गौतम बुद्ध का जीवन परिचय – भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी – Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi
इस लेख के विषय 3- बौद्ध धर्म की शिक्षाएं तथा सिद्धांत 4-अष्टांगिक मार्ग 5- महात्मा बुद्ध समाज सुधारक के रूप में 6- बौद्ध-संघ या भिक्षु-संघ 7- बौद्ध धर्म का प्रचार 8-बौद्ध संगीतियां 9-महात्मा बुद्ध से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रतीक चिन्ह 10- बुद्ध से जुड़े महत्वपूर्ण व्यक्ति
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ईसा पूर्व छठी शताब्दी के नास्तिक संप्रदाय के आचार्यों में महात्मा बुद्ध का नाम सर्व प्रमुख है। उन्होंने जिस धर्म की स्थापना की वह आगे चलकर एक अंतरराष्ट्रीय धर्म बन गया। यदि विश्व के ऊपर उनके मरणोपरांत प्रभावों के आधार पर भी उनका मूल्यांकन किया जाए तो वे भारत में जन्म लेने वाले महानतम व्यक्ति थे।
महात्मा बुद्ध |
महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक जीवन
गौतम बुद्घ का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिदेई अथवा रूमिन्देह) नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहांत हो गया तथा उनका पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया। उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ। उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी। परंतु बचपन से ही वे अत्यधिक चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रायः एकांत स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण सुख दु:ख आदि समस्याओं के ऊपर गंभीरतापूर्वक विचार किया करते थे।
महात्मा बुद्ध का विवाह
महात्मा बुद्ध को इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देख उनके पिता को गहरी चिंता हुई। उन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की भरपूर कोशिश की। विलासिता की सामग्रियां उन्हें प्रदान की गयी। इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत रूपवती कन्या के साथ कर दिया। इस कन्या का नाम उत्तर कालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है। कालांतर में उनका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम 'राहुल'पड़ा। तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवाये गए तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गई कि वे सांसारिक दु:खों के दर्शन न कर सकें।
अशोक का धम्म
बुद्ध द्वारा गृह त्याग
परंतु सिद्धार्थ सांसारिक विषय भोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके। भ्रमण के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अंततः एक प्रसन्नचित संन्यासी को देखा। उनका हृदय मानवता को दु:ख में फंसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा।
महात्मा बुद्ध ने किस आयु में गृह त्याग किया
बुढ़ापा, व्याधि तथा मृत्यु जैसी गंभीर सांसारिक समस्याओं ने महात्मा बुद्ध का ह्रदय झकजोर दिया और इन समस्याओं के वास्तविक निराकरण के लिए उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्र को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया। इस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी। इस त्याग को बौद्ध ग्रंथों में 'महाभिनिष्क्रमण' की संज्ञा दी गई है।
ज्ञान प्राप्ति की खोज
इसके पश्चात ज्ञान की खोज में भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे सर्वप्रथम वैशाली के समीप अलार कलाम नामक सन्यासी के आश्रम में उन्होंने तपस्या की। वह सांख्य दर्शन का आचार्य था तथा अपनी साधना शक्ति के लिए विख्यात था। परंतु यहां उन्हें शांति नहीं मिली। यहां से वे रूद्रकरामपुत्त नामक एक दूसरे धर्माचार्य के समीप पहुंचे जो राजगृह के समीप आश्रम में निवास करता था। यहां भी उनके अशांत मन को संतोष नहीं मिल सका। खिन्न हो उन्होंने उनका भी साथ छोड़ दिया था तो उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान को प्रस्थान किया। यहां उनके साथ कौण्डिन्य आदि पांच ब्राह्मण सन्यासी भी आए थे। अब उन्होंने अकेले तपस्या करने का निश्चय किया प्रारंभ में उन्होंने कठोर तपस्या की जिससे उनका शरीर जर्जर हो गया और काया क्लेश की निस्सारकता का उन्हें आभास हुआ। तब उन्होंने ऐसी साधना प्रारंभ की जिसकी पद्धति पहले की अपेक्षा कुछ सरल थी। उन्होंने सुजाता नामक कन्या के हाथों भोजन ग्रहण किया, इस पर उनका अपने साथियों से मतभेद हो गया तथा वे उनका साथ छोड़कर सारनाथ में चले गए।
बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति
सिद्धार्थ अन्न, जल भी ग्रहण करने लगे 6 वर्षों की साधना के पश्चात 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा की रात को एक पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। अब उन्होंने दु:ख तथा उसके कारणों का पता लगा लिया। इस समय से वे बुद्ध नाम से विख्यात हुए।
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बुद्ध द्वारा धर्म का प्रचार
स्वयं बुद्ध ने भी इसके बाद आजीवन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध ग्रंथों में मगध के शासक बिंबिसार, अजातशत्रु, कौशल नरेश प्रसेनजीत आदि राजाओं को बुद्ध का अनुयायी बताया गया है। राज परिवारों के अनेक सदस्यों ने दी बौद्ध धर्म स्वीकार किया। पूर्वोत्तर भारत के अनेक क्षत्रिय गणराज्यों में उनके धर्म को संरक्षण तथा प्रोत्साहन ही नहीं दिया बर१ उसमें दीक्षित भी हुए। स्वयं बुद्ध के पिता, उनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी तथा पत्नी और पुत्र ने भी इनके धर्म को स्वीकार किया। बाद में शाक्य गणराज्य के राजा भद्रिक, उसके सहयोगी आनंद, अनिरुद्ध, उपाली तथा देवदत्त ने भी बौद्ध धर्म अपनाया। यह विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य है कि बुद्ध ब्राह्मण धर्म के अनेक तत्वों के विरोधी थे किंतु बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इनके प्रारंभिक अनुयायियों में ब्राह्मणों की संख्या अत्याधिक है। वैश्यों ने तथा व्यापारी वर्ग ने भी बौद्ध धर्म को अपनाया तथा उनके उदार दान ने इस धर्म के प्रचार में विशेष सहायता पहुंचाई। बुद्ध ने नवीन उत्पादन-व्यवस्था का प्रत्यक्ष तथा परोक्ष समर्थन किया जो इस वर्ग की प्रगति में भी पर्याप्त सहायक था ।
महात्मा बुद्ध की मृत्यु-----
अपने जीवन के अंतिम समय में पावा में बुद्ध ने चुन्द नामक सुनार के घर भोजन किया। इस कारण वे उदर विकार से पीड़ित हुए। इसी अवस्था में वे कुशीनगर आए। वहीं 80 वर्ष की आयु में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। उन्होंने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। इस संबंध में आनंद की जिज्ञासा के उत्तर में बुद्ध ने अत्यंत महत्वपूर्ण उपदेश दिया: "आनंद ! ......मैंने जो धर्म और विनय (संघ जीवन के नियम) उपदेश किए हैं, प्रज्ञप्त किए हैं, मेरे बाद वे ही तुम्हारे शास्ता (शासक होंगे)।"
महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के अवशेष को 8 भागों में विभाजित किया गया। मगध के राजा अजातशत्रु तथा इस क्षेत्र के अन्य गणराज्यों ने स्तूप निर्मित कर इसे सुरक्षित रखा।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएं तथा सिद्धांत
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही बौद्ध धर्म की पहली संगीति हुई। इसका उद्देश्य बुद्ध वचनों को सुरक्षित करना था। बौद्ध धर्म के बारे में हमें विशद ज्ञान पाली त्रिपिटक से ही प्राप्त होता है।
बौद्ध धर्म का मूल आधार 'चार आर्य सत्य' हैं। इस धर्म के सारे सिद्धांत तथा बाद में विकसित विभिन्न दार्शनिक मत-वादों के यही आधार हैं। यह चार आर्य सत्य हैं: महात्मा बुद्ध ने जीवन चार आर्य सत्य की खोज की दुख, समुदाय, दुख निरोध तथा दुख निरोध-गामिनी-प्रतिपदा (दु:ख निवारक मार्ग) अर्थात अष्टांगिक मार्ग ।
संबोधी में गौतम बुद्ध को 'प्रतीत्यसमुत्पाद' के सिद्धांत का बोध हुआ था। ,प्रतीत्यसमुत्पाद' का अर्थ है संसार की सभी वस्तुएं किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई हैं और इस प्रकार वे इस पर निर्भर हैं। इस कार्य-कारण सिद्धांत को उन्होंने संपूर्ण जगत पर लागू किया। सर्वप्रथम उन्होंने जिन चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया वे इस प्रकार हैं------
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चार आर्य सत्य
