उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा वन प्रबन्ध सम्बन्धी नीतियां
वर्तमान राज्य उत्तराखण्ड जिस भौगोलिक क्षेत्र पर विस्तृत है उस इलाके में ब्रिटिश शासन का इतिहास उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से लेकर भारत की आजादी तक का है। ज्ञात है कि उत्तराखण्ड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन 1815 में हुआ। इससे पूर्व यहाँ नेपाली गोरखों का शासन था। यह भी माना जाता है कि गोरखा शासकों द्वारा इस इलाके के लोगों पर किये गये अत्याचारों को देखकर ही अंग्रेजों का ध्यान इस ओर गया। यद्यपि अंग्रेजों और नेपाली गोरखाओं के बीच लड़े गये गोरखायुद्ध के अन्य कारण भी थे।
सगौली की सन्धि 4 अप्रैल 1816
अल्मोड़ा में 27 अप्रैल, 1815 को गोरखा प्रतिनिधि बमशाह और लेफ्टिनेंट कर्नल गार्डनर के बीच हुई एक सन्धि के बाद नेपाली शासक ने इस क्षेत्र से हट जाने को स्वीकारा और इस क्षेत्र क्षेत्र पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकार हो गया। अंग्रेजों का इस क्षेत्र पर पूर्ण अधिकार 04 अप्रैल, 1816 को सुगौली की सन्धि के बाद इस पूरे क्षेत्र पर हो गया और नेपाल की सीमा काली नदी घोषित हुई। अंग्रेजों ने पूरे इलाके को अपने शासन में न रख अप्रैल 1815 में ही गढ़वाल के पूर्वी हिस्से कुमायूं के क्षेत्र पर अपना अधिकार रखा और पश्चिमी हिस्सा सुदर्शन शाह जो गोरखों के शासन से पहले गढ़वाल के राजा थे को सौंप दिया जो अलकनन्दा और मंदाकिनी नदियों के पश्चिम में पड़ता था।
इस प्रकार गढ़वाल दो हिस्सों में बंट गया, पूर्वी हिस्सा जो कुमायूं के साथ ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया ‘‘ब्रिटिश गढ़वाल’’ कहलाया और पश्चिमी हिस्सा राजा सुदर्शनशाह के शासन में इसकी राजधानी टिहरी के नाम पर टिहरी गढ़वाल कहलाने लगा। टिहरी को राजा सुदर्शन द्वारा नयी राजधानी बनाया गया था क्योंकि पुरानी राजधानी श्री नगर अब ब्रिटिश गढ़वाल में आती थी। ब्रिटिश गढ़वाल को बाद में 1840 में यहाँ पौड़ी में असिस्टेंट कमिश्नर की नियुक्ति के बाद इस क्षेत्र को पौढ़ी गढ़वाल भी कहा जाने लगा, जबकि इससे पहलेयह नैनीताल स्थित कुमायूं कमिशनरी के अन्तर्गत आता था। दूसरी ओर कुमायूं क्षेत्र के पुराने शासक चंद राजा को यह अधिकार नहीं मिला और यह ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया और ब्रिटिश चीफ कमीशनशिप के अन्तर्गत शासित लगा। जिसकी राजधानी (कमिश्नरी) नैनीताल में स्थित थी। भारत की आजादी तक टिहरी रजवाड़ा और ब्रिटिश शासन के अधीन रहा यह क्षेत्र आजादी के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में मिला दिया गया।
उत्तराखंड में दो प्रकार की शासन व्यवस्था
इस प्रकार अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद सन् 1815 से 1949 तक उत्तराखण्ड दो भिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं, टिहरी रियासत की राजशाही व शेष उत्तराखण्ड की ब्रिटिश शासन व्यवस्था के अधीन संचालित होने लगा। परन्तु मूल रूप से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से एक समान था। स्पष्ट था कि अंग्रेजों के आगमन के पश्चात प्रथम बार दो भिन्न-भिन्न प्रकार की शासन पद्धतियों के अन्तर्गत उत्तराखण्ड का जनमानस शासित होने लगा। इस प्रकार टिहरी रियासत और कुमायूं डिवीजन में विशेष रूप से प्रशासन के तौर-तरीकों में मूलभूत परिवर्तन आ गया था। कुमायूं कमिश्नरी की ब्रिटिश सरकार और जनता, जातीयता और भाषायी दृष्टिकोण से एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न थे। उत्तराखण्ड में एक ओर टिहरी रियासत में शताब्दियों पूर्व से चली आ रही परम्परागत राजशाही थी तो दूसरी ओर अंग्रेजो की औपनिवेशिक सरकार का अधिकारों से परिपूर्ण अधिकारी तंत्र था।
ऐतिहासिक पुनरावलोकन
उत्तराखण्ड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी शासन व उसके बाद ब्रिटिश क्राउन के शासन स्थापना से पूर्व गढ़वाल तथा कुमायूं लगभग बारहवीं शताब्दी तक कत्यूरी वंश के शासन व्यवस्था के अन्तर्गत शासित था जिन्होंने पहले अलकनंदा घाटी में जोशीमठ से व बाद में अल्मोड़ा जिले की कत्यूर घाटी से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड पर कई शताब्दियों तक शासन किया। कत्यूरी शासकों का राज्य क्षेत्र पश्चिम में सतलज से पूर्व में गण्डक तक तथा उत्तर में बर्फ से ढके उच्च शिखरों से लेकर दक्षिण के मैदानी भागों तक जिसमें सम्पूर्ण रूहेलखण्ड क्षेत्र शामिल था-तक फैला हुआ था।
