उत्तराखण्ड में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का पर्यावरण पर प्रभाव
उपनिवेशवाद का स्वरूप
उपनिवेशवाद का मूल तत्व आर्थिक शोषण में निहित है। परन्तु इसका अभिप्रायः यह बिल्कुल नहीं है कि एक उपनिवेश पर राजनीतिक कब्जा बनाए रखना महत्वपूर्ण नहीं है। उपनिवेशवाद की प्रकृति मुख्यतः इसके आर्थिक शोषण के विभिन्न तरीकों से जानी जाती है। आर्थिक शोषण कुछ खास तरीकों से सम्पन्न हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि उपनिवेश राष्ट्रीय उत्पादन की एक विशेष मात्रा का उत्पादन करता है जिसका एक भाग उस उपनिवेश के रख-रखाव और निर्वाह के लिए आवश्यक होता है। इसके अलावा जो बचता है वह उस उपनिवेश का आर्थिक अधिशेष होता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उपनिवेशवाद एक ऐसी प्रक्रिया थी जो यूरोप के उप महानगरों द्वारा आरम्भ की गई जहाँ व्यापारिक या औद्योगिक क्रांति पहले हुई। अंग्रेज पहले विजेता थे जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी और इसलिए हिन्दुस्तानी सभ्यता उन्हें अपने अन्दर न समेट सकी। उन्होंने स्थानीय समुदायों को तोड़कर भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया, स्थानीय उद्योग को जड़ से उखाड़ फेंका तथा स्थानीय समाज में जो कुछ उन्नत और श्रेष्ठ था उसे मटियामेट कर दिया। भारत में ब्रिटिश शासन के ऐतिहासिक पृष्ठ विनाश की कहानी के सिवाय और कुछ नहीं कहते।
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद लगभग दो सौ वर्षों तक रहा। औपनिवेशिक हितों तथा विदेशी पूँजीवाद के प्रकार के लिए यह आवश्यक हो गया था कि भारत प्रशासनिक तथा आर्थिक दृष्टि से एक ही इकाई हो ताकि अधिक से अधिक शोषण किया जा सके। अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने भारतीय साम्राज्य के विस्तार के क्रम में 1815 में गोरखाओं के साथ सिगौली की सन्धि के उपरान्त उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की नींव डाली गई। और यह भारत की स्वाधीनता तक अनवरत चलती रही। औपनिवेशिक प्रशासकों ने गढ़वाल का आधा हिस्सा टिहरी रियासत के नाम से पंवार राजवंश को सौंपा। किन्तु परदे के पीछे शासन ब्रिटिश क्राउन का ही था।
उत्तराखंड में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का प्रवेश
उत्तराखण्ड हिमालय में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नई व्यवस्था के प्रणयन के उपरान्त इस क्षेत्र के निवासियों की जीवन पद्धति और परम्परागत आर्थिक व्यवस्था व संसाधनों के शोषण के स्वरूप में ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। प्रायः यह कहा जाता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय सामाजिक जीवन को सबसे कम प्रभावित किया। ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा आर्थिक, व्यावसायिक और औ़द्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा साम्राज्यवादी हितों के संरक्षण के लिए औपनिवेशिक चिन्तन पर आधारित नीतियां बनाई गई। इस क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक सम्पदा का अधिकाधिक दोहन किया जाने लगा और ग्रामीण जनता के प्राकृतिक अधिकारों को प्रतिबंधित किया जाने लगा। परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शासन तथा ग्रामीणों के प्राकृतिक परम्परागत अधिकारों को लेकर तत्कालीन समय में विस्तृत बहस छिड़ गयी थी परन्तु विजेता होने के कारण औपनिवेशिक हितों की ही विजय हुई। अब ग्रामीण औपनिवेशिक शासकों की कृपा कर आश्रित हो गये। बदलाव व हस्तक्षेप की इस प्रक्रिया ने उत्तराखण्ड के ग्रामीण कृषकों और वनों में निवास करने वाली आदिवासी जनजातियांे की जीवन-पद्धति व उत्पादन से जुड़े प्रत्येक कारक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसी काल में तराई-भाबर में थी थारू, बुक्सा जनजातियों की परम्परागत बस्तियां, समाप्त होने लगी। पश्चिमी हिमालय में वनो के दोहन से बढ़ते दबावों के कारण तराई क्षेत्रों की ओर गुज्जर जनजातियों का आव्रजन बड़ी संख्या में तेजी से होना प्रारम्भ हुआ समय पर उत्तराखण्ड के किसानों ने अपने परम्परागत वन्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए असन्तोष और सामूहिक प्रतिक्रिया विरोध के रूप में व्यक्त की। ग्रामीणों का असन्तोष मूलतः भू-प्रबन्ध, वन प्रबन्ध और औपनिवेशिक नीतियों का परिणाम था।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का पर्यावरण पर प्रभाव