1-दु:ख--संसार में चारों ओर दु:ख ही दु:ख है। जीवन दुखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है। जिन्हें हम सुख समझते हैं वे भी दु:खों से भरे हुए हैं। सदा यह भय बना रहता है कि हमारे आनंद कहीं समाप्त न हो जाएं आनंदो की समाप्ति पर कष्ट होता है। आसक्ति से भी दु:ख उत्पन्न होते हैं। संसार में विभिन्न प्रकार के दुख व्याप्त हैं जैसे दरिद्रता, व्याधि, जरा (वृद्धावस्था), मृत्यु आदि। अतः हम कह सकते हैं कि जीवन दु:खों से परिपूर्ण है। बुद्ध के अनुसार जन्म भी दु:ख है, व्याधि भी दु:ख है ,मरण भी दु:ख है, अप्रिय मिलन भी दु:ख है, जरा भी दुख है, अप्रिय मिलन भी दु:ख है , प्रिय वियोग भी दु:ख है। संसार को दु:खमय देखकर ही बुद्ध ने कहा था 'सब्बं दु:खं अर्थात सभी वस्तुएं दु:खमय हैं।
2- दु:ख समुदाय-- 'दु:ख समुदाय' अर्थात दु:ख उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं। सभी कारणों का मूल है तृष्णा (पिपासा अथवा लालसा कृष्णा से ही आ सकती तथा राग का उद्भव होता है रूप शब्द गंधक तथा मानसिक तर्क-वितर्क आसक्ति के कारण हैं।
3- दु:खों का अंत संभव है क्योंकि प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है। अतः यदि उस कारण का विनाश हो जाए तो वस्तु का भी विनाश हो जाएगा। कारण समाप्त होने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा। अतः यदि दु:खों के मूल कारण अविद्या का विनाश कर दिया जाए तो दु:ख भी नष्ट हो जाएंगे। दु:ख निरोध को ही निर्वाण कहा जाता है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति जीवन काल में भी संभव है। निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर उसके दु:खों का विनाश है। इसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म रुक जाता है तथा दु:खों का भी अंत हो जाता है। बुद्ध ने इस अवस्था को वर्णातीत कहा है । दुःख से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है कि तृष्णा या इच्छा का उन्मूलन आवश्यक है। संसार में प्रिय लगने वाली वस्तुओं की तृष्णा या इच्छा को त्यागना ही दु:ख निरोध का मार्ग प्रशस्त करता है।
4- चौथा आर्य सत्य है "दु:ख निवारण-गामिनी प्रतिपदा"-- बुद्ध ने कहा "जो संबोधि का प्रयास करता है उसे दो अतिवादी मार्गों से बचना चाहिए। ये दो अतिवादी मार्ग क्या है? भोग-विलास से युक्त जीवन जो अशिष्ट और निरर्थक होते हैं, तथा आत्मदमन से पूर्ण जीवन कष्टकारी और समान रूप से निस्सार होता है।" बौद्ध धर्म में निर्वाण (मुक्ति) या दुखों से छुटकारा पाने का मार्ग या ज्ञान और मन की शांति का मार्ग 'अष्टांगिक मार्ग' या मध्यम प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) के रूप में जाना जाता है।
अष्टांगिक मार्ग---
1- सम्यक् दृष्टि--- अंधविश्वासों तथा भ्रांतियों से मुक्त सही दृष्टि। अर्थात सत्य और असत्य तथा सदाचार और दुराचार के विवेक द्वारा चार आर्य सत्यों की सही परख।
2- सम्यक् संकल्प-- इच्छा तथा हिंसा से रहित संकल्प करना। उचित विचार उच्च और प्रबुद्ध उत्साही व्यक्ति।
3- सम्यक् वाणी- सम्यक वाणी जो उदार, मुक्त एवं सत्य पूर्ण हो। अर्थात सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना जो धर्म सम्मत हो।
4- समयक् कर्मान्त-- सम्यक् कार्य जो शांतिपूर्ण, सुंदर और शुद्ध हो। दान ,दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्य कर्मों का अनुसरण ही समयक् कर्मान्त है।
5- सम्यक् आजीव-- सदाचार के नियमों के अनुकूल आजीविका के अनुसरण करने को समयक् आजीव कहते हैं। अर्थात विशुद्ध रूप से सदाचार पालन करके जीवन व्यतीत करना।
6- सम्यक् व्यायाम-- आत्मप्रशिक्षण और आत्मनियंत्रण की दिशा में सम्यक् प्रयास। अर्थात नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत् प्रयत्न करते रहना सम्यक् व्यायाम है।
7- सम्यक् स्मृति-- अपने कर्मों के प्रति विवेक तथा सावधानी को निरंतर स्मरण रखना।
8- सम्यक् समाधि- मन अथवा चित्त की एकाग्रता को सम्यक् समाधि कहते हैं।
इनमें से प्रथम दो कारकों को प्रज्ञा स्कंध, अगले तीन कारकों को शील स्कंध तथा अंतिम तीन कारकों को समाधि स्कन्ध के अंतर्गत रखा गया है। लेकिन विकासक्रम के अनुसार यह अनुक्रम इस प्रकार है।
1-आचरण (शील)
2-ध्यान एवं (समाधि)
3-ज्ञान (प्रज्ञा)
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उपरोक्त आठ मार्गों पर चलकर वयक्ति मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करना या अत्यधिक काया-क्लेश में संलग्न होना---दोनों को वर्जित किया है। उन्होंने इस संबंध में मध्यम प्रतिपदा (मार्ग) का उपदेश।