बारहवीं शताब्दी में पश्चिमी नेपाल के मल्लवंश ने उत्तराखण्ड को जीत लिया। मल्लवंश की यह विजय कत्यूरी वंश के पतन का कारण बनी। परिणाम स्वरूप कत्यूरियों के पतन का लाभ उठाकर उत्तराखण्ड क्षेत्र में कई स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों का आकार कुछ गांव के क्षेत्र बराबर था। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार इस समय गढ़वाल में लगभग (52) छोटे-छोटे राज्य थे। दूसरी और शिव प्रसाद डबराल ने इन राज्यों की संख्या 64 बताई है। इस प्रकार केन्द्रीय शासन के पतन तथा छोटी-छोटी रियासतों के उद्भव के बाद किसी भी शासक के लिए सैन्य बल के सहारे यथेष्ट संचार प्रणाली को बनाए रखना सरल कार्य नहीं था। गढ़वाल में यह कार्य और भी कठिन था, क्योंकि यहाँ के मार्ग अत्यन्त दुरूह एवं उबड़-खाबड़ थे। गढ़वाल की तुलना में कुमायूं की भौगोलिक दुर्गमता कम थी। चैड़ी उपजाऊ घाटियां पर्याप्त मात्रा में अधिशेष उत्पादन की क्षमता रखती थीं तथा अधिक लोगों का भरण-पोषण कर सकती थीं। कुछ लोग अधिशेष उत्पादन के सहारे कृषि से इतर अन्य कार्य भी कर सकते थे। अतः यह एक विशेष कारण रहा कि कुमायूं में प्रत्येक विस्तृत घाटी एक रियासत का केन्द्र बिन्दु बन गई और पर्याप्त शक्ति अर्जित कर उसने अपने आस-पास की छोटी-छोटी घाटियों को जीतने की क्षमता तथा शक्ति हासिल कर ली थी। विभिन्न अभिलेखों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि कत्यूरी घाटी, पाली के ज्ञात उत्तर कत्यूरियों को जोड़कर पूर्वी कुमायूं में सात रियासतें-काली कुमायूं (चम्पावत), सोर, अस्कोट, गंगोलीहाट सीरा, कत्यूर और पाली थी। ये स्वतंत्र रियासतें इस काल में स्थापित हो गयी।
गढ़वाल का एकीकरण-
राजा अजयपाल (सन् 1500 से 1519 तक) पंवार वंश के 37 वें शासक थे। इन्होंने गढ़वाल क्षेत्र के सभी गढ़ों को जीतकर एक विशाल राज्य की नींव रखी गढ़वाल के एकीकरण का श्रेय इन्हें ही जाता है। इन्होंने राज्य विस्तार के बाद अपनी राजधानी चाँदपुर गढ़ी से देवलगढ़ (सन् 1512) स्थानान्तरित की और अंततः सन् 1517 में श्रीनगर। निसंदेह ही राजा अजयपाल को गढ़वाल क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली राजा माना जाता है। इन्होंने ही कत्यूरी शासकों से स्वर्ण सिंहासन छीना था। कनकपाल इस वंश का पूर्व पुरूष था।
कुमायूं का एकीकरण
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार चम्पावत के निकट कच्छप (कछुआ) की पीठ आकृति के समान कानादेव या कान्तेश्वर पहाड़ी पर भगवान विष्णु का कुर्मावतार हुआ था अतः क्षेत्र का नाम कुमु पड़ा। कुमायूं शब्द का प्रथम उल्लेख अबुल फजल की पुस्तक आइने अकबरी में मिलता है अभीलेखीय साक्ष्यों में नागनाथ के अभिलेख से मिलता है।
कुमायूं में सबसे पहले कत्यूरी राजाओं ने शासन की बागडोर संभाली। राहुल सांकृत्यायन ने इस समय को सन् 850 से 1060 तक माना है। कत्यूरी शासकों की राजधानी पहले जोशीमठ थी, परन्तु बाद में यह कार्तिकेयपुर हो गयी। कत्यूरी वंश के अंतिम राजाओं की शक्ति क्षीण होने पर छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गये। ऐसे में चन्द्रवंशी शासन की स्थापना हुयी। बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार चन्द्र वंश का प्रथम शासक सोमचन्द्र 700 ई0 के आसपास गद्दी पर बैठा। इस प्रकार कुमायूं में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। कुमायूं का एकीकरण राजा रूद्रचन्द ने किया तथा सम्पूर्ण कुमायूं में चन्द वंश का शासन स्थापित किया। पंवार तथा चन्द्र राजाओं ने शीघ्र ही अपने-अपने शासन तंत्र को सुदृढ़ किया। इन राजाओं ने राज्यों की सीमाएं भी राज्य के सदृढ़ीकरण में सहायक हुई। गढ़वाल तथा कुमायूं दोनों राज्यों की उत्तरी सीमाएं महाहिमालय के हिमाच्छादित शिखरों तथा दक्षिणी सीमा शिवालिक की पहाड़ियों से सुरक्षित थी। इस प्रकार उत्तराखण्ड में गढ़वाल तथा कुमायूं दो अलग-अलग राज्यों का उद्भव एक महान युग का प्रारम्भ था। उसके बाद उत्तराखण्ड में उन सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृति तत्वों का विकास हुआ। जिसने आधुनिक उत्तराखण्ड के सामाजिक सांस्कृतिक स्वरूप का निर्धारण किया।
अन्य राजशाही राज्यों के समान दोनों ही पर्वतीय राज्यों में राजा की शक्ति का प्रमुख स्रोत राज्य के प्रभावशाली लोग ही थे। ये लोग अपने रिश्तेदारी समूहों से शक्ति प्राप्त करते थे। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार की थी जिस प्रकार जनजातीय समूहों में पायी जाती है। इस काल में भू-प्रशासन, वन प्रशासन तथा अन्य मामलों में लोगों को स्वायत्ता प्राप्त थी। राज्य में होने वाली आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का कोई नियन्त्रण नहीं था। लोग घरेलू और बाहरी व्यापार में लगे थे। सर्वविदित है कि उत्तर में महाहिमालय की ऊंची घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति सैकड़ों वर्षों से तिब्बत के साथ व्यापार कर रही थी। यह व्यापार दर्रो के रास्ते था। व्यापार प्राकृतिक व कृषि उत्पादों का ही होता था। यह व्यापार सिर्फ तिब्बत या घरेलू बाजार तक सीमित नहीं था ऐसी अनेक वस्तुओं का व्यापार उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों तक होता था। इस प्रकार पहाड़ के राजाओं की आय का प्रमुख स्रोत इन व्यापारियों से मिलने वाला आयात-निर्यात कर था। इस कर के बदले राज्य व्यापारियों को चोर डकैतों से सुरक्षा प्रदान करता था।
