सूक्ष्म रूप से अपने कारण में बना रहता है। उत्पत्ति कारण का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। यदि ऐसा नहीं होता तो पानी से दही तथा बालू से तेल की उत्पत्ति हो सकती है।
⚫ कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुत: समान प्रक्रिया के व्यक्त एवं अव्यक्त रूप हैं। कपड़ा धागों में, तेल तेल में, दही दूध में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। जब उत्पत्ति के मार्ग की बाधाओं को दूर कर दिया जाता है तो कारण कार्य को प्रकट कर देता है।
उपर्युक्त युक्तियों के आधार पर सांख्य इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि कार्य मूल्यतः अपने कारण में विद्यमान है। सत्कार्यवाद के दो विभेद हैं--- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य यह है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में बदल जाता है जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित हो जाते हैं। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है, जैसे रज्जु में सर्प का आभास हो जाता है। सांख्य मत प्रथम अर्थात् परिणामवाद का समर्थक है। विवर्तवाद का समर्थन अद्वैत वेदांती करते हैं।
सांख्य दर्शन द्वैतवादी है। इसमें प्रकृति तथा पुरुष नामक दो स्वतंत्र शक्तियों की सत्ता को स्वीकार किया गया है जिनके सहयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।
.सांख्य दर्शन के २५ तत्व
आत्मा (पुरुष)
अंतःकरण (3): मन , बुद्धि , अहंकार
ज्ञानेन्द्रियाँ (5): पाद ,हस्त , उपस्थ, पायु, वाक्
तन्मात्राएँ (5): गंध रस रूप स्पर्श शब्द
महाभूत (5): पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश
प्रकृति--- यह सृष्टि का आदिकारण है जिसे 'प्रधान' तथा 'अव्यक्त'की संज्ञा भी दी जाती है। यह नृत्य एवं निरपेक्ष है। इसका कोई कारण नहीं होता क्योंकि यही समस्त कार्यों का मूल स्रोत है।
प्रकृति में तीन गुण होते हैं----सत्व, रज तथा तम। इन तीनों की साम्यावस्था का नाम ही प्रकृति है। वे गुण प्रकृति के अंगभूत तत्व (Component factors) है। इनसे मिलकर बनी होने पर भी प्रकृति इन पर आश्रित नहीं रहती। यहां गुण से तात्पर्य साधारण गुण अथवा धर्म से नहीं है। गुण का अर्थ धर्म, सहकारी तथा रस्सी के डोरी होता है। प्रकृति के तीन तत्व रस्सी की तीन डोरियों की भांति मिलकर पुरुष को बांधते हैं, अतः इन्हें गुण कहा जाता है अथवा पुरुष के उद्देश्य साधन में सहायक होने के कारण यह गुण कहे गए हैं। सत्य प्रकाश तथा प्रसन्नता रज क्रियाशीलता तथा तम स्थिरता, अवरोध तथा मुंह का सूचक है। सभी सांसारिक वस्तुओं में यह तीनों गुण दिखाई देते हैं क्योंकि वे सभी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं। सत्व, रज, तथा तम को क्रमशः शुक्ल, रक्त तथा कृष्ण वर्ण का कल्पित किया गया है। तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। यह सदा एक साथ रहते हैं तथा किसी एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता और न कोई ही कार्य ही कर सकता है। तीनों गुणों की तुलना तेल, बत्ती तथा दीपक से की गई है जो परस्पर भिन्न होते हुए भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं। तीनों गुणों में जो प्रबल होता है उसी के अनुसार वस्तु का स्वरूप निर्धारित होता है। शेष उसमें गौण रूप में विद्यमान होते हैं। गुण निरंतर परिवर्तनशील हैं तथा वे एक क्षण भी स्थिर नहीं रह सकते गुणों का परिवर्तन दो प्रकार का होता है---
(1) स्वरूप परिणाम-- प्रलय की अवस्था में यह परिवर्तन दिखाई देता है जबकि तीनों गुण स्वयं अपने आप में परिवर्तित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में सत्व-सत्व में, रज-रज में तथा तम-तम में परिणत होता है। इस अवस्था में किसी प्रकार की उत्पत्ति नहीं होती है। इस समय गुणों की सागम्यावस्था (Sate of Equalitibrium) रहती है। इसी को प्रकृति कहते हैं।