बौद्ध धर्म का दर्शन
बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्ववादी है। सृष्टि का कारण ईश्वर को नहीं माना गया है। तर्क यह है कि यदि ईश्वर को संसार का रचयिता माना जाए तो उसे दु:ख को उत्पन्न करने वाला भी मानना होगा। वास्तव में बुद्ध ने ईश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर ही बल दिया। इसी प्रकार बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना भी नहीं है। अनत्ता अर्थात अनात्मवाद के सिद्धांत के अंतर्गत यह मान्यता है कि व्यक्ति में जो आत्मा है वह उसके अवसान (मृत्यु) के साथ समाप्त हो जाती है। आत्मा शाश्वत या चिरस्थायी वस्तु नहीं है जो अगले जन्म में भी विद्यमान रहे। किंतु बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है। इसी के कारण कर्म-फल का सिद्धांत भी तर्कसंगत होता है। इस कर्म-फल को अगले जन्म में ले जाने वाला माध्यम आत्मा नहीं है। फिर कर्मफल अगले जन्म का कारण कैसे होता है? इसके उत्तर में 'मिलिंद प्रश्न' में कहा गया है कि जिस प्रकार पानी में एक लहर उठ कर दूसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है उसी प्रकार हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम चेतना के रूप में पुनः जन्म का कारण बनते हैं ।
बुद्ध का मध्यम-मार्ग अरस्तु के स्वर्णिम मार्ग (golden- mean) के समान है। उन्होंने अतिशय आसक्ति तथा कायाक्लेश दोनों का विरोध किया। अपने प्रथम उपदेश में उन्होंने भिक्षुयों को संबोधित करते हुए कहा था--- 'संसार में दो अतियां हैं। इनसे धार्मिक व्यक्ति को बचना चाहिए। प्रथम सुख में पूरी तरह लिप्त होना है। यह निम्न, अयोग्य, अपवित्र, अनैतिक, अवास्तविक है। द्वितीय कायाक्लेश का जीवन है। यह भी अंधकारपूर्ण, अयोग्य तथा मिथ्या है। तथागत ( तथागत शब्द का अर्थ है 'सत्य है ज्ञान जिसका' यह बुद्ध का एक प्रसिद्ध नाम हो गया है) अतः महात्मा बुद्ध ने दोनों मार्गों से अलग मध्यम मार्ग की खोज की है जो नेत्र तथा मस्तिष्क को प्रकाशित करता है तथा शांति style="font-family: "Times New Roman","serif"; font-size: 12pt; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";">, ज्ञान, संबोधी निर्वाण की ओर ले जाता है।" बुद्ध स्वयं प्रतीत्य समुत्पाद को अत्याधिक महत्व देते हैं तथा इसका तादातम्य 'धम्म' के साथ स्थापित करते हुए कहते हैं-- "जो प्रतीत्य समुत्पाद को जानता है वह धम्म को जानता है तथा जो 'धम्म' को जानता है वह प्रतीत्य समुत्पाद को जानता है।" महात्मा बुद्ध के उपदेश अत्यंत व्यावहारिक तथा सरल होते थे। ब्राह्मण ग्रंथों द्वारा प्रतिपादित वेदों की अपौरूषेयता एवं आत्मा की अमरता के सिद्धांत को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। किंतु आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने पर भी पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धांत को मानते थे। उनके अनुसार जीवन विभिन्न अवस्थाओं की संतति है जो एक दूसरे पर निर्भर करती है। किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है। इसी प्रकार वर्तमान अवस्था परवर्ती अवस्था को जन्म देती है। इस प्रकार रिजडेंविङ्स के अनुसार 'यह चरित्र है जिसका पुनर्जन्म होता है, किसी आत्मा का नहीं। एक व्यक्ति के मरने पर उसका चरित्र बना रहता है तथा अपनी शक्ति से एक अन्य व्यक्ति को उत्पन्न कर देता है। यह भिन्न आकार का होते हुए भी पूर्णतया उससे प्रभावित रहता है।
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महात्मा बुद्ध समाज सुधारक के रूप में
यज्ञीय कर्मकांडों तथा पशु बलि जैसी कुप्रथा ओं का बुद्ध ने जमकर विरोध किया। वैदिक अनुष्ठानों कर्मकांडों, पशुबलि, आदि का भी उन्होंने विरोध किया। वे मानव जाति की समानता के अन्य पोषक थे। उनका कहना था कि मनुष्य मनुष्य में भेद जन्म के आधार पर नहीं अपितु गुण, बुद्धि तथा कर्म के आधार पर होता है। अतः उन्होंने ब्राह्मणों की जन्मना श्रेष्ठता के दावे का खंडन किया। जाति-पाती, छुआछूत जैसा कोई भेद-भाव उनकी दृष्टि में नहीं था और यही कारण था कि उन्होंने अपने संघ का द्वार सभी जाति के लिए खोल दिया था। एक सच्चे समाज सुधारक के रूप में वे अपने समकालीन समाज को जाति तथा धर्म के दोषों से मुक्त करना चाहते