मध्यकालीन शेष भारत के सामान ही कृषि राजस्व प्राप्ति का प्रमुख स्रोत था। कर प्राप्ति का दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत जनता पर लगने वाला रक्षा कर था जो प्रत्येक व्यक्ति से वसूला जाता था। जलमार्गों के उपयोग पर मार्ग कर तथा अपराधियों आदि से भी दण्ड के रूप में राज्य को राजस्व प्राप्त होता था। राज्य के कनिष्ठ अधिकारी नगद धनराशि देय के रूप में राजकोष में जमा करते थे। मन्दिरों की व्यवस्था हेतु कुछ गूंठ क्षेत्र विशेष राज्य द्वारा अधिकृत किये गये थे। इनसे प्राप्त होने वाला समस्त कर मन्दिर को दिया जाता था। तथा यह प्रथा कुमायूं और गढ़वाल में समान रूप से प्रचलित थी। एम0पी0 जोशी स्पष्ट करते हैं कि राज्य की कुछ ऐसी मांगे भी थी जो जाति के अनुसार अलग-अलग वसूली जाती थी। एस0एस0 नेगी नेे भी विभिन्न स्रोतों के आधार पर स्पष्ट किया है कि कत्यूरी शासनकाल में डोटी-डाव्डेर धूरा (प0 नेपाल) से टोंस नदी तक के सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में एक समान सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रचलित थी। बाद में पंवारों के अधीन गढ़वाल राज्य में तथा चन्दों के अधीन कुमायूं राज्य में न्यूनाधिक मात्रा में प्रशासन का स्वरूप लगभग एक समान ही रहा है। परन्तु इन राज्यों में आपसी कलह का एक दुष्परिणाम भी सामने आया जब नेपाल के एकीकरण के पश्चात इस दोनों राज्यों को गोरखों के आक्रमण तथा उसके होने वाले दुष्परिणामों की झेलना पड़ा।
उत्तराखंड पर गोरखों का अधिकार
उत्तराखण्ड में गोरखा शासन की स्थापना निरन्तर होने वाले आक्रमणों के परिणाम स्वरूप 1790 में कुमायूं तथा 1804 में गढ़वाल पर गोरखों ने विजय प्राप्त की। इस प्रकार इस क्षेत्र पर गोरखा शासन के पश्चात वर्षो की राजनीतिक व सामाजिक ताना-वाना छिन्न-भिन्न हो गया। प्रशासन तंत्र अब वंशानुगत राजशाही के स्थान पर गोरखा सैनिकों का तानाशाही निरंकुश शासन चलने लगा। तत्पश्चात गोरखों ने सुविधानुसार भूमि व राजस्व कर का निर्धारण किया। कर वसूली के लिए जनता पर अत्याचार किये गये क्योंकि करों की दर पूर्व शासकों से ज्यादा थी। गोरखो ने जनता को अनेक परम्परागत अनेक अधिकारों से बंचित कर दिया। इस प्रकार एक ऐसी नवीन राजनीतिक व्यवस्था का उदय हुआ जो पूर्व के शासन से ज्यादा केन्द्रीयकृत व निरंकुश थी। जिन लोगों ने कर का समय पर भुगतान नहीं किया उन्हें दास बनाकर बेचा गया। इस प्रकार गोरखों ने इस क्षेत्र पर घोर अत्याचार किये। यद्यपि गोरखों का यह शासन अल्कालीन ही था परन्तु इतिहास में गोरखों के शासन को अत्याचारी शासन के रूप में ही व्याख्यायित किया गया है।
गोरखों के अत्याचारी शासन का अन्त ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा किया गया। 1815 में अंग्रेजों ने गोरखों को परास्त किया। इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने साम्राज्य विस्तार के इस क्रम में 1815 में गढ़वाल व कुमायूं को कम्पनी शासन के नियन्त्रण में कर दिया। मार्च 1816 की सिगौली की सन्धि द्वारा ऐंग्लो-गोरखा प्रतिद्वन्द्विता का अन्त हो गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन ने गढ़वाल को दो भागों में बाँट दिया। इसके पश्चिमी भाग को टिहरी रियासत कहा गया और गढ़वाल के अन्तिम राजा प्रद्युम्न शाह के पुत्र सुदर्शन शाह को इसका वंशानुगत प्रशासक घोषित किया गया। इस प्रकार गढ़वाल राज्य के पूर्वी भाग और कुमायूं पर कम्पनी ने अपना अधिकार स्थापित किया। उत्तराखण्ड के इस सम्पूर्ण भू-भाग को कुमायूं मण्डल घोषित किया गया। इस क्षेत्र के प्रशासन के लिए एक कमिश्नर की नियुक्ति की गयी।
उत्तराखंड में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उद्देश्य तथा प्रशासनिक नीतियां
उत्तराखण्ड राज्य का तिब्बत के साथ व्यापार प्राचीनकाल से ही हो रहा था। विभिन्न दर्रों के माध्यम से व्यापारी एक दूसरे के साथ जुड़े थे। अतः साम्राज्य की प्रतिरक्षा व वाणिज्यिक लाभ की दृष्टि से यह क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए महत्वपूर्ण हो गया था। इन दोनों कारणों से ब्रिटिश प्रशासन की भूमिका को काफी हद तक प्रभावित किया था।
तत्कालीन भारत सचिव ने 15 जनवरी, 1815 को कुमायूं की जनता को सम्बोधित करते हुए एक पत्र लिखा था तथा घोषणा की कि ‘‘ब्रिटिश सरकार शीघ्र अति शीघ्र कुमायूं की जनता को अत्याचारी शासन के चंगुल से आजाद करके उनकी सहायता करने का अवसर प्राप्त करना चाहती है। 23 जून, 1815 को गढ़वाल की जनता के नाम लिखे पत्र में एडम न दोहराया है कि ‘‘ब्रिटिश सरकार गढ़वाल के निवासियों को अत्याचारी शासकों के शासन से मुक्ति दिलाने का अवसर प्राप्त करके उनकी सहायता करना चाहती है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजी सहानुभूति के पीछे ब्रिटिश शासकों का साम्राज्यवादी दृष्टिकोण काम कर रहा था जो कुमायूं गढ़वाल की जनता का समर्थन अपने पक्ष में करना चाहते थे और अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ भी उठाया। परिणामस्वरूप गोरखों के विरूद्ध पहाड़ की जनता ने अंग्रेजो का साथ दिया। उत्तराखण्ड में सुव्यवस्था स्थापित करने के नाम पर ब्रिटिश सरकार ने साम्राज्य की उत्तरी सीमा की सुरक्षा तथा व्यापार व वाणिज्य के लाभ को भी प्राप्त करना अंग्रेजो का उद्देश्य था। इस बात की पुष्टि के लिए 11 मई, सन् 1815 को अर्ल आफ मारिया गवर्नर जनरल हेस्टिग्स का सीक्रेट कमेटी को भेजे पत्र तथा 14 दिसम्बर 1814 को एडम द्वारा लिखे गए पत्र का अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि कुमायूं को कम्पनी के भारतीय साम्राज्य में मिलाने के पीछे निहित स्वार्थ के लिए प्रमुख कारण उत्तरदायी थे।