(2) विरूप परिणाम--- प्रलय के बाद जब कोई एक गुण शक्तिशाली हो जाता है तथा अन्य उनके अधीन हो जाते हैं तब सृष्टि के विकास का क्रम प्रारंभ होता है। इसे विरूप परिणाम अथवा परिवर्तन कहा गया है। इस समय गुणों में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा साम्यावस्था उद्विग्न हो जाती है। ऐसा तभी होता है जब प्रकृति, पुरुष के संसर्ग में आती है।
सांख्य दर्शन में पुरुष (आत्मा ) सम्बन्धी विचार व प्रमुख सिद्धांत
पुरुष--- सांख्य दर्शन का दूसरा प्रधान तत्व पुरुष (आत्मा) है। इसका स्वरूप नित्य, सर्वव्यापी एवं शुद्ध चैतन्य है। चैतन्य आत्मा का स्वभाव ही है। यह शरीर, इंद्रिय, मन अथवा बुद्धि से भिन्न है। आत्म सदैव ज्ञाता के रूप में रहता है और यह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। इसे निस्त्रैगुण्य, उदासीन, अकर्त्ता, केवल, मध्यस्थ, साक्षी, दृष्टा, सदाप्रकाशस्वरूप, ज्ञाता आदि कहा गया है। इसमें किसी प्रकार का विकार अथवा परिवर्तन नहीं होता, अपितु विकार या परिवर्तन तो प्रकृति के धर्म हैं।
सांख्य मत में अनेकतावाद का समर्थन किया गया है जिसके अनुसार आत्मा एक न होकर अनेक है। प्रत्येक जीव में भिन्न भिन्न आत्म रहती है। इस प्रकार जहां प्रकृति एक है वहाँ पुरुष (आत्मा) अनेक माने गये हैं। पुरुष नृत्य द्रष्टा अथवा ज्ञाता के रूप में विद्यमान होते हैं। वे चैतन्य स्वरूप हैं।
जगत् की उत्पत्ति या विकास-- प्रकृति जब पुरुष के संसर्ग में आती है तो गुणों की साम्यावस्था विकृत हो जाती है जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है। सांख्य इसके लिए प्रकृति तथा पुरुष के संसर्ग को अनिवार्य मानता है। इनमें से अकेला कोई भी तत्व सृष्टि रचना में समर्थ नहीं होता। सृष्टि का उद्देश्य पुरुष का हित साधन करना होता है। पुरुष को भोग तथा कैवल्य दोनों के लिए प्रकृति की आवश्यकता होती है। प्रकृति को ज्ञात होने के निमित्त पुरुष की आवश्यकता पड़ती है। सृष्टि द्वारा पुरुष के भोग के निमित्त वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं तथा जब पुरुष अपने स्वरूप को पहचान कर प्रकृति से अथवा विभेद स्थापित कर लेता है तब उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जिस प्रकार अंधे और लंगड़े आपस में मिलकर एक-दूसरे की सहायता से जंगल पार कर लेते हैं उसी प्रकार जड़, प्रकृति तथा चेतन पुरुष परस्पर भिन्न होते हैं वह भी एक-दूसरे के सहयोग से सृष्टि की रचना करते हैं।
पुरुष के संपर्क से प्रकृति के गुणों मैं क्षोभ् उत्पन्न होता है। सबसे पहले रज क्रियाशील होता है तथा फिर दूसरे गुणों में उद्वेग उत्पन्न होता है। प्रत्येक एक दूसरे पर अधिकार जमाने की कोशिश करता है जिससे प्रकृति में एक महान् आंदोलन उठ खड़ा होता है। तीनों गुणों के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुएं पैदा होती हैं।
प्रकृति तथा पुरुष के संयोग से 'महत्' (बुद्धि) तत्व उत्पन्न होता है। गुणों में जब तत्व की प्रधानता होती है तब इसका उदय होता है। यह बाह्य जगत् की वस्तुओं का विशाल बीज है तथा यही सभी जीवधारियों में बुद्धि रूप में विद्यमान है। यही ज्ञाता है और ज्ञेय का भेद कराती है तथा इसी के द्वारा हम किसी वस्तु के विषय में निर्णय कर पाते हैं। बुद्धि के स्वाभाविक गुण हैं--- धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य। तमोगुण द्वारा विकृत होने पर इन गुणों का स्थान इनके विरोधी गुण जैसे-- अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा अशक्ति ग्रहण कर लेते हैं। बुद्धि की सहायता से ही प्रकृति तथा पुरुष से विभेद स्थापित होता है।
बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है। बुद्धि में 'मैं' तथा 'मेरा' का भाव ही अहंकार है। इसका कार्य अभियान को उत्पन्न करना है। पुरुष भ्रमवश अपना तादात्म्य इसके साथ स्थापित कर लेता है तथा अपने को कर्त्ता, भोक्ता, कामी तथा स्वामी मानने लगता है। अहंकार के तीन भेद हैं----
⚫ सात्विक--- इसमें तत्व की प्रधानता होती है जिससे मन, पाँच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ, तथा त्वजाग) तथा पांच कर्मेंद्रियां (मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तथा जननेंद्रिय) उत्पन्न होती हैं।