थे। बुद्ध जटिल दार्शनिक समस्याओं में भी नहीं उलझे तथा एक नैतिक दार्शनिक के रूप में उन्होंने मनुष्य के नैतिक तथा सामाजिक गुणों के विकास पर ही बल दिया। उनकी धार्मिक दृष्टि बड़ी उदार थी। उनकी दृष्टि में ज्ञान तथा नैतिकता दोनों ही महत्वपूर्ण थे, किंतु ज्ञान को नैतिकता के ऊपर रखने के लिए कदापि प्रस्तुत नहीं थे। ज्ञान की अपेक्षा शील (नैतिकता) को उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण बताया क्योंकि यही ज्ञान की प्राप्ति का माध्यम है। उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक मान्यताओं तथा अंधविश्वासों जैसे- नदियों के जल की पवित्रता, शकुन, भविष्यवाणियों, स्वप्न-विचार, जादूगरी, चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों आदि की निंदा करते हुए उन्हें त्याज्य बताया गया। काया-क्लेश, घोर तपस्या, संसार-त्याग के भी वे पक्ष में नहीं थे, किंतु अपने कुछ उत्साही अनुयायियों को उन्होंने संसार त्यागकर भिक्षु जीवन व्यतीत करने को प्रोत्साहित किया क्योंकि सांसारिक सुखों को वे निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में बाधक समझते थे। सामान्य मनुष्यों के लिए बुद्ध ने जिस धर्म का उपदेश दिया वह भिक्षु धर्म से भिन्न था और उसे उपासक धर्म कहा जाता है। दीघनिकाय के सिगालोवाद सुत्त में इस धर्म का विवरण प्राप्त होता है। बुद्धघोष ने इसे 'गिहिविनय' अर्थात 'गृहस्यों के लिए आचरण' की संज्ञा प्रदान की है। इससे इस धर्म के प्रमुख लक्षण अहिंसा, प्राणियों पर दया, सत्य, भाषण, माता-पिता सेवा, गुरुजनों का सम्मान, ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान, मित्रों, परिचितों, संबंधियों आदि के साथ अच्छा बर्ताव करना इत्यादि बताए गए हैं। ये बातें सभी धर्मों में समान रूप से श्रद्धेय मानी जाती हैं। बुद्ध के उपदेशों का मूल लक्ष्य मानव जाति को उसके दु:खों से मुक्ति दिलाना था और इस रूप में उनका नाम मानवता के महान पुजारी में सदैव अग्रणी रहेगा। उनके उपदेशों में अत्यंत सरलता एवं व्यवहारिकता दिखाई देती है।
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-
ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का खान-पान ( भोजन)
बौद्ध धर्म का प्रचार
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जहां पांच ब्राह्मण उनके प्रथम शिष्य बने। इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारंभ किया। वर्षा ऋतु में भी विभिन्न नगरों में विश्राम करते तथा शेष ऋतुओं में एक स्थान से दूसरे स्थान में घूम-घूम कर अपने मत का प्रचार करते थे। बौद्ध साहित्य में उनके प्रचार कार्य का बड़ा ही रोचक विवरण प्राप्त होता है। सारनाथ से अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ बुद्ध वाराणसी गए जहां यश नामक एक धनी श्रेष्ठीपुत्र को उन्होंने अपना शिष्य बनाया। यहां से मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। राजगृह में उन्होंने द्वितीय तृतीय तथा चतुर्थ वर्षाकाल व्यतीत किया। बिंबिसार जो इस समय मगध का राजा था ने उनके निवास के लिए 'वेलूवन' नामक विहार बनवाया। मगध में इस समय अनेक प्रसिद्ध ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर आचार्य एवं सन्यासी निवास करते थे कई के साथ बुद्ध का शास्त्रार्थ हुआ तथा बुद्ध ने सभी को परास्त किया। फलस्वरूप अनेक विद्वान उनके शिष्य बन गए इनमें सारिपुत्र, मौद्गाल्यायन, उपाली, अभय आदि प्रमुख हैं। बुद्ध ने गया, नालंदा, पाटलिपुत्र आदि की भी यात्रा की तथा अनेक लोगों को अपना शिष्य बनाया। राजगृह में ही रहते हुए उन्होंने एक बार अपने गृह नगर कपिलवस्तु की भी यात्रा की जहां अपने परिवार के सभी लोगों को उन्होंने अपने मत में दीक्षित किया। शाक्यों ने उनसे अपने नवनिर्मित संस्थागार का उद्घाटन करवाया था।