1. तत्काल पर्याप्त राजस्व की प्राप्ति।
2. कुमायूं नेपाल राज्य के साथ सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण।
3. कुमायूं से तिब्बत का व्यापार जो कम्पनी के व्यापार के क्षेत्र को विस्तार देता।
4. व्यापारिक लाभ के लिए महत्वपूर्ण।
5. सीमांकन क्षेत्र की स्थापना व पहाड़ी सीमाओं की रक्षा हेतु।
इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराखण्ड में ब्रिटिश शासन की स्थापना सिर्फ व्यापारिक व आर्थिक हितों के लाभ के लिए की थी। निःसंदेह राजनीतिक महत्वकांक्षाएं बाद की परिस्थिति का परिणाम थी।
प्रशासनिक नीति (गैर विधि सम्मत प्रशासन तंत्र)
कम्पनी के निहित हितों के एकमात्र एकाधिकार को तोड़ने के उद्देश्य से भी विरोधी हितों ने शक्तिशाली बनने के लिए अपने को संगठित किया। वास्तव में इस अधिकार पर आक्रमण की शुरूआत मुक्त व्यापार के जनक क्लासिकी अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ द्वारा (उनकी पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशन्स के प्रकाशित होने पर) 1776 में की जा चुकी थी। 1782-83 में परिवर्तन के लिए यह मांग हाउस ऑफ काॅमन्स की प्रवर समिति के समक्ष लाई गई और 1783 में काॅर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स एण्ड प्रोप्राइटर्स को समाप्त करने के लिए एक बिल संसद के सामने पेश किया गया जिसे फाॅक्स का भारतीय विधयेक(fox india bill ) के नाम से जाना जाता है। यह बिल सदन में गिर गया। जिसके कारण फाॅक्स की सरकार भी गिर गई और उसका स्थान पिट की सरकार ने ले लिया। 1788 में संसद में वारेन हेस्टिंग्ज पर चलाया गया महाभियोग एक व्यक्ति पर आक्रमण न होकर कंपनी द्वारा स्थापित व्यवस्था पर एक बड़ा हमला था। किन्तु इसी बीच फ्रांसीसी क्रांति के कारण संसद में यह हमला ठंडा पड़ गया और बर्क के भाषणों के लहजे़ में परिवर्तन आ गया। 1813 में फ्रांसीसी युद्ध के समाप्त होने पर इस प्रश्न को फिर उठाया गया और यह प्रक्रिया 1858 तक जारी रही जब तक कि यह कार्य पूर्ण नहीं हो गया। इन नये उपायों का उद्देश्य कंपनी से सम्बन्धित कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के एकाधिकार को तोड़कर, सम्पूर्ण ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग के हित में, वैज्ञानिक ढंग से भारत का शोषण करना था।
ब्रिटिश शासनकाल में दो प्रकार के प्रशासनिक तंत्रों को लागू किया गया था। एक वह तंत्र था जो कि पुराने ब्रिटिश प्रान्तों में अपनाया गया था। इन प्रांतों को विधि तंत्रीय प्रान्त कहा जाता था। इन प्रांतों में प्रशासन का भार अलग-अलग लोगों पर था जो अपना कार्य विधि के अनुसार करते थे। दूसरी प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था जिसे छवद त्महनसंजपवद गैर विधि तंत्रीय कहा जाता है उन क्षेत्रों में लागू थी जो पुराने प्रांतों के बाद शनैः शनैः समय के साथ-साथ अंग्रेजी राज्य में आये। इन नये प्रांतों में पुराने प्रांतों की व्यवस्था के लिए प्रचलित नियम कानून लागू नहीं किये जाते थे। कुछ ही अधिकारियों को इन नये प्रांतों में न्यायिक व प्रशासनिक व्यवस्था सम्बन्धी दोनों कार्यों को करने का अधिकार प्राप्त था।
इसी प्रकार की व्यवस्था उत्तराखण्ड में भी लागू की गयी। सन् 1815 में गोरखों से कुमायूं की विजय के बाद कुमायूँ में भी कुछ वर्षो तक प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था को गैर विधि तंत्रीय प्रान्त की व्यवस्था की तरह संचालित किया गया था। व्यावहारिक रूप से छवद त्महनसंजपवद शासन व्यवस्था को ऐसे क्षेत्रों में लागू किया गया था जहाँ कि पूर्व में एक सामान्य शासन व्यवस्था और अलग-अलग अधिकारी अपने क्षेत्रों के शासन प्रबन्ध के लिए नियम अपनी-अपनी सुविधा व योग्यता के अनुसार बनाया करते थे। जहाँ तक कुमायूं में ब्रिटिश शासन व्यवस्था का प्रश्न है तो यहाँ की प्रारम्भिक काल में शासन प्रबन्ध व न्याय व्यवस्था एक ही व्यक्ति के हाथ में सौंपी गयी थी इसके पीछे ब्रिटिश सरकार की मंशा भारत में एक केन्द्रीयकृत शासन व्यवस्था की स्थापना करना था। यही कारण था कि कुमायूं के लिए प्रशासक की नियुक्ति सीधे केन्द्रीय सरकार के द्वारा की गई। कुमायूं में पहला कमिश्नर 1815 में गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिग्स द्वारा ई0 गार्डनर को नियुक्त किया गया। दोनों ब्रिटिश शासकों गार्डनर तथा ट्रेल ने कुमायूं डिवीजन गवर्नर जनरल के व्यक्तिगत प्रतिनिधि के रूप में शासन किया। चूँकि उत्तराखण्ड की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक स्थिति भिन्न थी इसलिए तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेन्सी में लागू रेग्यूलेशन को औपनिवेशिक शासकों (अंग्रेजो) ने उत्तराखण्ड में लागू करना ठीक नहीं समझा। अतः प्रशासनिक, न्यायिक एवं राजस्व से सम्बन्धित संचालन और प्रबन्ध के अधिकार कमिश्नर के हाथों में केन्द्रित कर दिए गए।