उत्तराखण्ड में पर्यावरण की अवनति का प्रारम्भ ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा वाणिज्यिक व आर्थिक लाभ के दृष्टिकोण से तैयार की गई भू-प्रबन्ध नीति, वन प्रबन्ध नीति, व्यापारिक कृषि, चाय के बाग, और तराई-भाबर क्षेत्रों के औपनिवेशिकरण के फलस्वरूप हुई थी। रेलवे के लिए स्लीपरों व जहाजों के निर्माण की आवश्यकता पूर्ति हेतु उत्तराखण्ड के प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन कर विनाश का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
ब्रिटिश प्रशासकों को जब तराई-भाबर क्षेत्र के शीशम, साल और सागौन बहुल वनों का ज्ञान हुआ तो वे तराई-भाबर की इस वन सम्पदा के दोहन के लिए लालायित हो उठे। ब्रिटिश सरकार ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए इस क्षेत्र के बहुमूल्य वनों का मनमाफिक दोहन किया। अंग्रेजों द्वारा यहाँ पर बाहरी लोगों को आवासित कर कृषि के विस्तार की योजना बनाई गई। बाहरी लोगों के इस क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व तराई-भाबर के जंगलों में थारू और बुक्सा जनजातियों का निवास था। ब्रिटिश प्रशासक भारत को एक कृषि प्रधान उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे। क्योंकि कृषि अंग्रेजी शासन के राजस्व प्राप्ति का सबसे प्रमुख स्रोत था। और ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल की भी आवश्यकता थी इसलिए औपनिवेशिक काल में उन्नसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों तक वन विनाश की कीमत पर कृषि के विस्तार को महत्व दिया गया।तराई-भाबर में गांव बसाने और वहाँ पर कृषि विस्तार की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश प्रशासकों की यही नीति छिपी हुई थी। इस प्रकार तराई-भाबर मंे खाम अर्थात अस्थायी भू-व्यवस्था की गई थी। खाम व्यवस्था का उद्देश्य अधिक से अधिक गांव बसाना होने के कारण तराई-भाबर के वनों की सुरक्षा को अनदेखा कर दिया गया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशक तक इस क्षेत्र के वन अत्याधिक तादात में नष्ट हो गये। इन सब कारणों से यहाँ का पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हुआ और इस क्षेत्र के मूल निवासियों थारू और बुक्सा जनजातियों और पशुचारक गुज्जर जनजातियों की पारम्परिक जीवन-पद्धति छिन्न-भिन्न हो गई और उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
निष्कर्ष
इस प्रकार उपनिवेशवादी प्रशासनिक तंत्र के प्रभाव से उत्तराखण्ड में विभिन्न उत्पादन के स्वरूपों का विघटन हुआ। पशुचारक, झूम कृषक, स्थायी कृषक, आखेटक व संग्राहक वनवासी सभी का परम्परागत आर्थिक तंत्र विघटित हुआ और नए आर्थिक परिवेश में परिवर्तन की त्वरा अधिक गतिशील हो गई। उत्तराखण्ड जहाँ अनेक जीवनदायी नदियों का उद्गम स्थल है वहीं विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वन सम्पदा का स्वर्ग है। यहाँ अनेक मनमोहक दृश्य हैं जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विभिन्न प्रकार की औषधियां यहाँ प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं। प्रधान और लघु हिमालय मिलकर इस क्षेत्र को और अधिक महत्वपूर्ण बना देते है। तराई-भाबर का उपजाऊ क्षेत्र जहाँ खेती के लिए प्रसिद्ध है तो अनेक उपयोगी वनोत्पाद के लिए भी जाना जाता है। कोसी और रामगंगा जैसी प्रमुख नदियां तराई-भाबर को सिंचित करती हुई गंगा में मिल जाती हंै। पारिस्थितिक संस्कृति के दृष्टिकोण से उत्तराखण्ड की अधिकांश जनता आज भी अपने परम्परागत कार्य खेती से जुडे़ है यद्यपि पलायन एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने है जिसका सीधा प्रभाव उत्तराखण्ड की पारिस्थितिक संस्कृति पर पड़ा है। वन विनाश के कारण पशुपालन में कमी आयी है और चारागाह भूमि भी सिमटती जा रही है। परम्परागत रूप से उत्तराखण्ड समाज धार्मिक रूप से अत्याधिक संवेदनशील है और विभिन्न देवीय स्थलांे की उपस्थिति के कारण यह धरती का स्वर्ग कहा जाता है। परन्तु औपनिवेशिक प्रशासकों की आर्थिक एवं कृषि प्रबन्धन की नीतियों ने उत्तराखण्ड की ग्रामीण जनता को उसके प्राकृतिक अधिकारों से बंचित कर उनकी संस्कृति पर कुठाराघात किया। देवीय अनुमति से संचालित होने वाले कार्य अब ब्रिटिश प्रशासकों की नीतियों के मोहताज हो गये थे। स्वतन्त्रता के पश्चात भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है क्योंकि राज्य की 65 प्रतिशत से अधिक भूमि पर राजकीय नियन्त्रण होने के कारण अब भी उत्तराखण्ड की ग्रामीण आबादी दयनीय स्थिति में जीवन व्यतीत कर रही है।
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