राजगृह से चलकर बुद्धि लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुंचे यहां उन्होंने पांचवी वर्षा काल बिताया। लिच्छवियों ने उनके निवास के लिए महावन में प्रसिद्ध 'कूटाग्रशाला' का निर्माण करवाया। वैशाली की प्रसिद्ध नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षु संघ के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दी। इसी स्थान पर बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को भी अपने संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की तथा भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ। संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माता प्रजापति गौतमी थी जो राजा शुद्धोधन की मृत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वहां पहुंची थी। बताया गया है कि बुद्ध पहले तो महिलाओं को संघ में लेने के विरोधी थे किंतु गौतमी के अनुनयविनय करने तथा अपने प्रिय शिष्य आनंद के आग्रह पर उन्होंने इसकी अनुमति प्रदान कर दी।
कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ने अनूपिय नामक स्थान पर कुछ काल तक विश्राम किया। यहीं शाक्य राजा भद्रिक, अनिरुद्ध, उपालि, आनंद, देवदत्त को साथ लेकर बुद्ध से मिला था। बुद्ध ने इन सभी को अपने मत में दीक्षित किया तथा आनंद को अपना व्यक्तिगत सेवक बना।
वैशाली से बुद्ध भग्गों की राजधानी सुमसुमारगिरी गए और वहां आठवां वर्षा काल व्यतीत किया। यहां बोधिकुमार उनका शिष्य बना। वहाँ से वे वत्सराज उदयन की राजधानी कौशांबी गए तथा वहां नवाँ विश्राम लिया। उदयन पहले बौद्ध मत में रुचि नहीं रखता था किंतु बाद में बौद्ध भिक्षु पिण्डोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया। उसने घोषिताराम विहार भिक्षु-संघ को प्रदान किया। यहां से बुद्ध मथुरा के समीप वेरन्जा गए जहां उन्होंने बारहवाँ वास किया। अवंती के राजा प्रद्योत ने भी उन्हें आमंत्रित किया किंतु उन्होंने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहां जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए अपने शिष्य महाकच्चायन को उसे उपदेश देने के लिए कहा। अवंती में भी बुद्ध के कुछ अनुयायी बन गए। बुद्ध ने चंपा तथा कजंगल की भी यात्रा की तथा उन स्थानों में कुछ समय तक रहकर अनेक लोगों को अपने मत में दीक्षित किया।
बौद्ध धर्म का सबसे अधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ। यहां बुद्ध ने 21 वास किये। यहाँ अनाथपिण्डक नामक एक अत्यंत धनी व्यापारी ने उनकी शिष्ययता ग्रहण की तथा संघ के लिए जेतवन विहार को, 18 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर प्रदान किया। भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का अंकन मिलता है। इसमें 'जेतवन अनाथपेण्डिकों देतीकोटिसम्थनकेता' लेख उत्कीर्ण मिलता है। कौशल नरेश प्रसेनजीत ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिए 'पुब्बाराम' (पुर्वाराम) नामक विहार बनवाया। बुद्ध जेतवन तथा पूर्वाराम नामक विहारों में वारी-वारी से विश्राम लेते थे। श्रावस्ती में ही रहते हुए बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक कुख्यात डाकू जो मनुष्यों के उंगलियों को काटकर उनकी माला पहनता था को अपने मत में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार कोशल राज्य में उनके सबसे अधिक अनुयायी बन गए।
या मौर्य सामराज्य के पतन के लिए अशोक जिम्मेदार था?
महात्मा बुद्ध के जीवन के अंतिम काल और उनकी मृत्यु
विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए तथा लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुए बुद्ध मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे। यहां चुन्द नामक लुहार की आम्रवाटिका में ठहरे। उसने बुद्ध को भोजन दिया। इसमें उन्हें सुकरमद्दव खाने को दिया गया। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ 'सूअर का मद्द अथवा मांस बताया है, किंतु यह तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः यह कोई वनस्पति थी जो सूअर के मांद के पास उगती थी, जैसे कुकुरमुत्ता आदि। इससे उन्हें रक्तातिसार हो गया और भयानक पीड़ा उत्पन्न हुई। इस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुंचे। यहीं 483 ईसा पूर्व में 80 वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर त्याग किया। इसे बौद्ध ग्रंथों में 'महापरिनिर्वाण' कहा गया है। मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा था-- सभी सांघातिक वस्तुओं का विनाश होता है। अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो।