उत्तराखण्ड को विजित करने के बाद सबसे पहला कार्य सीमा निर्धारण था जिसके लिए स्थानीय गढ़वाल नरेश तथा नेपाल राज्य के साथ साम्राज्य की सीमाओं का निर्धारण करना आवश्यक हो गया। क्योंकि औपनिवेशिक शासकों के आर्थिक व राजनीतिक हित इसी से सुरक्षित होते। अतः गार्डनर ने शीघ्रतापूर्वक केन्द्रीय सरकार के दिशा निर्देशानुसार सीमाओं के निर्धारण का कार्य पूर्ण किया। कुमायूं के कमिश्नर के रूप में गार्डनर का अधिकांश कार्यकाल राजनीतिक मामलों को हल करने में ही बीता। जिसके कारण वह प्रशासन के अन्य मामलों की ओर वह ज्यादा समय नहीं दे पाया।
1839 में कुमायूं कमिश्नरी को कुमायूं तथा गढ़वाल में विभाजित किया गया। 1858 में भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन का नियन्त्रण ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश सरकार (क्राउन) को सौंपे जाने के बाद प्रशासनिक दृष्टि से पहला परिवर्तन 1871 में देहरादून को सहारनपुर जिले से अलग करके एक स्वतंत्र जिला घोषित किया। 1891 में कुमायूं के छः तथा तराई के सात परगनों को मिलाकर नैनीताल जिले का और कुमायूं जिले के शेष भाग से अल्मोड़ा का गठन किया गया। ट्रेल कुमायूं में औपनिवेशिक शासन का वास्तविक संस्थापक माना जाता है उसने कुमायूं में अपने अनुकूल शासन व्यवस्था स्थापित की। कोई स्थानीय कानून नहीं था, नीतियां नहीं थी। वह स्वयं कानून निर्माता था। परन्तु अब कुमायंुनी लोग इनकी कानूनी सम्बन्धी नीतियों को समझने लगे और उनके मन मंे आक्रोश के बीज बड़ी तेजी से पनपने लगे थे। जिसके प्रमाण यहाँ के कवियों की रचनाओं से भी प्रकट होते हैं। इनमें मुख्यतः गुमानी की उपलब्ध कविताओं से कम्पनी का चरित्र प्रकट होता। यहाँ के एक और कवि कृष्णा पाण्डे (1800-1850) जो ट्रेल के समकालीन थे और तत्कालीन व्यवस्था के प्रखर आलोचक भी, ने यह जागृति जारी रखी तथा अपनी कविताओं के माध्यम से कंपनी राज के अन्तर्विरोधो को बखूबी रेखांकित किया-
कलकत्ता बटि फिरंगी आयो,
जाल जमाल का बीजा बाँधि लायो।
फिरंगी राजा कलि अवतार,
आपण पाप ले औरन मार।
उत्तराखण्ड में कम्पनी शासन काल के प्रारम्भिक दौर में सरकार अधिकाधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से राजस्व के समस्त संसाधनों का पता करने के लिए सर्वेक्षण कार्य किए। कमिश्नर को स्पष्ट आदेश दिये गये कि वह कुमायूं में स्थित खानों की जानकारी तथा तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार से सम्बन्धित सभी जानकारी एकत्र करें। फलस्वरूप अत्याधिक काम के बोझ से दबे गार्डनर ने एक सहायक की मांग की।
अंग्रेजों को प्रारम्भ में कुमायूँ डिवीजन में राजस्व के सभी स्रोतों, यहाँ की स्थानीय परम्पराओं और मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी नहीं थी। सरकार का मानना था कि जब तक विभिन्न पक्षों की प्रभावी ढ़ंग से सटीक जांच-पड़ताल नहीं की जाती तब तक राजस्व से सम्बन्धित व्यवस्था को सही ढ़ंग से लागू नहीं किया जा सकता। चूँकि सरकार का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक राजस्व प्राप्त करना था जिसके लिए एक प्रभावी राजस्व व्यवस्था आवश्यक भी इसलिए सरकार जल्दबाजी में कोई व्यवस्था लागू नहीं करना चाहती थी। फलस्वरूप गोरखा के समय से प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था को ही अस्थायी रूप से चलने दिया गया। इस व्यवस्था में राजस्व के रूप में वस्तुओं को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु ट्रेल ने वस्तुओं के बदले नगद की मांग की। भोटिया गांव से पूर्व की सरकार राजस्व संग्रह के रूप में वस्तु और नगद आधा-आधा बसूलती थी परन्तु ट्रेल ने भोटिया गांव से भी राजस्व पूर्ण रूपेण नगद में मांगा। इस दौर में व्यापारियों पर लगाये जाने वाले आयात-निर्यात कर को भी अस्थायी रूप से गोरखा शासन के अनुसार ही रखने का निश्चय किया गया।
इससे पूर्व परमार राजाओं और गोरखों के शासन में सभ्य नाम की कोई चीज नहीं थी। कृषकों को भूमि का स्वामित्व नहीं दिया जाता था और भूमि का स्वामी राजा होता था। बहुसंख्यक कृषकों को केवल जोत का काम सौंपा जाता था। अतः लगान या कर न चुका पाने वाले कृषकों को जमीन से बेदखल कर उनकी सम्पत्ति या मवेशी बेचकर लगान बकाया बसूलना आम बात थी। इस तरह वसूली सम्भव न हो तो कृषकों और उनके परिजनों को गुलाम के रूप में बेच दिया जाता था। ऐसे भी उदाहरण हैं जब गोरखों ने सम्पूर्ण गांव के कर न चुकाने पर पूरा गांव जला डाला। गोरखों ने अपने संक्षिप्त शासनकाल जिसे गोरख्याणी कहते हैं के दौरान कुमायूं और गढ़वाल में किये गये विध्वंस पर शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखण्ड का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास’ का पूरा पाँचवा खण्ड लिखा है।