⚫ तामस---इसमें तम की प्रधानता होती है जिसमें 5 तन्मात्र (subtleessences) --- शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध--- उत्पन्न होते हैं।
⚫ रजस--- इसमें रज की प्रधानता होती है यह सात्विक तथा तामस को गति प्रदान करता है।
पाँच तन्मात्रों से पाँच माहाभूतों की उत्पत्ति होती है, जो है-----आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इनके गुण क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध है।
इस प्रकार सृष्टि का विकास प्रकृति से आरंभ होता है तथा महाभूतों तक समाप्त होता है। यह चौबीस तत्वों का खेल मात्र है। पुरुष को मिलाकर सांख्य मत में कुल पच्चीस तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। पुरुष इस विकास की परिधि से बाहर रहकर इसका द्रष्टामात्र होता है। वह न तो कारण है और न कार्य ही। प्रकृति कारण मात्र है। महत्, अहंकार तथा पाँच तन्मात्र कार्य तथा कारण दोनों ही हैं, जबकि पाँच महाभूत तथा मन कार्य मात्र होते हैं।
बन्धन तथा मोक्ष (कैवल्य)
सांख्य मत के अनुसार हमारा सांसारिक जीवन अनेक प्रकार के दु:खों से परिपूर्ण है। जिन्हें हम सुख समझते हैं वे भी अंततः दुख ही प्रदान करते हैं। दु:खों के तीन प्रकार बताए गए हैं-----
(1) आध्यात्मिक दु:ख--- इसके अंतर्गत वे दु:ख हैं जो जीवन के अपने मन या शरीर से उत्पन्न होते हैं, जैसे रोग, क्रोध, संताप, क्षुधा आदि। इस प्रकार आध्यात्मिक दु:ख से तात्पर्य सभी प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक दु:खों से है।
(2) आधिभौतिक दु:ख---- इसमें बाहरी भौतिक पदार्थों जैसे मनुष्य, पशु, पक्षियों, कांटो आदि के द्वारा उत्पन्न दु:ख आते हैं।
(3) आधिदैविक दु:ख---- इसमें अलौकिक कारणों से उत्पन्न दु:खा आते हैं, जैसे भूत-प्रेतों का उपद्रव, ग्रह-पीड़ा आदि।
मनुष्य के जीवन का उद्देश्य उपर्युक्त तीनों दु:खों से छुटकारा प्राप्त करना है। मोक्ष का अर्थ है सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति। यही अपवर्ग अथवा पुरुषार्थ है। अविवेक अथवा अज्ञान बंधन का कारण है जिससे हमें अनेक प्रकार के दु:ख प्राप्त होते हैं। पुरुष स्वतंत्र तथा शुद्ध चैतन्यस्वरूप होता है। यह देश, काल तथा कारण की सीमाओं से परे है तथा निर्गुण और निष्क्रिय है। शारीरिक तथा मानसिक विकार इसे प्रभावित नहीं करते। सुख-दु:ख मन के विषय हैं, पुरुष के नहीं। किंतु अज्ञानवश पुरुष, प्रकृति के विकार, बुद्धि तथा अहंकार से अपना तादात्म्य स्थापित कर बैठता है। वह स्वयं को इस शरीर, इंद्रिय, मन और बुद्धि मान लेता है। वह अपने को कर्त्ता और भोक्ता मानने लगता है तथा अनेक दु:खों को प्राप्त होता है। इस प्रकार अज्ञान ही दु:खों का कारण तथा विवेक ज्ञान उनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय है ( ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययात् इष्यते बन्ध: )। विवेक ज्ञान का अर्थ है पुरुष को अपने को प्रकृति के विकारों से अलग समझ लेना। विवेक ज्ञान की प्राप्ति निरंतर साधना से होती है। इस साधना का विवरण योग दर्शन के अंतर्गत मिलता है जो सांख्या का व्यावहारिक पक्ष है।
सांख्य दो प्रकार की मुक्ति मानता है---जीवनमुक्ति तथा विदेहमुक्ति। जीवनमुक्ति ज्ञान के उदय के साथ ही मिल जाती है तथा भौतिक शरीर के बने रहने पर भी पुरुष (आत्मा) उससे अपने को पृथक एवं अलिप्त मानता है। उसे दैहिक दैविक तथा भौतिक सुख-दु:ख बाधित नहीं करते। विदेहमुक्ति भौतिक शरीर के विनाश के पश्चात मिलती है जबकि स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों शरीरों से छुटकारा मिल जाता है। सांख्य के मोक्ष का अर्थ तीनों प्रकार के दु:खों का पूर्ण विनाश है जिसमें पुरुष अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था आनंदमय नहीं है क्योंकि जहां कोई दुख नहीं है, वहां कोई सुख भी नहीं हो सकता। सुख या आनंद सतोगुण की देन है तथा मोक्ष त्रिगुण निरपेक्ष होता है। सांख्य के अनुसार पुरुष का बंधन में पड़ना केवल भ्रममात्र है। यह वस्तुतः बंधन तथा मोक्ष की सीमाओं से परे है। केवल प्रकृति ही बंधनग्रस्त तथा मुक्त होती है।
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