मल्लों ने अत्यंत सम्मान पूर्वक उनका अंत्येष्टि संस्कार किया। अनुश्रुति के अनुसार उनके शरीर-धातु के 8 भाग किये गए तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाए गए। महापरिनिर्वाण सूत्र में महात्मा बुद्ध की अस्थियां (शरीर धातु) पर दावा करने वाले राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं----
1-पावा तथा कुशीनारा के मल्ल,
2-कपिलवस्तु के शाक्य,
3- वैशाली के लिच्छवि,
4-अलकप के बुलि,
5-रामगाम के कोलिय,
6- पिप्पलिवन के मोरिय,
7-वेठद्वीप के ब्राह्मण,
8-मगधराज अजातशत्रु,
बौद्ध-संघ या भिक्षु-संघ
बुद्ध के दो प्रकार के अनुयायी थे भिक्षु एवं भिक्षुणी (भिक्षु या श्रमण) और साधारण उपासक। भिक्षु-भिक्षुणियों को संघ या परिषद के रूप में संगठित किया गया था। संघ की सदस्यता 15 वर्ष से अधिक आयु वाले ऐसे व्यक्तियों, पुरुषों तथा स्त्रियों दोनों के लिए खुली थी, जो कुष्ठ रोग, क्षय और अन्य संक्रामक रोगों से मुक्त थे। इसके लिए कोई जातीय प्रतिबंध नहीं था। संघ का संचालन पूर्णतया लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर होता था और उसे अपने सदस्यों पर अनुशासन लागू करने का अधिकार प्राप्त था। भिक्षु और भिक्षुणियों का जीवन पूर्णतया नियमों और दस धर्मादेशों से संचालित होता था और व्यक्तिगत रूचि या अनिच्छा के लिए उसमें कोई स्थान नहीं था। केंद्रीय समन्वय व्यवस्था का अभाव संघ प्रणाली की बहुत बड़ी कमी थी।
बुद्धू द्वारा स्थापित संघ या भिक्षुओं का संगठन थाईलैंड, श्रीलंका और बांग्लादेश आदि में आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है। बुद्ध के कुछ समकालीन प्रख्यात भिक्षु थे--- सारिपुत्र जिनके पास धम्म की गहनतम अंतर्दृष्टि थी, मोग्गल्लान जो महानतम दैवीय शक्तियों के पुंज थे, आनंद जो बुद्ध के समर्पित शिष्य और साथी थे, महाक्स्सप बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगृह में बुलाई गई प्रथम बौद्ध संगीति के अध्यक्ष थे, अनिरुद्ध सम्यक् स्मृति के ज्ञाता, उपाली विनय के विद्वान और राहुल बुद्ध के पुत्र। किसी आस्तिक धर्म की भांति बौद्ध भिक्षु पुरोहित या पुजारी नहीं थे। धर्म के पथ- प्रदर्शक के रूप में वे समस्त सामाजिक एवं धार्मिक मामलों में साधारण उपासकों के मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक थे। भिक्षुओं के दीक्षाकरण को उपसंपदा कहा गया है।
सम्राट अशोक की जीवनी 273-236 ईसा पूर्व
बौद्ध संगीतियां (Buddhist Councils)
1- प्रथम बौद्ध संगीति 483 ईसा पूर्व---- बौद्ध धर्म के प्रथम संगति राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तत्काल पश्चात बुलाई गई थी। इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था। इस संगीति की अध्यक्षता महाकस्सप ने की तथा इसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनंद और उपालि भी उपस्थित थे। इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन हुआ तथा उन्हें सुत्त और विनय नामक दो पिटकों में विभाजित किया गया। आनंद तथा उपालि क्रमशः धर्म और विनय के प्रमाण माने गये। सुत्तपिटक में धर्म के सिद्धांत तथा विनयपिटक में आचार के नियम थे। विभिन्न स्थानीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले 500 भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया तथा बुद्ध के उपदेशों के दो पिटको विनयपिटक और अभिधम्मपिटक में विभाजित कर अधिकारिक धर्मसम्मत पाठों के रूप में स्वीकार किया गया।
2-द्वितीय बौद्ध संगीति 383 ईसा पूर्व-- द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन कलाशोक के शासनकाल में बुद्ध की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में किया गया। इस संगति की अध्यक्षता सब्बाकामी ने की। इस संगीति में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया। अतः इसे सप्तशतिका कहा जाता है। इस समय वैशाली के भिक्षुओं ने विनय संबंधी कुछ ऐसे नियमों को अपना लिया था जिन्हें अवन्ति आदि पश्चिमी स्थानों के भिक्षु त्याज्य समझते थे। अतः पूर्वी तथा पश्चिमी भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए ही यह महासभा बुलाई गई। पश्चिमी भिक्षु इस सभा में समूह बनाकर आये तथा उन्होंने पूर्वी भिक्षुओं से विनय के नियमों को त्याग देने का आग्रह किया। जब मतभेद बढ़ गया तो दोनों दलों के चार-चार वरिष्ठ भिक्षुओं को मिलाकर एक उपसमिति गठित की गयी। इस समिति ने पर्याप्त विचार विमर्श के बाद इन नियमों को महासभा में धर्म-विरूद्ध घोषित कर दिया----यह नियम--