कुमायूं डिवीजन में सम्पत्ति की अवधारणा कृषकों, काश्तकारों की स्थिति, माल गुजारों के मध्य अधिकारों तथा जिम्मेदारियों का विभाजन, लोगों की परम्परागत अधिकारों की परिभाषा तथा राज्य द्वारा राजस्व को एकत्रित करने के तौर तरीके अंग्रेजी साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न थे। कठिन भौगोलिक परिस्थतियों के कारण गांव एक दूसरे से काफी दूरी पर स्थित थे। स्तरीय सड़कों और संचार के साधनों का अभाव था। अतः पहाड़ में आवासित जनता की सम्पत्ति का सही-सही आंकलन नहीं किया जा सकता था। परिणाम स्वरूप सन् 1816 में राजस्व प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने तथा उसकी उचित देखभाल के लिए कुमायूं डिवीजन को बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स के अधीन कर दिया। इस प्रकार अब राजस्व के निर्धारण के लिए बोर्ड ऑफ कमिश्नर्स से निर्देश प्राप्त होने लगे परन्तु ट्रेल के समय तक उपर्युक्त कठिनाइयों के कारण विभिन्न बन्दोबस्त को अमल में लाते समय सरकार द्वारा निर्देशित विधि के अनुसार राजस्व का निर्धारण व भू-बन्दोबस्त नहीं किया जा सकता था। ट्रेल के बाद राजस्व के ठीक-ठीक निर्धारण के लिए केन्द्रीय सरकार का कुमायूं प्रशासन पर दबाव बना हुआ था। अतः 1838 में विधि के द्वारा कुमायूं डिवीजन को राजस्व प्रशासन हेतु सदर बोर्ड ऑफ रेवन्यू के नियन्त्रण में लाया गया। सदर बोर्ड का स्पष्ट निर्देश था कि भूमिधरों के, अधिकारों, उत्तर दायित्व, भूमि का विस्तार व भूमि की क्षमता की व्यापक जांच कर इसका बारीकी से व सही-सही ब्यौरा तैयार किया जाये ताकि राजस्व कर ठीक-ठीक निर्धारित किया जा सके। कमिश्नर बैटन (1848-56) ने अपनी भू-व्यवस्थाओं में काश्तकारों के सत्वों का ठीक-ठीक निर्धारण करने का प्रयास किया। इससे राजस्व निर्धारण की समस्या का निर्धारण करने में सहायता मिली। बैटन के बाद रामजे (1856-84) तथा कुमायूं के अन्य कमिश्नरों के समय में राजस्व प्रशासन एवं प्रबन्ध का शनैः-शनैः विकास होता था।
इस प्रकार उन्नीसवीं सदी के अन्त तक कुमायूं मण्डल Non Regulation प्रदेश से Regulation प्रदेश में परिवर्तित हो गया। डिवीजन की प्रशासनिक व्यवस्था के संचालन के लिए क्रमबद्ध रूप से समय पर कानून बनाए गए और प्रशासनिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान की। प्रारम्भ में जब शासन व्यक्तिगत प्रकार का था और कमिश्नर का पत्र व्यवहार सीधे गवर्नर जनरल के साथ होता था उस समय तक प्रशासनिक तथा न्यायिक व्यवस्थाओं के लिए नियमों को निर्धारित करने की जिम्मेदारी कमिश्नर की होती थी। ऐसे शासन के निरंकुश होने का भय था। कमिश्नर ट्रेल के समय तक यही स्थिति बनी रही। बाद में प्रशासन को प्रान्तीय तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा नियन्त्रित किया जाने लगा। इस प्रकार कमिश्नर की स्वायत्ता पर अंकुश लग गया। और कुमायूं में सरकार ने प्रगतिशील व सुदृढ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की ओर ध्यान गया। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक कानूनों को बनाने के लिए विचार किया जाने लगा। इस प्रकार प्रशासन के विकेन्द्रीकरण का प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भिक वर्षों में ब्रिटिश गढ़वाल को कुमायूं कमिश्नर के साथ-साथ एक परगने के रूप में संलग्न किया गया था। बाद के वर्षो में गढ़वाल, अल्मोड़ा तथा नैनीताल को अलग-अलग समय में प्रशासनिक सुविधा हेतु अलग-अलग जिलों के रूप में सृजित किया गया। जिलों को पुनः तहसीलों में विभाजित किया गया। राजस्व प्रशासन को विभिन्न परगनों में विभाजित किया गया। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कमिश्नर को पुलिस सुपरिन्टेण्डेण्ट के समान अधिकार दिये गये थे। इसके अतिरिक्त तहसीलदार, कानूनगों, पटवारी राजस्व के साथ-साथ पुलिस व्यवस्था का कार्य करते रहें इन लोगों को स्थानीय शिक्षित युवाओं के बीच से ही, इन सेवाओं के लिए चुना गया था। पधान, कमीण, सयाणे, व थोकदार भी पुलिस के कार्यों को करते थे। इन लोगों को सरकार वसूल किए गए कुल राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत देती थी।
औपनिवेशिक शासन के प्रारम्भिक वर्षों में से कमिश्नर प्रशासन के साथ-साथ न्यायिक कार्य भी देखता था। उसे दीवानी तथा फौजदारी के मामले सुनने का अधिकार प्राप्त था। इस समय तक बंगाल प्रेसीडेन्सी में प्रचलित दण्ड संहिता को कुमायूं कमिश्नरी में भी प्रयोग में लाया जा सकता था। परन्तु इन दिनों उत्तराखण्ड में हत्या, डकैती, हिंसा और राजद्रोह जैसे जघन्य अपराधों के मामले बहुत कम होते थे। फिर 1828 से इस प्रकार के अपराधों के मामलों की सुनवाई के लिए कुमायूं मण्डल को बरेली मण्डल के साथ सम्बद्ध कर दिया गया। सन् 1838 में एक्ट 16 के द्वारा न्यायिक व्यवस्था हेतु कुमायूं को सदर दीवानी अदालत तथा सदर निजामत अदालत के अधीन रखा गया। कुमायूं के लिए अलग विधि संहिता बनाने पर भी विचार दिया गया कि अदालतों में न्यायिक प्रक्रिया के निर्देशन हेतु आसाम के लिए स्थापित विधि को अपनाना ही पर्याप्त होगा। 1863 में कुमायूं डिवीजन में आसाम रूल्स के स्थान पर कुछ सुधारों के साथ झांसी सिविल रूल्स को लागू किया गया। परन्तु 1861 में भारत परिषद अधिनियम के बन जाने के बाद से प्रान्तों के ले0 गवर्नरों के Non Regulation क्षेत्रों से सम्बन्धित नियम कानून बना सकने सम्बन्धी अधिकार को समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार नये कानूनों को विधायिका की अनुमति (विशेष) के बाद लागू किया जा सकता है।
ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा उत्तराखंड में प्रचलित सामाजिक कुप्रथाओं पर प्रतिबन्ध
ब्रिटिश प्रशासकों ने सामाजिक कुप्रथाओं पर भी अंकुश लगाया। गोरखा शासन काल से चली आ रही एक प्रचलित प्रथा जिसमें कि व्यभिचारी स्त्री के पति को व्याभिचारी पुरूष के प्राण तक लेने का अधिकार था, ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा इस प्रथा को हत्या का अपराध घोषित किया गया। मानव व्यापार जिसमें पत्नी तथा किसी विधवा को बेचा जाता था को प्रतिबन्धित किया गया साथ ही बच्चों व दासों को बेचे जाने पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया। इस प्रकार ब्रिटिश प्रशासक अमानवीय प्रथाओं के विरोधी थे तथा सामाजिक सुधार की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम था।
इस प्रकार विधवा विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। वधू मूल्य की प्रथा सामाजिक तनाव का एक प्रमुख कारण थी, अंग्रेज प्रशासकों ने इस समस्या के समाधान के लिए भी प्रयास किये।
ब्रिटिश प्रशासकों को भली-भांति मालूम था कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था अत्यन्त जटिल है अतः उन्होंने इसमें अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया था ट्रेल ने प्रशासन के स्तर पर सामाजिक भेद-भाव प्रदर्शित करने वाले, निम्न वर्ण के लोगों से बसूले जाने वाले ‘नुजहारी‘ तथा ‘नजराना‘ नामक करो को समाप्त कर दिया था। इसी प्रकार ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाली 50 प्रतिशत की कर छूट को समाप्त कर दिया। दूसरी ओर केदारनाथ तथा बद्रीनाथ के मन्दिरों के उपयोग की सभी आवश्यक वस्तुओं को करमुक्त रखा गया।
बदलते भौगोलिक तथा आर्थिक परिदृश्य में उत्तराखण्ड के लोग रोजगार के अवसर प्राप्त कर रहे थे जिसमें अंग्रेजी व्यवस्था सहायक हो रही थी। अंग्रेजों द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, डाक, जंगलात तथा सार्वजनिक निर्माण आदि विभागों की अलग-अलग जिलों में स्थापना की गई। इन विभागो में स्थानीय लोगों को नियुक्त किया गया। इसके पीछे भी अंग्रेजों का हित छुपा था क्योंकि स्थानीय लोग उनके कृपा पात्र हो गये तथा स्थानीय परिस्थितियों के लिए स्थानीय लोग ज्यादा फायदेमन्द थे। उच्च शिक्षित लोगों को कुछ ऊंचे पदों पर भी नियुक्त किया गया। लोग सेना में भी भर्ती किये गये। परिणामस्वरूप लोगों का जीवन स्तर सुधरने लगा।
उत्तराखंड में औपनिवेशिक शासकों द्वारा शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुधार
सामान्य जनता के जीवन स्तर को सुधारने के लिए भी ब्रिटिश प्रशासकों ने ठोस प्रयत्न किये। पहाड़ी लोगों का स्वास्थ्य राम भरोसे होता था जनस्वास्थ्य का ध्यान ब्रिटिश से पूर्व किसी ने नहीं लिया। लोगों की स्वास्थ्य रक्षा हेतु अंग्रेजों ने अस्पतालों का निर्माण कराया। यातायात की समस्या पहाड़ में एक प्रमुख प्रश्न था। इस और औपनिवेशिक प्रशासकों ने ध्यान दिया तथा सड़कों और पुलों का निर्माण कराया। खाद्य समस्या हल करने हेतु लोगों को दुकान खोलने के लिए प्रेरित किया गया तथा ऋण सुविधा प्रदान की गई। किसानों तथा जरूरतमन्द कृषकों की कृषि एवं भूमि सुधार हेतु ब्रिटिश सरकार ने ऋणों का प्रावधान किया था।
साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ के समय भारत में शिक्षा की स्थिति शोचनीय थी। प्राचीन और वर्नाकूलर दोनों भाषाओं में ही मुद्रित पुस्तकों का प्रायः अभाव था। पाश्चात्य शिक्षा का अभी आरंभ नहीं हुआ था। स्वदेश ग्रामीण स्वावलंबी विद्यालय, चाहे वे ब्राह्मण द्वारा चलाये जाते हो या फिर मुस्लिम मौलवियों द्वारा, बच्चों की बड़ी संख्या को शिक्षित करने में असफल रहे। महिलाओं के लिए शिक्षा का अस्तित्व नहीं था।
भारत में शिक्षा के इतिहास में वुड के शिक्षा-सम्बन्धी घोषणा पत्र ¼Wood’s
Educational Despatch½ का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में इस डिस्पैच से ही एक विस्तृत योजना की रूपरेखा तैयार की गई थीं जो बाद में हुए शैक्षणिक विकास का आधार बनी। इस घोषणा पत्र के अनुसार भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का उद्देश्य भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार और सार्वजनिक प्रशासन के लिए उचित तौर पर प्रशिक्षित सेवक प्राप्त करना था।
उत्तराखण्ड में ब्रिटिश शासन से पूर्व राज्य में शिक्षा का प्रबन्ध करना राज्य का कर्तव्य नहीं था। 1854 के बुड़ डिस्पैच के प्रावधानों के तहत, व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा स्थापित विद्यालयों को अनुदान देने का प्रावधान किया गया था। बाद में सरकार ने सरकारी विद्यालयों की स्थापना हेतु भूमि कर पर तीन प्रतिशत देय लगाया। इस प्रकार औपनिवेशिक प्रशासकों ने उत्तराखण्ड में नई शिक्षा व्यवस्था को लागू किया जिससे यहाँ के लोगों को तरक्की के अवसर प्राप्त हुए और देश के अन्य भागों तथा बाहरी विश्व से सम्पर्क स्थापित करने में सहायता मिली। औद्योगिक क्रान्ति के बढ़ते प्रभाव से उत्तराखण्ड भी अछूता न रह सका। ब्रिटिश कम्पनियों का तैयार माल उत्तराखण्ड के बाजारों में भी पहुँचने लगा। पुराने समय से चले आ रहे उत्तराखण्ड के तिब्बती व्यापार में अब इग्लैंण्ड निर्मित सामान भी निर्यात होने लगा।