- नमक संग्रह,
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- दोपहर के बाद भोजन करना,
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- खाने के बाद छाछ पीना,
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- ताड़ी पीना,
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- गद्देदार बिस्तर का प्रयोग,
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- सोने-चांदी का दान लेना,
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- किसी कार्य को कर लेने के बाद संघ की अनुमति लेना,
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- एक ही क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर सभाएं (उपोस्थ) करना आदि थे।
ऐसा ज्ञात होता है कि पूर्वी भिक्षुओं ने, जिन्हें 'वज्जिपुत्र' कहा गया, इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया तथा उन्होंने दूसरी महासंगीति बुलाकर इन नियमों को धर्मसंगत घोषित करते हुए स्वीकार कर लिया। इसके फलस्वरुप भिक्षु संघ दो संप्रदाय में विभक्त हो गया। परंपरागत विनय में आस्था रखने वालों का संप्रदाय स्थिविर अथवा थेरावादी तथा परिवर्तन के साथ विनय को स्वीकार करने वालों का संप्रदाय महासांघिक अथवा सर्वस्तिवादी कहा गया। प्रथम का नेतृत्व महाकच्चायन तथा द्वितीय का नेतृत्व महाकस्सप ने किया। बौद्ध संघ का यह विवाद बढ़ता गया तथा आगे चलकर दोनों संप्रदाय अट्ठारह उपसंप्रदायों में बंट गए।
3-तृतीय बौद्ध संगीति 250 या 255 ईसा पूर्व
तृतीय बौद्ध संगीति मौर्य शासक अशोक के काल में पाटलिपुत्र में बुलाई गयी।। इसकी अध्यक्षता मोग्गालिपुत्त तिस्य ने की तथा इसमें स्थविर संप्रदाय का ही बोलबाला था। मोग्गलिपुत्त तिस्य ने महासांघिक मतों का खंडन करते हुए अपने सिद्धांतों को ही बुद्ध के मौलिक सिद्धांत घोषित किया। उन्होंने 'कथावत्थु' नामक ग्रंथ का संकलन किया जो अमिधम्म पिटक के अंतर्गत आता है। इस समिति ने बुद्ध की शिक्षाओं का विभाजन नए सिरे से किया तथा उसमें अभिधम्म नामक तीसरा पिटक जोड़ दिया। इसमें धर्म के सिद्धांत की दार्शनिक व्याख्या मिलती है। इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं तीन भाग हो गये--सुत्त, विनय तथा अभिधम्म। इन्हें त्रिपिटक की संज्ञा दी जाती है। तृतीय संगति ने संघ भेद को रोकने के लिए अत्यंत कड़े नियम बना दिये तथा बौद्ध धर्म का साहित्य निश्चित एवं प्रमाणिक बना दिया गया। ऐसा लगता है कि इसी आधार पर अशोक ने संघभेद रोकने संबंधी अपनी राजाज्ञा प्रसारित की थी।
4- चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रथम शती ( 72 ई० लगभग)-- बौद्ध धर्म के चतुर्थ तथा अंतिम संगति कुषाण शासक कनिष्क के राज्य काल में कश्मीर के कुंडलवन में हुई। इसकी अध्यक्षता बसुमित्र ने की तथा अश्वघोष इसके उपाध्यक्ष बने। इस सभा में महासंघिकों का बोलबाला था। यहां बौद्ध ग्रंथों के कठिन अंशों.पर सम्यक् विचार-विमर्श किया गया तथा 'विभाषाशास्त्र' नामक टिकाओं में उसे संकलित कर दिया गया। इसी समय बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो स्पष्ट एवं स्वतंत्र संप्रदायों में विभक्त हो गया जो क्रमशः स्थविर तथा महासंघिक से उद्भूत हुए थे। महायान ने बुद्ध की लोकोत्तर एवं अमानव रूप में कल्पना कर मूर्तियों के रूप में उनकी पूजा प्रारंभ की।
महात्मा बुद्ध से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रतीक चिन्ह
कमल व सांड |
जन्म का प्रतीक |
हाथी |
बुद्ध के गर्भ में जाने का प्रतीक |
सांड |
यौवन का प्रतीक |
घोड़ा |
गृह त्याग का प्रतीक |
पीपल |
ज्ञान का प्रतीक |
शेर |
समृद्धि का प्रतीक |
पदचिन्ह |
निर्वाण का प्रतीक |
स्तूप |
मृत्यु का प्रतीक |
धर्मचक्र |
प्रथम उपदेश का प्रतीक |
बौद्ध संगीतियां (Buddhist Councils)
सभा/संगीति
|
काल |
स्थान |
अध्यक्ष |
शासक |
प्रथम |
483 ईसा पूर्व |
राजगृह |
महकस्सप |
अजातशत्रु |
द्वितीय |
383 ईसा पूर्व |
वैशाली |
सब्बकामी |
कालाशोक |
तृतीय |
250 ईसा पूर्व |
पाटलिपुत्र |
मोग्गलिपुत्त तिसय |
अशोक |
चतुर्थ |
72 ईस्वी |
कुण्डलवन कश्मीर |
वसुमित्र |
कनिष्क |
महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित महत्वपूर्ण व्यक्ति
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