औपनिवेशिक शासनकाल में खोजकर्ताओं ने भौगोलिक खोजों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विभिन्न खोजकर्ताओं तथा सरकार ट्रिग्नोमैट्रिकल सर्वे, जियोलाजिकल सर्वे आदि विभागों के द्वारा उत्तराखण्ड की नदियों, शिलाओं, पर्वत, हिमानी, तप्तकुण्ड तथा जलवायु सम्बन्धी विभिन्न खोजें की। डबराल महोदय ने वर्णन किया कि 1880 तक गढ़वाल-कुमायूं से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर बहुत सी सामग्री एकत्रित की जा चुकी थी। इसी सामग्री का उपयोग एटकिंसन ने अपने शोध के विस्तृत तीन खण्डों में किया। इस सबके होते हुए भी औपनिवेशिक शासन दमनकारी एवं शोषणकारी ही था। पर्वतीय प्रदेश में डाक को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए ग्रामीणों की बारियाँ लगती थीं। ग्रामीणों द्वारा भार वहन करना भू-व्यवस्था की आवश्यक शर्तों में था। डाक के अतिरिक्त सरकारी सामान और औपनिवेशिक प्रशासकीय कर्मचारियों को भी ढोने का कार्य किया लिया जाता था। अतः कुलियों का कार्य ग्रामीण जनता द्वारा ही किया जाता था। अनुमति लेकर घुमने वाले पर्यटकों के भार को भी ढोना पड़ता था। उत्तराखण्ड पर्यटन के लिए अत्यन्त खुबसूरत स्थान था। अतः खानों के देखने, व्यापारिक सुविधा, चाय के बाजारों की व्यवस्था, शिकार के लिए, विभिन्न प्रकार के अन्वेषण के कारण उत्तराखण्ड आने वालों की संख्या में वृद्धि होती गयी और इनका भार उठाते-उठाते उत्तराखण्ड की ग्रामीण जनता के कंधे छीलते गये। इसके अतिरिक्त कम्पनी कर्मचारियों तथा साहबों के लिए दूध, घी, चावल, आटा, पशुओं के लिए घास आदि बेगार के रूप में लिए जाते थे।
यद्यपि 20वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा स्थापित इन प्रथाओं की समाप्ति के लिए कुमायूं कमिश्नरी में बडे़ पैमाने पर जन अंदोलन चलाए गए और इन शोषणकारी प्रथाओं का तीव्र विरोध किया गया। गाँधी जी द्वारा चलाये गए अहयोग आन्दोलन का प्रभाव उत्तराखण्ड पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप औपनिवेशिक प्रशासकों को पहाड़ में कुली उतार तथा बेगार जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करना पड़ा। सामान ढोने की समस्या से निपटने के लिए यातायात एजेन्सी खोली गयी। एजेन्सी को सरकारी अनुदान मिलता था जिसका परिणाम यह हुआ कि सरकार को तीस हजार से कई गुना प्रतिवर्ष आर्थिक हानि हुई जिससे सरकार को घाटा हुआ।
इस प्रकार कुमायूं-गढ़वाल के ब्रिटिश शासन में आने के बाद जो परिवर्तन सामने आये उनमें प्रशासनिक सुधार के अतिरिक्त वनोत्पादों के दोहन के रूप में सामने आया। 12वीं शताब्दी में पश्चिमी नेपाल के मल्लवंश ने उत्तराखण्ड को जीत लिया। इस जीत से प्राचीन कत्यूरी वंश का पतन हो गया। बाद में चंद शासकों ने कुमायूँ में अपना शासन स्थापित किया। पंवार तथा चंद राजाओं ने शीघ्र ही अपने-अपने शासन तंत्र को सुदृढ़ किया। मध्यकालीन शेष भारत के समान ही कृषि राजस्व प्राप्ति का प्रमुख स्रोत था उत्तराखण्ड में गोरखा शासन की स्थापना निरन्तर होने वाले आक्रमणों के परिणाम स्वतंत्र 1790 में कुमायूं तथा 1804 में गढ़वाल पर विजय प्राप्त की। अतः उत्तराखण्ड का प्राचीन राजनीतिक ताना-वाना छिन्न-भिन्न हो गया। गोरखों के अत्याचारी शासन का अन्त ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा 1815 में किया गया। उत्तराखण्ड के अंग्रेजी शासन की छाया में आ जाने के बाद यहाँ कम्पनी के हितों के एकमात्र उद्देश्य व्यापार को साधना शुरू किया। सबसे पहले अंग्रेजों ने उत्तराखण्ड का सीमा निर्धारण किया। ट्रेल को कुमायूँ में औपनिवेशिक शासन का वास्तविक संस्थापक माना गया। उसने कुमायूं में अपने अनुकूल शासन व्यवस्था स्थापित की। कोई स्थानीय कानून नहीं था, नीतियां नहीं थीं वह स्वयं कानून निर्माता था। औपनिवेशिक शासकों ने उत्तराखण्ड में वन एवं भू-प्रबन्ध में विशेष योगदान दिया। यद्यपि अंग्रेजों की दमनकारी एवं शोषक नीति का उत्तराखण्ड में बड़े पैमाने पर विरोध किया परन्तु अंग्रेजों के पास प्रारम्भ में कोई ठोस एवं स्पष्ट भू-प्रबन्ध नीति नहीं थी। ट्रेल ने अपनी बौद्धिक क्षमता से कुमायूँ में एक स्पष्ट भू-व्यवस्था का प्रबन्ध किया। मैंदानों के समान ही पहाड़ी खेतों का माप पहली बार उत्तराखण्ड में बैकट की भू-व्यवस्था में किया गया था। वनों के अत्याधिक दोहन की गम्भीरता को समझते हुए सन् 1858 में वनों से ठेेके की प्रथा को समाप्त कर दिया गया। सन् 1860 में सरकार ने रामजे को कुमायूँ डिवीजन का वन संरक्षक नियुक्त कर दिया गया। पेड़ काटने से पहले उसको चिन्हित (धन लगाने) की प्रथा रामजे ने ही प्रारम्भ की। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वनों का अत्याधिक दोहन किया गया। स्लीपर और इमारती लकड़ी और बाँस की लकड़ी को अत्याधिक नुकसान हुआ। सारांशतः हम कह सकते हैं कि औपनिवेशिक शासकों की नीति सिर्फ उत्तराखण्ड का दोहन था। जिसके लिए उन्होंने विभिन्न नियमों और संस्थाओं का सहारा लिया। भारत का दोहन कर इग्लैण्ड को समृद्ध बनाने का सपना पूरा किया। परन्तु ट्रेल और रामजे जैसे शासकों को उत्तराखण्ड से विशेष प्यार था इसलिए उन्होंने बड़ी मेहनत से उत्तराखण्ड में विकास के लिए प्रयास किये।
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